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इंसान हमेशा से विपत्तियों के साथ जीना सीख लेता है
कोरोना (Corona) की हिन्दुस्तान में सामाजिक मौत हो चुकी है. ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कोरोना को लेकर लोगों के दिल में डर खत्म हो चुका है. ये मैंने अपनी आंखों से देखा है. होली की तो बात छोड़ दीजिये, ये एक ऐसा त्योहार है की आप भावुक होकर आगोश में बह सकते हैं. लेकिन रोज़ाना ऐसे जीना जैसे कि कोरोना पर फ़तेह की जा चुकी है यह देखने के लिए आपको बहुत दूर जाने की ज़रुरत नहीं है. हाल फिलहाल में मैं उत्तराखंड गया था, वहां पहुंचने से पहले ही मुझे तगड़ा झटका लगा. एक भी ढाबे में सेनेटाइजर उपलब्ध नहीं था. किसी ने चेहरा नहीं ढक रखा था. 6 गज की दूरी तो छोड़िये सब एक दूसरे से नाक से नाक मिला कर बात कर रहे थे. ऐसा लग रहा था की मैं कोरोना को दिल्ली छोड़ कर आ गया हूं.
लोगों के पास काम था और इससे देख कर दिल में तसल्ली का भाव भी था, लेकिन दूसरी तरफ ऐसा लग रहा था की आस पड़ोस का हर आदमी पागल हो गया है. कोई बात मानने को तैयार नहीं है. पूरे रास्ते में कोई एक ऐसा बाजार नहीं मिला जहां लोग चेहरे पर मास्क लगा कर घूम रहे हों. क्या टोल ब्रिज और क्या परचून की दुकान. हर्ष और उल्लास का माहौल था. ऐसा लग रहा था कि कोरोना परास्त हो चुका है.
इंसान हमेशा से विपत्तियों के साथ जीना सीख लेता है
कहा जाता है कि जब बड़ी विपत्तियां आती हैं तो इंसान उसके साथ जीना सीख लेता है. चाहे वो मध्य कालीन समाज का प्लेग हो या 1918 की बड़ी वैश्विक महामारी. लोग मरते रहे और इंसान आगे बढ़ता रहा. युद्ध के दौरान भी ऐसा होता है. लेकिन हिन्दुस्तान में जो कोरोना को लेकर हो रहा है वो अद्भुत है. सरकार चाहती है कि लोग भर-भर कर मंदिर न जाएं और शादियों में भीड़ न लगाएं, लेकिन ट्रकों में पैक हो रैली मैदान में ज़रूर उपस्थित रहें. ऐसे में जनता के लिए यह बेहद गलत संदेश जाता है.
अब फिर लॉकडाउन नहीं लग सकता?
लोगों को लगने लगा है की ज़िंदगी ऐसे ही आगे बढ़ेगी. सरकार भी चुप है. पिछली बार विपक्ष ने लॉकडाउन को लेकर सरकार को घेर लिया था और आरोप जड़ दिया गया था कि लॉकडाउन के बहाने लोकतंत्र की हत्या की जा रही है और लोकतांत्रिक नेता लोकतंत्र की आड़ में तानाशाही कर रहे हैं. नतीजा ये हुआ की केंद्र सरकार भी अब लॉकडाउन की बात तक नहीं करती और इसकी सारी ज़िम्मेदारी राज्यों पर छोड़ दी है.
गांवों में कोरोनावायरस की दहशत कम हो गई है
यही कारण है कि गांव देहात में इस बीमारी की दहशत कम हो गयी है. 'थानों' गांव में मैंने 2 दिन बिताया, बड़ा मज़ा आया. वहां की होली भी देखी. ऐसा लगा ही नहीं की देश में कोई महामारी फैली हुई है. सुबह शाम टहलने गया तो देखा की कोई मास्क नहीं पहन रहा है. होली भी जम कर मनाई गयी. दुकानों में कहीं सेनेटाइजर उपलब्ध नहीं था और मंदिरों में पुरानी पाबंदियां गायब थीं. जैसे दिल्ली में अभी भी मंदिरों के घंटों को बांध कर रखा जा रहा है और पुजारी टीका नहीं लगा रहे हैं. ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला.
लोगों ने जैसे मान लिया है कि उनको कोरोना के साथ ही जीना है
यह देश के हर इलाके में देखने को मिल रहा है. लोगों के दिल और दिमाग में ये बात बैठ चुकी है कि ज़िंदगी ऐसे ही बीतने वाली है. लेकिन ये गलत ख्याल है. हम लोगों की ज़िंदगी एक बड़े अरसे के लिए बदल गयी है. लोगों को वैक्सीन लगने के बाद भी कोरोना हो रहा है. इससे ये साबित होता है की विज्ञान को और कितनी मशक्कत करने की ज़रुरत है. आज तक दुनिया एड्स की वैक्सीन नहीं बना पाई है. डर खत्म होने से बीमारी नहीं खत्म होती. दिक्कत तो अब ज़्यादा है.
हमें सावधानी बरतनी होगी
अब तरह-तरह के कोरोना वायरस मौजूद हैं. लोगों को लग रहा है कि ये बीमारी उनके छोटे से गांव में नहीं आएगी. अच्छी हवा खुली धूप से कोरोना का उपचार हो जायेगा. अगर ये भावना सरकार ने जमने दी तो उससे देश का बड़ा नुकसान हो जाएगा. बात सही है की अब लॉकडाउन नहीं लग सकता, क्योंकि अब अगर लॉकडाउन लगा तो गरीब लोगों की कमर पूरी तरह से टूट जाएगी. लेकिन अगर सावधानी नहीं बरती तो अस्पताल में भर्ती होने की जगह भी नहीं मिलेगी.
इसलिए ज़रुरी है की धंधे पानी का वक़्त खत्म होने के बाद कुछ पाबंदियां होनी चाहिएं. जो पालन न करे उस पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिये और आखिर में लोगों में इस बात की सजगता बढ़ानी चाहिए की कोरोना गया नहीं है बल्कि सुस्ता रहा है.
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