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पिछले दिनों अफगानिस्तान में ‘संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन‘ ने एक ट्वीट किया
पिछले दिनों अफगानिस्तान में 'संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन' ने एक ट्वीट किया. ट्वीट में यह सूचना दी गई कि तालिबान ने कथित तौर पर दो और महिला कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया गया है, जिसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिल रही है. तालिबान के खिलाफ प्रदर्शनकारियों का मानना है कि पिछले कुछ दिनों में आठ महिला अधिकार कार्यकर्ता गायब हो गई हैं.
जैसा कि हम जानते हैं कि एक ओर यूरोप के देशों सहित भारत के शैक्षणिक संस्थाओं में कुछ मुस्लिम महिलाएं बुर्का और हिजाब पहनने का समर्थन कर रही हैं, वहीं अफगानिस्तान में महिलाएं इसके विरोध में प्रदर्शन कर रही हैं. लेकिन, वहां की तालिबान सत्ता महिलाओं की आवाज को कुचलने के लिए क्रूरता ही जिन हदों को लांघ रही है, उसे ध्यान में रखते हुए हमारे लिए सबक यह है कि हम वहां की महिलाओं के संघर्ष और उनके दमन की कहानी को अनदेखा न करें, क्योंकि बात अब यहां तक पहुंच गई है कि अपने अधिकारों के लिए सड़क पर लड़ने वाली अफगान की महिला प्रदर्शनकारी आश्चर्यजनक तौर पर गायब होने लगी हैं.
हाल ही में काबुल की रहने वाली एक महिला अधिकार कार्यकर्ता मासूमा हेम्मत ने एक अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान को बातचीत में बताया कि तालिबान लड़ाके उसके घर की गली में उसे भी ढूंढ़ रहे थे. 28 वर्षीय इस कार्यकर्ता के मुताबिक, उसके पहले उसकी परिचित अन्य दो महिला कार्यकर्ता गायब हो चुकी थीं. पड़ोसी ने फोन किया कि तालीबानी लड़ाके उसे ढूंढ़ रहे हैं, तो 'तालिबान' का नाम सुनते ही वह डर गई और बचने का रास्ता तलाशने लगी, उसे लगा कि कहीं वह भी गायब न हो जाए.
पिछले महीने से शुरू हुआ सिलसिला
इन दिनों तालिबान भले ही दुनिया के सामने अपनी सरकार को मान्यता देने और आर्थिक रूप से समर्थन मांगने के लिए मनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन हाल के हफ्तों में तालिबान लड़ाकों ने महिला अधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया है, विशेष रूप से उन महिलाओं को जो अपनी मर्जी से बुर्का पहनने या नहीं पहनने की स्वतंत्रता के अधिकार का समर्थन कर रही हैं.
दूसरी तरफ, 'द वाशिंगटन पोस्ट' ने बीते दिनों नाम न उजागर करने की शर्त पर आधा दर्जन महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के साक्षात्कार लिए, जिसमें उन्होंने बताया कि सशस्त्र कट्टरपंथियों ने उन्हें पीटा, उनके चेहरे पर काली मिर्च स्प्रे छिड़की और उन्हें करंट के झटके दिए. इसी तरह, कई महिला कार्यकर्ताओं को धमकी भरे कॉल और टेक्स्ट संदेश मिल रहे हैं, उन्हें सोशल मीडिया पर परेशान किया जा रहा है. महिलाओं को डराने-धमकाने की यह कवायद इस सीमा तक पहुंच गई है कि तालिबानी लड़ाके उनका पीछा कर रहे हैं.
पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के खतरे को लेकर ध्यान तब गया, जब गत 19 जनवरी की शाम को कुछ बंदूकधारियों ने अलग-अलग अभियानों में दो प्रसिद्ध कार्यकर्ता तमना परयानी और परवाना इब्राहिमखिल को हिरासत में ले लिया. इसके बाद इस मामले में 'संयुक्त राष्ट्र' को तक सामने आना पड़ा, जिसने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के हवाले से यह बताया कि परयानी और उनकी तीन बहनों को उनके तीसरी मंजिल के अपार्टमेंट से अपहरण कर लिया गया है, जबकि इब्राहिमखिल को उनके बहनोई के साथ काबुल के दूसरे हिस्से में ले जाया गया है. तीन दिन पहले दोनों महिलाओं ने तालिबान के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन किया था.
तालिबान के अंदर दुष्ट तत्व दोषी
दूसरी तरफ, तालिबान पुलिस के प्रवक्ता खालिद जादरान ने प्रेस से कहा कि पुलिस ने परयानी या इब्राहिमखिल को गिरफ्तार नहीं किया है, और हमारी पुलिस ने कॉल या संदेशों के माध्यम से किसी को धमकी नहीं दी. वहीं, गृह मंत्रालय के प्रवक्ता कारी सईद खोस्ती ने भी किसी भी भूमिका से इनकार करते हुए कहा कि इस मुद्दे का उनसे कोई लेना-देना नहीं है. हालांकि, इस प्रकरण पर अफगान मीडिया की कवरेज देखें ओस्लो में तालिबान के कार्यवाहक विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी ने इसके लिए तालिबान के अंदर दुष्ट तत्वों को दोषी ठहराया और कहा कि घटनाओं की जांच की जा रही है.
इस बीच सोशल मीडिया पर परयानी का एक वीडियो सामने आया है जिसमें वह मदद के लिए चिल्लाती नजर आ रही हैं और कह रही हैं कि तालिबान लड़ाके उनके दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं, "कृपया मदद करें, तालिबान हमारे घर आ गए हैं." वहीं, तालिबान के अधिकारियों ने वीडियो को नाटक और विदेश में शरण लेने की एक चाल बताया.
अफगानिस्तान में 'तालिबानी सत्ता' के खिलाफ कार्य करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन मानते हैं कि महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के अपहरण के जरिए तालिबान एक स्पष्ट संदेश दे रहा है. संदेश यह कि समाज विशेषकर महिलाओं को कैसे रहना चाहिए, अधिकार और शक्ति किसके पास हैं और लोगों को चाहिए कि वे तालिबान की मान्यताओं का सम्मान करें. जाहिर है कि यह गतिविधियां तालिबान के खिलाफ किसी भी तरह की सक्रियता, किसी भी तरह के विरोध को रोकने के खिलाफ है.
संयुक्त राष्ट्र ने कहा सुरक्षित और तत्काल रिहाई हो
इस बारे में संयुक्त राष्ट्र ने एक बयान में कहा कि अफगानिस्तान में महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का गायब होना परेशान करने वाला है, जो नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और अन्य लोगों की 'मनमाने ढंग से गिरफ्तारी और हिरासत के एक पैटर्न' का हिस्सा है.
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त की प्रवक्ता रवीना शमदासानी ने जिनेवा में पत्रकारों से कहा कि अधिकारियों को कार्यकर्ताओं की सुरक्षित और तत्काल रिहाई सुनिश्चित करने के लिए उपाय करने चाहिए.
अफगान मीडिया की अन्य खबरों को नोटिस किया जाए तो आज अधिकांश क्षेत्रों में लड़कियां छठी कक्षा के बाद स्कूल नहीं जा पा रही हैं. स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र को छोड़कर महिलाओं को सरकारी नौकरियों से प्रतिबंधित कर दिया गया है. तालिबान अंतरिम सरकार के 33 कैबिनेट मंत्रियों में से कोई भी महिला नहीं है. सरकार ने महिला मामलों के मंत्रालय को बंद कर दिया और उसे धार्मिक नैतिक पुलिस कार्यालय में बदल दिया.
तालिबानियों ने परेशान किया और पीटा
इस बीच सिदिका तारिक नाम की एक अन्य 27 वर्षीय महिला अधिकार कार्यकर्ता ने एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी से संपर्क साधा और बताया कि हाल ही में एक विरोध प्रदर्शन के दौरान उसकी पीठ में बंदूक की बट से प्रहार किया गया. सिदिका के मुताबिक तालिबान ने महिलाओं को चेतावनी दी कि अफगानिस्तान में एक इस्लामी सरकार है, इसलिए महिलाओं की मांगें जायज नहीं हैं. उसके बाद 29 जनवरी को वह एक अन्य कार्यकर्ता से बात करने के लिए काबुल विश्वविद्यालय जा रही थी. तभी कुछ बंदूकधारियों ने उसे रोका और कहा कि उनके ट्रक में बैठ जाएं. तारिक ने बताया कि उन्होंने चिल्लाना शुरु कर दिया और भीड़ जमा हो गई. बंदूकधारी उसे छोड़कर चले गए.
देखा जाए तो अफगानिस्तान में महिलाओं के समान अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन अक्सर छोटे होते हैं, कभी-कभी 20 से 30 महिलाओं से अधिक नहीं, लेकिन उन्होंने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है. इस दौरान आए वीडियो फुटेज में देखा गया है कि तालिबान लड़ाके महिला प्रदर्शनकारियों को अपने राइफल बटों से धक्का देते हैं.
देखा जाए तो 16 जनवरी के बाद से अफगानिस्तान में महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने सड़कों पर प्रदर्शन नहीं किया है, लेकिन कुछ कार्यकर्ताओं ने साक्षात्कार में बताया है कि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहती हैं. कुछ ने मुट्ठी भर पत्रकारों के साथ अपने घरों के अंदर समाचार सम्मेलन आयोजित किए हैं. वहीं कुछ कार्यकर्ता सोशल मीडिया का सहारा ले रही हैं. इन महिलाओं ने बताया कि यदि उन्हें अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मजबूत समर्थन नहीं मिलता है, तो उनका आंदोलन प्रभावी नहीं होगा और आगे भी उनका शिकार किया जाता रहेगा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शिरीष खरे लेखक व पत्रकार
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.
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