सम्पादकीय

देश के नौकरशाहों ने खुद को नेताओं के आगे सरेंडर क्यों कर दिया है?

Rani Sahu
16 April 2022 9:04 AM GMT
देश के नौकरशाहों ने खुद को नेताओं के आगे सरेंडर क्यों कर दिया है?
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लोक प्रशासन (Public Administration) की टेक्स्ट बुक्स में जिला मजिस्ट्रेट (कुछ राज्यों में जिला कलेक्टर) को एक मिनी किंग के तौर पर दिखाया गया है

अजय झा |

लोक प्रशासन (Public Administration) की टेक्स्ट बुक्स में जिला मजिस्ट्रेट (कुछ राज्यों में जिला कलेक्टर) को एक मिनी किंग के तौर पर दिखाया गया है. किसी राज्य के मुख्य सचिव (Chief Secretary) को मुख्यमंत्री से अधिक शक्तिशाली माना जाता है, क्योंकि पूरे प्रशासन को संभालने के साथ ही सरकार और सत्ताधारी दल की नीतियों को लागू करने की जिम्मेदारी उस अधिकारी पर होती है. इसी तह IAS अधिकारियों का रुतबा भी ऐसा है कि अधिकांश छात्र अभी भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल होने की इच्छा रखते हैं. हालांकि, समय के साथ इसका क्रेज कम होना शुरू हो गया है. क्योंकि अपनी पोस्टिंग नेताओं के हाथ में होने की वजह से ज्यादातर अधिकारी उनके आगे झुके रहते हैं.
लोक प्रशासन की किताबें ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी हैं जब किसी वरिष्ठ नौकरशाह ने किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की आंखों में आंखें डालकर दो टूक जवाब दिया हो कि वे यहां प्रशासन चलाने के लिए हैं, न कि किसी राजनीतिक दल की लोगों को लुभाने वाली पूर्व-चुनाव घोषणाओं को लागू करने के लिए.
पंजाब में केजरीवाल की गहरी दिलचस्पी होना लाजमी है
भारत के संविधान में संसदीय लोकतंत्र के तीन मुख्य स्तंभों के रूप में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को रखा गया है. खास बात ये है कि तीनों को ही किसी सीमा में नहीं बांधा गया है, लेकिन वे अपने आप में संपूर्ण न होकर आपस में जुड़ी हुई हैं. चूंकि संविधान को बनाने वालों ने सख्त अर्थों में शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को नहीं अपनाया और एक चेक-एंड-बैलेंस प्रणाली को प्राथमिकता दी, ऐसे में सिस्टम में कुछ ग्रे जोन भी नजर आते हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा सोमवार को राष्ट्रीय राजधानी में पंजाब के वरिष्ठ नौकरशाहों की बैठक बुलाने पर खूब हंगामा हो रहा है और उनसे स्पष्टीकरण देने की की उम्मीद भी की जा रही है.
केजरीवाल आधिकारिक तौर पर पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक हैं, जो इस साल मार्च में पंजाब में सत्ता में आई आम आदमी पार्टी (आप) के राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए एक नाम है. आप ने कहा है कि इस बैठक में कुछ भी अवैध नहीं था, जबकि सभी विपक्षी दल इसे संघवाद का मोड़ या रिमोट कंट्रोल के जरिए पंजाब सरकार चलाने के केजरीवाल के खुले प्रयासों को बता रहे हैं. केजरीवाल के बचाव में, यह कहा जा सकता है कि उन्होंने कभी नहीं कहा कि अगर उनकी पार्टी पंजाब में सत्ता में आती है तो वह राज्य सरकार पर कोई नियंत्रण नहीं रखेंगे.
पंजाब में केजरीवाल की गहरी दिलचस्पी होना लाजमी भी है क्योंकि 2014 के आम चुनावों में चार सीटों पर जीत के साथ उनकी पार्टी के लिए पंजाब वोटों के रूप में सबसे उपजाऊ राज्य रहा है. जबकि दिल्ली में वे कोई लोकसभा सीट नहीं जीत पाए थे. 2017 के पंजाब विधानसभा चुनावों में, AAP के सत्ता में न आने का एक प्रमुख कारण केजरीवाल का मुख्यमंत्री कैंडिडेट पेश न करना माना गया था और साथ ही उनको डर था कि अगर AAP सत्ता में आती है तो हरियाणा में जन्मे केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री से पंजाब के मुख्यमंत्री बन सकते हैं.
आप ने पंजाब के मतदाताओं से दिल्ली मॉडल को लागू करने का वादा किया था
2019 के चुनावों में भी AAP को इसी तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा, जब तक कि केजरीवाल ने अपनी राज्य इकाई के संयोजक और दो बार सांसद भगवंत मान को पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा नहीं घोषित कर दिया. इसके बाद AAP ने 117 सीटों के दांव में 92 सीटों पर चुनाव में जीत हासिल की. यह सच है कि आप ने पंजाब के मतदाताओं से दिल्ली मॉडल को लागू करने का वादा किया था और दिल्ली मॉडल को लागू करने की प्रक्रिया शुरू करना पार्टी के लिए सबसे महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि वह इसी आधार पर आने वाले समय में दो भाजपा शासित राज्यों – गुजरात और हिमाचल प्रदेश में वोट मांगेगी.
दिल्ली मॉडल की बात करें तो इसमें फ्री स्कीम शामिल हैं, जैसे कि प्रत्येक घर को प्रति माह 300 यूनिट मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मासिक पेंशन, बेरोजगारी भत्ता, आदि. इसके अलावा, इसमें सरकारी अस्पतालों में गुणवत्ता और मुफ्त इलाज के लिए अच्छे स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे का निर्माण करने और निजी स्कूलों के समान सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने जैसे वादे भी किए गए हैं. यह समझना चाहिए कि AAP कुछ निश्चित मापदंडों के आधार पर चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दलों के कुलीन क्लब में प्रवेश पाने की दिशा में काम कर रही है और केजरीवाल एक महत्वाकांक्षी राजनेता हैं. यह भी कोई राज की बात नहीं है कि वे प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा भी रखते हैं.
2024 के आम चुनाव में मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देने और विपक्षी रैंकों से सबसे मजबूत उम्मीदवार के रूप में उभरने और AAP को एक दुर्जेय राजनीतिक ताकत के रूप में अपनी साख स्थापित करने के लिए अधिक से अधिक विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करनी होगी. अब से लेकर दिसंबर 2023 के बीच तक 12 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. ऐसे में पंजाब सरकार के प्रदर्शन के आधार पर ही आम आदमी पार्टी इन चुनावों में अपनी मजबूत दावेदारी पेश कर पाएगी. केजरीवाल द्वारा आप के सर्वोच्च नेता के रूप में पंजाब के शीर्ष नौकरशाहों की बैठक बुलाने में कुछ भी गलत या नियमों का उल्लंघन करने वाला नहीं था, लेकिन अपने शिष्य भगवंत मान को दरकिनार कर दिल्ली के सीएम ने जरूर कुछ लोगों को नाराज कर दिया है. इस बैठक को केजरीवाल अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री को नीचा दिखाने से कहीं बेहतर तरीके से निपट सकते थे.
केजरीवाल संग हुई बैठक अगर अवैध नहीं थी तो अनैतिक जरूर थी
किसी राज्य सरकार को रिमोट से चलाने की छवि आने वाले समय में नई राज्यों में आप की जीत के इरादों को प्रभावित कर सकती है. हालांकि, इसमें एक बात यह भी है कि केजरीवाल को कभी भी पारंपरिक नेता या सौम्य छवि वाले नेता के तौर पर नहीं जाना जाता है. वे आज जो कुछ भी हैं, वह उन्होंने आंदोलन और संघर्ष से पाया है और अपनी छवि को और निखारने के लिए वे अभी भी सब कुछ उसी तरीके से करना पसंद करते हैं. पंजाब में प्रचंड जीत ने केजरीवाल को आश्वस्त कर दिया है कि केंद्रीकृत कामकाज की उनकी अपरंपरागत शैली ही आगे बढ़ने के लिए अच्छी है.
ऐसा नहीं है कि आप के दिल्ली गवर्नेंस मॉडल और मतदाताओं को फ्री में बिजली-पानी देने के केजरीवाल के आइडिया को पूरे देश में तुरंत स्वीकृति मिल गई. पंजाब में तो यह हिट रहा, जबकि गोवा में इसे आंशिक रूप से स्वीकार किया गया और, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के मतदाता इससे प्रभावित नहीं हुए क्योंकि पार्टी इन दोनों राज्यों में अपना खाता खोलने में विफल रही. यह देखना दिलचस्प होगा कि केजरीवाल रिमोट के जरिए सरकार चलाने की कोशिश के आरोपों से अपना बचाव कैसे करते हैं, क्योंकि गुजरात जैसे राज्य में परिणाम अक्सर अस्मिता जैसी भावनाओं से तय होते हैं.
यह बात तो एक नेता के बारे में है. लेकिन अब बात उन नौकरशाहों के बारे करते हैं जिनसे ये उम्मीद की जा रही थी कि उनको पता हो कि सोमवार को केजरीवाल संग हुई बैठक अगर अवैध नहीं थी तो अनैतिक जरूर थी. समय तेजी से बदल गया है और नौकरशाहों की वो नस्ल जो समान शर्तों पर आंखों में आंखें डालकर राजनीतिक वर्ग से बात करती थी, लगभग लुप्त ही हो चुकी है. बिहार में लालू प्रसाद यादव ने जब प्रशासनिक अधिकारियों को यह जताने का सिलसिला शुरू किया कि उनका बॉस कौन है, तब उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा. मुख्यमंत्री के रूप में लालू प्रसाद अपने कमरे में आने वालों के लिए कुर्सियां इसलिए नहीं रखते थे ताकि जब वे वरिष्ठ नौकरशाहों को बुलाएं तो वे उनके सामने खड़े रहें.
अधिकारी अपनी इस दयनीय स्थिति के लिए खुद जिम्मेदार हैं
कमोबेश ऐसा ही पड़ोसी उत्तर प्रदेश में मायावती के शासन के दौरान देखा गया था, जब किसी नौकरशाह को, चाहे वह कितना भी वरिष्ठ क्यों न हो, बैठने की अनुमति तब तक नहीं थी – जब तक कि वह खुद उन्हें न कहें. और यह तो सभी जानते हैं कि वह शायद ही किसी को बैठने के लिए कहती थीं. नौकरशाहों ने उनकी इस हरकत का तब भी विरोध नहीं किया. पश्चिम बंगाल में भी कुछ इसी तरह की घटना देखी गई. तृणमूल कांग्रेस के पिछले साल सफलतापूर्वक सत्ता में बने रहने के तुरंत बाद एक विचित्र स्थिति सामने आई जब राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक छोटे से राजनीतिक मुद्दे पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली आधिकारिक बैठक छोड़ दी. बनर्जी ने न केवल हड़बड़ी में बैठक छोड़ दी, बल्कि राज्य के मुख्य सचिव अलपन बंदोपाध्याय को भी अपने साथ लेकर गईं जो यह समझ नहीं पाए उनको मुख्यमंत्री के प्रति वफादार रहना है या प्रधानमंत्री के प्रति.
उन्होंने मुख्यमंत्री के साथ रहने का विकल्प चुना और केंद्र ने उनके स्थानांतरण और निलंबन के साथ सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली तमाम सुविधाओं को भी रोक दिया, जो रिटायरमेंट के बाद एक आईएएस अधिकारी को मिलती हैं. ऐसी कार्यपालिका का हिस्सा होने पर जिसे विधायिका के बराबर रखा गया है, अगर प्रशासनिक अधिकारी सही रुख नहीं अपना पाते हैं तो बेशक अपनी इस दयनीय स्थिति के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं. जब तक वे किसी मंत्रालय के मुख्य सचिव या सचिव बनते हैं, तब तक उनकी सेवानिवृत्ति होने वाली होती है.
उनमें से बहुत से लोग सेवानिवृत्ति के बाद राज्यपाल बनने या ऐसा ही कोई पद पाने का मौका तलाशते हैं. रिटायरमेंट के बाद वे अक्सर चुनाव भी लड़ना चाहते हैं ताकि मंत्री नहीं तो सांसद या विधायक तो बन ही जाएं. ऐसा करने के लिए, वे राजनीतिक वर्ग को खुश करने का विकल्प चुनते हैं, कुछ मुंहफट राजनेताओं द्वारा अपमान भी झेलते हैं और हमेशा अपनी पीठ झुकाने के लिए भी तैयार रहते हैं. यदि सेवानिवृत्त नौकरशाहों को चुनाव लड़ने या सरकार या निजी क्षेत्र में पांच साल की निश्चित अवधि के लिए कोई अन्य कार्यालय लेने से रोकने के लिए कुछ संवैधानिक कदम उठाया जाता है, तो इसे बुरा नहीं माना जाना चाहिए. साथ ही, मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के पाठ्यक्रम को भी बदलने की जरूरत है ताकि युवा अधिकारियों को शक्तिशाली राजनेता का सामना करने का प्रशिक्षण भी मिल सके.
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