सम्पादकीय

सिखों ने क्यों किया था संविधान सभा का बहिष्कार?

Gulabi
15 Jan 2022 6:56 AM GMT
सिखों ने क्यों किया था संविधान सभा का बहिष्कार?
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भारत विभाजन सरसरी तौर पर भले ही केवल हिंदुओं और मुसलमानों के बीच का बंटवारा लगता है, लेकिन
भारत विभाजन सरसरी तौर पर भले ही केवल हिंदुओं और मुसलमानों के बीच का बंटवारा लगता है, लेकिन उस विभाजन में सिख भी अहम पक्ष थे. वास्तव में उस बड़े विभाजन के भीतर कई छोटे-छोटे विभाजन शामिल थे. भारत में हिंदू और मुस्लिम समुदायों के रूप में सांप्रदायिकता के केवल दो ही कोण ही नहीं रहे हैं. इसका एक तीसरा कोण भी रहा है, जो है सिख समुदाय. जब भारत की आज़ादी के अंतिम चरण की प्रक्रियाएं हो रही थीं, तब केवल मुस्लिम लीग ने ही नहीं, बल्कि सिखों ने भी संविधान सभा के बहिष्कार की घोषणा की थी. लेकिन अंतत: सजग राजनीतिक संवाद के माध्यम से सिखों को संविधान सभा में बुला ही लिया गया.
भारत विभाजन और सिखों की स्थिति
भारत की स्वतंत्रता और विभाजन ने पंजाब, खासकर सिखों के सामने बड़ी चुनौतीपूर्ण स्थिति खड़ी कर दी थी. विभाजन का आधार हिंदू और मुसलमान थे. यानी जिन प्रांतों में मुस्लिम आबादी ज्यादा थी, उन्हें पाकिस्तान में शामिल होने वाले क्षेत्रों में गिना जाना था. विभाजन के पहले पंजाब में 2.84 करोड़ की जनसंख्या में 1.62 करोड़ मुस्लिम थे, यानी आधी से अधिक आबादी. इस हिसाब से वह क्षेत्र पाकिस्तान का हिस्सा बनता. लेकिन मुगलों ने सिख गुरुओं का जो उत्पीड़न किया था, उसके कारण सिख इस्लाम के पक्ष में नहीं थे.
जहांगीर और औरंगजेब ने 16वीं और 17वीं शताब्दी में सिख गुरुओं पर अत्याचार किये थे. इसके पश्चात महाराजा रणजीत सिंह (1780-1839) ने पंजाब से लेकर मुल्तान, पेशावर और कश्मीर तक अपना राज्य स्थापित कर लिया था, लेकिन उनके बाद कोई भी सिख नेतृत्व सिखों की अस्मिता को उस ऊंचाई पर बरकरार नहीं रख सका. सिखों को उम्मीद थी कि ब्रिटिश हुकूमत सिख राज्य स्थापित करने में मदद करेगी, इसलिए ब्रिटिश भारतीय सेना में सिखों ने हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. पहले विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना की तरफ से लगभग 12 लाख भारतीय सैनिकों ने युद्ध लड़ा था, जिनमें 22 प्रतिशत सिख थे. जबकि भारत की कुल जनसंख्या में सिखों की आबादी 2 प्रतिशत से भी कम थी.
दूसरे विश्व युद्ध में, जब कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन के समूहों ने यह तय किया कि इस युद्ध में भारत के सैनिक शामिल नहीं होंगे, तब भी ब्रिटिश भारतीय सेना में स्वैच्छिक रूप से शामिल होने वाले सिखों की संख्या लगभग 3 लाख थी. इसी दौरान, प्रभावशाली सिख नेता मास्टर तारा सिंह ने वर्ष 1942 में अलग और मुक्त पंजाब की मांग उठाई. मार्च 1946 तक कई सिख नेता पृथक सिखिस्तान या खालिस्तान की मांग करते रहे, लेकिन यह मांग मूर्त रूप नहीं ले पाई. इसके पहले वर्ष 1929 के लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में यह तय हुआ था कि भविष्य में कांग्रेस को संविधान में सांप्रदायिकता की समस्या का कोई भी समाधान बिना सिखों की सहमति के स्वीकार्य नहीं होगा.
29 मार्च 1942 को ब्रिटिश सरकार ने वार कैबिनेट के माध्यम से प्रस्ताव (जिसे क्रिप्स प्रस्ताव कहा जाता है) रखा कि ब्रिटेन भारत को स्वतंत्रता देने के लिए तैयार है, लेकिन, इस प्रस्ताव में पूर्ण स्वतंत्रता का भाव नहीं था. इसकी पृष्ठभूमि यह थी कि दूसरे विश्व युद्ध में कांग्रेस ने यह तय किया था कि ब्रिटेन की सेना को सहायता नहीं दी जाएगी, जबकि जापान की सेनाएं बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही थी. यह स्थिति ब्रिटेन के लिए बहुत डरावनी थी. युद्ध में भारत का साथ लेने के लिए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने यह प्रस्ताव भिजवाया था. इस प्रस्ताव में कहा गया था कि भारत ब्रिटेन का अधिराज्य (डोमिनियन) बना रहेगा. संविधान बनाने के लिए सभा का गठन किया जाएगा.
यह भी कहा गया कि जो प्रांत-रियासतें भारत के संविधान को स्वीकार नहीं करना चाहेंगी, उन्हें स्वतंत्र राज्य का दर्ज़ा दिया जाएगा, यानी भारत टुकड़े-टुकड़े में विभाजित हो जाता, क्योंकि ज्यादातर रियासतें स्वतंत्र रहना पसंद करतीं. लेकिन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को नकार दिया और अप्रैल 1942 में सर स्टेफर्ड क्रिप्स के प्रस्ताव पर कहा कि 'केवल पूर्ण रूप से स्वतंत्र भारत ही राष्ट्रीय स्तर पर अपनी सुरक्षा की पहल कर सकता है और युद्ध के कारण उपजी स्थितियों में सहायता कर सकता है. हम एक स्वतंत्र राष्ट्रीय सरकार बनाना चाहते हैं और एक लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना करना चाहते हैं.
भारत के लोगों को आत्म-निर्णय का अधिकार मिलना चाहिए. इस प्रस्ताव में रियासतों में रहने वाले 9 करोड़ भारतीयों को उनके शासकों के रहमोकरम पर छोड़ा जा रहा है. यह लोकतंत्र और आत्म-निर्णय का निषेध ही तो है'.
कैबिनेट मिशन ने अपनी योजना में भारत के विभाजन के विकल्प को नकार दिया था. मुस्लिम लीग ने मांग की थी कि पंजाब, बंगाल और असम को पाकिस्तान में शामिल किया जाए. लेकिन 16 मई 1946 को कैबिनेट मिशन योजना के वक्तव्य में कहा गया कि मुस्लिम लीग के दावे के आधार पर बनने वाले स्वतंत्र पाकिस्तान के निर्माण से अल्पसंख्यकों की समस्या का निवारण नहीं होगा. हमें पंजाब, बंगाल और असम के गैर-मुस्लिम बहुल जिलों को पाकिस्तान में शामिल करने का भी कोई आधार नज़र नहीं आ रहा है. विकल्प यह हो सकता है कि पंजाब के अंबाला और जालंधर संभाग को छोड़कर पाकिस्तान बनना चाहिए.
असम में केवल सिलहट जिला पाकिस्तान का भाग होगा. इसी तरह बंगाल का भी बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में नहीं जाएगा. ऐसे में बंगाल और पंजाब का भी विभाजन होगा और यह विभाजन लोगों की इच्छा के खिलाफ ही होगा, क्योंकि वहां समुदाय भले अलग-अलग हों, लेकिन भाषा और संस्कृति लगभग सबकी एक समान है. कैबिनेट मिशन ने भारत की केन्द्रीय संविधान सभा के लिए 389 सदस्यों की संविधान सभा का स्वरुप तैयार किया. इसमें से पंजाब प्रांत के लिए कुल 28 सदस्यों का प्रतिनिधित्व तय किया गया, इसमें जनसंख्या के आधार पर 16 मुस्लिम, 8 सामान्य और 4 सिख प्रतिनिधि होने की बात कही गई.
सिखों ने इस प्रस्ताव के प्रति असहमति जाहिर की. सर स्टेफर्ड क्रिप्स ने ब्रिटिश संसद में अपनी रिपोर्ट में कहा कि 'सिखों को लगता है कि उन्हें वाजिब प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, लेकिन भारत की स्थिति ही ऐसी है कि वहां मुसलामानों की जनसंख्या 9 करोड़ है, जबकि सिखों की केवल 55 लाख और वे भी अलग-अलग स्थानों पर रहते हैं. ऐसे में सिखों को भारत के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों से अपने लिए व्यवस्था बनाने की कोशिश करना होगी, इसके लिए उन्हें (सिखों को) आपस में एकमत होना होगा.'
संविधान सभा और सिखों का रुख
कैबिनेट मिशन ने संविधान सभा के लिए तीन समूह बनाए थे– मुस्लिम, सिख और सामान्य (जो मुस्लिम और सिख नहीं हैं, उन्हें सामान्य माना गया). कैबिनेट मिशन ने भारत को तीन मंडलों (मंडल अ, ब और स) में विभाजित किया था. मंडल 'अ' में गैर-मुस्लिम प्रांत और क्षेत्र शामिल थे – मद्रास, बम्बई, संयुक्त प्रांत, बिहार, मध्य प्रांत और ओडिशा. मंडल 'ब' में मुस्लिम बहुत पंजाब, उत्तर-पश्चिन सीमा प्रांत, सिंध थे और मंडल 'स' में बंगाल और असम थे. इन तीनों मंडलों को अपना मंडलीय विधान बनाने का अधिकार दिया गया था. पंजाब को मंडल 'स' में यानी मुस्लिम बहुल मंडल में शामिल किया गया था. इससे सिख नाराज़ थे.
कैबिनेट मिशन प्लान के जारी होने के नौ दिन बाद यानी 25 मई 1946 को सिख नेता मास्टर तारा सिंह ने ब्रिटिश सरकार के सचिव को लिखा कि 'कैबिनेट मिशन योजना से सिखों में निराशा, क्षोभ और रोष है. पंजाब को मंडल 'ब' में रखकर सिखों को मुसलमानों के रहम के हवाले कर दिया गया है. वहां मुस्लिमों के 23, हिन्दुओं के 9 और सिखों के 4 प्रतिनिधि हैं. क्या ऐसे में कोई भी यह अपेक्षा कर सकता है कि प्रांतीय सभा में सिखों के साथ न्याय की बात होगी? कैबिनेट मिशन ने माना कि हिन्दुओं के सन्दर्भ में मुसलमानों में व्यग्रता है, चिंता है, लेकिन उन्हें यह समझ नहीं आया कि मुस्लिम बहुसंख्यक शासन में यही चिंता सिखों की भी है! ऐसे में मैं सिखों की तरफ से यह जानना चाहता हूं कि क्या इस योजना में सिखों के संरक्षण के नज़रिये से संशोधन की उम्मीद है?
इसके बाद 10 जून 1946 को सिख पंथिक कमेटी ने प्रस्ताव पारित करके कहा कि 'कैबिनेट मिशन योजना देश की स्वतंत्रता का नहीं, बल्कि दासता का विस्तार करेगी. ब्रिटिश सरकार के सचिव लार्ड पैथिक लारेंस ने कहा भी है कि यह प्रस्ताव बिना खतरे उठाये पाकिस्तान के निर्माण के लिए वातावरण तैयार करता है. पंजाब सिखों की मातृभूमि है, लेकिन इस योजना से सिखों की स्थिति उन्हीं की मातृभूमि में कमज़ोर कर दी गई है… अतः पंथिक कमेटी इन प्रस्तावों की निंदा करती है और अस्वीकार करती है. सिखों को ऐसा कोई संविधान मंज़ूर न होगा, जो उनकी मांगों के साथ न्याय न करता हो और जिससे सिखों की सहमति न हो'.
कांग्रेस की महत्वपूर्ण पहल
इसके बाद, भारत के लिए ब्रिटिश सरकार के सचिव और वायसराय ने सिखों से आग्रह किया कि वे भारत की स्वतंत्रता और संविधान निर्माण की प्रक्रियाओं में शामिल हों. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहल हुई कांग्रेस की तरफ से. 10 अगस्त 1946 को कांग्रेस कार्यसमिति ने प्रस्ताव पारित किया कि 'कांग्रेस कार्यसमिति यह जानकार दुखी है कि सिखों ने संविधान सभा के चुनावों में भाग न लेने का निर्णय लिया है. कांग्रेस कार्यसमिति सिखों के साथ हुए अन्याय से वाकिफ है और यह बात कैबिनेट मिशन के संज्ञान में भी रखी गई थी. सिख संविधान सभा में भाग लेकर देश की स्वतंत्रता में बेहतर योगदान दे सकते हैं. अतः कांग्रेस कार्यसमिति सिखों से अपने निर्णय पर पुनः विचार का आग्रह करती है. कार्यसमिति वायदा करती है कि कांग्रेस उनकी हर शिकायत के निराकरण और पंजाब में उनके संरक्षण के लिए हर संभव सहयोग प्रदान करेगी'.
कांग्रेस के इस प्रस्ताव के बाद 11 अगस्त और 14 अगस्त 1946 को पंथिक प्रतिनिधि बोर्ड की बैठकें हुईं और 14 अगस्त को यह प्रस्ताव पारित किया गया कि 'भारत के ब्रिटिश सरकार के सचिव ने 18 जुलाई को यह अपील की है कि सिख बहिष्कार के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें; लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण कांग्रेस कार्यसमिति का प्रस्ताव है, जिसमें कांग्रेस ने कैबिनेट मिशन प्रस्ताव में सिखों के साथ हुए अन्याय को स्वीकार किया है. साथ ही सिखों की उचित शिकायतों के निराकरण और सिखों के हितों को संरक्षित करने में सहयोग देने का वायदा किया है.
हालांकि कैबिनेट मिशन योजना के तहत बनने वाली व्यवस्था को लेकर सिखों के संशय बरकरार हैं, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आश्वासनों का प्रस्ताव बोर्ड को प्रभावी लगता है. अतः बोर्ड सिखों की सहभागिता के माध्यम से संघ और प्रांतीय सभा में अपने संरक्षण और हितों की सुरक्षा के लिए संविधान सभा की प्रक्रिया को पूरा अवसर देना चाहता है'. इस तरह सिखों ने पंजाब की तरफ से संविधान सभा के लिए अपने प्रतिनिधियों के चुनाव की प्रक्रिया में शामिल होने का निर्णय लिया.
बात यहीं समाप्त नहीं हुई. 3 जून 1947 को भारत विभाजन की माउंटबेटन योजना की घोषणा की गई, क्योंकि मुस्लिम लीग लगातार इसकी पहल कर रही थी. माउंटबेटन योजना में एक बार फिर से बंगाल और पंजाब का सवाल उठा कि इनका विभाजन कैसे होगा? बंगाल और पंजाब की प्रांतीय सभाओं को मुस्लिम बहुत क्षेत्रों के प्रतिनिधि और गैर-मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के दो-दो भागों में बांटा गया ताकि ये समूह निर्णय ले सकें कि पंजाब और बंगाल का विभाजन होगा या नहीं! यदि विभाजन होगा तो किस रूप में होगा? यदि प्रांतीय सभा के दोनों भाग यह तय करते हैं कि विभाजन नहीं होगा, तो वही निर्णय माना जाएगा.
यही बात विभाजन के निर्णय पर भी लागू होगी. आखिर में यह तय हुआ कि पश्चिम बंगाल भारत में होगा और पूर्वी बंगाल पाकिस्तान में. इसी प्रकार पश्चिमी पंजाब पाकिस्तान में होगा और पूर्वी पंजाब भारत में. वास्तव में भारत-पाकिस्तान के विभाजन में एक नहीं, बल्कि कई विभाजन हुए थे.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

सचिन कुमार जैन निदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता
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