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By लोकमत समाचार सम्पादकीय
By अभय कुमार दुबे
गुजरात में जो काम 'खाम' (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुसलमान) की राजनीति ने किया था, वही भूमिका उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की राजनीति ने निभाई है। वहां भी अस्सी और नब्बे के दशक में चली सामाजिक न्याय की राजनीति के फलस्वरूप भाजपा को ऊंची जातियों और सामाजिक न्याय के दायरे से बाहर रह गईं कमजोर जातियों का तकरीबन स्थायी जनाधार मिला। यह निष्ठावान मतदाता-मंडल हर मुसीबत में भाजपा के साथ रहता है।
ऐसा कैसे हुआ, इसका उत्तर जानने के लिए हमें चुनावी गोलबंदी के पिछले चालीस साला इतिहास पर एक निष्पक्ष दृष्टि डालनी होगी। यहां निष्पक्ष रहने का आग्रह 'सेक्युलर बनाम सांप्रदायिकता, 'बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक' और 'ब्राह्मणवाद बनाम कमजोर जातियां' जैसे विमर्शी फार्मूलों से बचने के लिए किया जा रहा है। होता यह है कि जैसे ही इन सूत्रों का इस्तेमाल किया जाता है, हम हिंदू समाज के भीतर चलने वाली राजनीतिक क्रियाओं के प्रति वैचारिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाते हैं। कुछ जातियों की एकता हमें श्रेयस्कर लगने लगती है, और कुछ दूसरी जातियों की एकता को हम प्रतिगामी कहने लगते हैं। परिणामस्वरूप बदलती हुई राजनीति को समझना मुश्किल हो जाता है। यहां देखना यह चाहिए कि एंटी-इनकम्बेंसी होते हुए भी एक पार्टी अपने बुनियादी जनाधार को कैसे कायम रखती है, और क्यों मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा सरकार से नाराज होते हुए भी कहता है कि वह नाखुश तो है पर सरकार बदलने के लिए वोट नहीं करेगा।
जब कांग्रेस का राजनीतिक प्रभुत्व था, उस समय भी ऐसी विरोधाभासी स्थिति देखी जाती थी। साठ के दशक के बाद कई बार मतदाता कांग्रेस से खुश नहीं होते थे, लेकिन फिर भी कांग्रेस चुनाव जीतती रहती थी। इसका एक बड़ा कारण यह था कि कांग्रेस के अलावा कोई और पार्टी या पार्टियों का गठजोड़ मतदाताओं को राजनीतिक स्थिरता और शासन चला पाने का भरोसा नहीं दे पाता था। 1967 में दस राज्यों में जो संयुक्त विधायक दल की गठजोड़ सरकारें बनी थीं, या 1977 में जिस जनता पार्टी को मतदाताओं ने बहुमत दिया था, उनका हश्र बार-बार राजनीतिक पलड़े को कांग्रेस के पक्ष में झुका देता था। पूंजीपति वर्ग भी जांची-परखी कांग्रेस के साथ ही सहज महसूस करता था। भाजपा का अभी वैसा प्रभुत्व नहीं है। दक्षिण भारत अभी भी भाजपा के प्रभाव-क्षेत्र से मोटे तौर पर बाहर है, और दोनों लोकसभा चुनावों में उसने कांग्रेस के मुकाबले कहीं कम प्रतिशत वोटों के जरिये बहुमत प्राप्त किया है। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि भाजपा उस तरह के प्रभुत्व की तरफ बढ़ रही है। इस लिहाज से भाजपा की राजनीति का विश्लेषण कांग्रेस के चुनावी इतिहास से हटकर किया जाना चाहिए।
गुजरात के उदाहरण पर हम गौर कर चुके हैं। उत्तर प्रदेश का उदाहरण भी उसी विश्लेषण की तस्दीक करता है। अस्सी और नब्बे के दौरान उप्र में बहुजन (दलित, ओबीसी और धर्मांतरित मुसलमान) एकता के लिए प्रयास हुए। इस राजनीति ने ऊंची जातियों को शोषक, उत्पीड़क, सांप्रदायिक और अत्याचारी के रूप में पेश करके कोने में धकेल दिया। देखते-देखते इस तरह के गठजोड़ों की सरकारें बनने लगीं। यह सिलसिला मोटे तौर पर 2017 तक चलता रहा। लेकिन, सेक्युलरिज्म की जीत और ब्राह्मणवाद विरोध के रूप में देखी जाने वाली इस राजनीति की सफलता में भी भविष्य की राजनीति छिपी हुई थी। प्रदेश में ऊंची जातियों और यादवों-जाटवों जैसे प्रभुत्वशाली समुदायों द्वारा सामाजिक न्याय के दायरे से बाहर रखी गई कुछ कमजोर जातियां इसी दौर में भाजपा की तरफ खिंचती जा रही थीं। दरअसल, राजनीतिक विफलता का यह दौर भाजपा को उसका स्थायी जनाधार देने वाला था। आज स्थिति यह है कि उप्र में एंटी-इनकम्बेंसी के बावजूद ये वोटर हमेशा उसका साथ देते हैं। पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव की कहानी भी यही है।
ध्यान देने की बात है कि गुजरात के मुकाबले उप्र में द्विज और अन्य प्रभुत्वशाली जातियां संख्यात्मक दृष्टि से प्रबल हैं। इस राज्य में ब्राह्मणों के वोटों का प्रतिशत ही तकरीबन 11-12 प्रतिशत माना जाता है। इसमें नौ फीसदी राजपूत और पांच-सात फीसदी वैश्य जोड़ लिए जाएं तो करीब 28 फीसदी वोट बन जाते हैं। इसमें अगर जाट, भूमिहार और कायस्थों को भी शामिल किया जाए तो आंकड़ा पैंतीस फीसदी के आसपास पहुंच जाता है। सोचने की बात है कि जिस पार्टी के पास पैंतीस फीसदी वोटों की स्थायी पूंजी हो, उसे चुनाव में हराना कितना कठिन है।
गुजरात और उत्तर प्रदेश की मिसालें बताती हैं कि अगर कुछ जातियों की संख्यात्मक गोलबंदी करके और कुछ जातियों की पूरी तरह से उपेक्षा करके एक बड़ा और स्थायी किस्म का आक्रामक बहुमत खड़ा किया जाएगा तो उसके विरोध में हिंदू समाज के भीतर धीरे-धीरे एक प्रतिक्रिया जन्म लेती है। वे जातियां एक नए राजनीतिक ध्रुव की तलाश करने लगती हैं। जैसे ही उन्हें वह ध्रुव मिलता है, वे निष्ठापूर्वक उसके साथ जुड़ जाती हैं। फिर थोड़ी-बहुत एंटी-इनकम्बेंसी उन्हें उस निष्ठा से नहीं डिगा पाती। वे नाराज होते हुए भी सरकार बदलने के लिए वोट नहीं करतीं। इससे राजनीतिक यथास्थिति जड़ जमा लेती है। चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया सत्ता परिवर्तन में विफल हो जाती है।
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