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कांग्रेस प्रशांत किशोर (पीके) की समस्या से आज़ाद हो गई है
Shravan Garg
कांग्रेस प्रशांत किशोर (पीके) की समस्या से आज़ाद हो गई है. पार्टी ने तय किया है कि अपना घर ठीक करने के लिए उसे किसी भी बाहरी विशेषज्ञ की ज़रूरत नहीं है. उसके पास अपने ही अनुभवी नेताओं की बड़ी फ़ौज है. प्रशांत एपिसोड के पटाक्षेप के बाद पार्टी के सेवेंटी-प्लस योद्धाओं में उत्साह की लहर है कि उनकी मेहनत आख़िरकार रंग ले लाई और वे चर्चित रणनीतिकार को ग्रांड ओल्ड पार्टी से बाहर रखने में कामयाब हो गए.
एक सौ सैंतीस साल की पार्टी और पैंतालीस के पीके
इस बात की पहले से ही आशंका थी कि एक सौ सैंतीस साल बूढ़ी पार्टी को पैंतालीस की उमर के प्रशांत किशोर की ज़रूरत हो ही नहीं सकती. मामला राहुल और प्रियंका के तैयार होने का नहीं बचा था जिन्हें कि सबसे ज़्यादा आपत्ति होनी चाहिए थी पर नहीं हुई. दिक़्क़त उन तमाम बुजुर्गों को थी, जिनके हाथ अब भी पार्टी और भविष्य में बन सकने वाली सरकारों का नेतृत्व करने के लिए कांप रहे हैं. इन नेताओं के तो बेटे-बेटियाँ भी अब प्रशांत किशोर की उमर के हो गए हैं. पिछले लोक सभा चुनाव में जब कांग्रेस का सफ़ाया हो गया और संसद में विपक्ष का नेता बनने के भी लाले पड़ गए, तब राहुल गांधी ने पार्टी की हार की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए आरोप लगाया था कि कुछ बड़े नेता बजाय पार्टी की जीत के लिए काम करने के, अपने बेटे-बेटियों को जिताने में ही लगे रहे ('दो मुख्यमंत्रियों और एक वरिष्ठ नेता ने अपने बेटों के हितों को पार्टी के हितों से ऊपर रखकर दबाव बनाया ,कांग्रेस से इस्तीफ़ा देने तक की धमकी दी थी।')
प्रशांत किशोर से किस-किस को परेशानी
हक़ीक़त यह है कि राहुल गांधी ने जिन नेताओं को लेकर उक्त टिप्पणी की थी, वे चुनावों में पार्टी की हार के बाद संगठन में और ज़्यादा मज़बूत हो गए और वे (राहुल) कुछ नहीं कर पाए. प्रशांत किशोर मामले में सोनिया गांधी भी इन्हीं नेताओं के साथ चर्चाएँ करतीं रहीं. समूचे घटनाक्रम में अच्छी बात यह रही कि प्रशांत किशोर सीरियल के अंतिम एपिसोड के वक्त अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए राहुल गांधी नई दिल्ली में उपस्थित नहीं थे. उन्हें बातचीत के नतीजों की जानकारी पहले से हो चुकी थी. कांग्रेस पार्टी को किसी भी क़ीमत पर बदलने नहीं दिया जाए, इस षड्यंत्र में निहित स्वार्थों की एक बहुत बड़ी लॉबी की रुचि और भागीदारी हो सकती है. यह लॉबी किसी भी ऐसी होनी को अनहोनी में बदलने के लिए बड़ी से बड़ी सुपारी बाँटने के लिए भी तैयार बैठी हो सकती है. कांग्रेस के मज़बूत होने का मतलब राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता परिवर्तन की शुरुआत भी माना जा सकता है. इस लॉबी में बड़े औद्योगिक घरानों और कांग्रेस-विरोधी दलों के साथ-साथ पार्टी के अंदरूनी तत्वों को भी शामिल किया जा सकता है. दांव पर आख़िर दो सौ के क़रीब लोकसभा की वे सीटें हैं, जिनकी कि कांग्रेस के खाते में प्रशांत किशोर ने पहले से गिनती कर रखी है. इन सीटों पर मुक़ाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही रहता है. प्रशांत किशोर के जुड़ जाने से उन ग्यारह राज्यों के विधानसभा परिणामों पर भी फ़र्क़ पड़ सकता था, जहां लोकसभा के पहले चुनाव होने हैं.
इंकार किसका, कांग्रेस या प्रशांत का ?
अब जबकि तात्कालिक तौर पर साफ़ हो गया है कि प्रशांत किशोर नहीं जुड़ रहे हैं, बातचीत की असफलता के सम्बंध में सफ़ाई पेश करने के साथ-साथ चर्चाएँ कांग्रेस के भविष्य को लेकर भी प्रारम्भ हो गईं हैं. जैसी कि सम्भावना ज़ाहिर की जा रही थी, प्रशांत किशोर चाहे औपचारिक तौर पर कांग्रेस से नहीं जुड़ने वाले हों, पार्टी ने उनके दिए गए सुझावों पर काम प्रारम्भ कर दिया है. पी चिदम्बरम ने स्वीकार किया है कि प्रशांत किशोर द्वारा सुझाए गए कुछ प्रस्तावों पर पार्टी कार्रवाई करना चाहती है. उनके द्वारा प्रस्तुत विश्लेषण और आँकड़े काफ़ी प्रभावशाली हैं. कांग्रेस आलाकमान और प्रशांत किशोर के बीच बातचीत के असफल होने के असली कारणों का पता वार्ताकारों और भाजपा के शिखर क्षेत्रों के अलावा किसी को नहीं चल पाएगा. इनकार प्रशांत किशोर ने किया कि कांग्रेस ने इस पर किसी अगले दौर की बातचीत की खबरों तक पर्दा पड़ा रहेगा. बातचीत की असफलता को लेकर क़यास यह भी लगाया जा सकता है कि सास इंदिरा गांधी की तरह से सोनिया गांधी का असंतुष्ट नेताओं पर नियंत्रण नहीं है या फिर पार्टी में आंतरिक प्रजातंत्र ज़रूरत से ज़्यादा मौजूद है. इसीलिए कांग्रेस के आम कार्यकर्ताओं को अभी सूझ नहीं पड़ रही है कि वे प्रशांत किशोर के नहीं जुड़ने की खबर पर दुःख मनाएँ या एक दूसरे को बधाई देते हुए मिठाई बाँटें !
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