सम्पादकीय

पीएम मोदी ने क्यों कहा: परिवारवाद को नकारने लगे हैं भारत के लोग

Gulabi Jagat
7 April 2022 5:39 PM GMT
पीएम मोदी ने क्यों कहा: परिवारवाद को नकारने लगे हैं भारत के लोग
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देशों में राष्ट्राध्यक्ष या राष्ट्र प्रमुख एक परिवार से पीढ़ी दर पीढ़ी बनते हैं
भारतीय जनता पार्टी के 42वें स्थापना दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परिवारवाद और वोट बैंक की राजनीति की जम कर आलोचना की तो यह मसला फिर से विमर्श में आ गया है. बड़ा सवाल यह है कि दुनिया भर में किसी भी लोकतांत्रिक पद्धति से चलने वाले किसी देश में परिवारवाद या वंशवाद की कोई गुंजाइश हो भी सकती है क्या? सीधा सा उत्तर है कि लोकतांत्रिक ढांचे के अनुसार लोकतंत्र में भी परिवारवाद की वैधानिक गुंजाइश हो सकती है. यही कारण है कि ब्रिटेन जैसी व्यवस्था वाले देशों में चुनाव होने के बावजूद उन्हें 'गणराज्य' अर्थात 'रिपब्लिक' नहीं कहा जाता.
जिन देशों में राष्ट्राध्यक्ष या राष्ट्र प्रमुख एक परिवार से पीढ़ी दर पीढ़ी बनते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री और कैबिनेट यानी सरकार के चयन के लिए संसदीय चुनाव होते हों, वहां हम कह सकते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के बावजूद परिवारवाद या वंशवाद भी जायज़ है. उदाहरण के लिए ब्रिटेन में राज परिवार की महारानी शासन की अध्यक्ष होती हैं, लेकिन वहां हाउस ऑफ़ कॉमंस यानी संसद के लोअर हाउस यानी निचले सदन के लिए सांसदों का चुनाव होता है, जिसमें ब्रिटेन के नागरिक वोट देते हैं. ब्रिटेन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स को भी सीमित वंशवादी नुमाइंदगी के उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है. ऐसी व्यवस्था वाले और देश भी हैं.
लेकिन भारतीय लोकतंत्र में राष्ट्राध्यक्ष या राष्ट्र प्रमुख अर्थात राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव की व्यवस्था है. हालांकि यह चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की तरह नहीं होता. अमेरिका की तरह भारत का राष्ट्रपति किसी परिवार या वंश का प्रतिनिधि नहीं होता. ऐसे में भारतीय लोकतंत्र में वंशवाद या परिवारवाद की क्या कोई जगह हो सकती है? सीधा सा उत्तर है कि नहीं हो सकती. लेकिन भारत में आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी वंशवादी राजनीति की बेलें पनपी हुई हैं.
भारतीय जनता पार्टी के 42वें स्थापना दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में पार्टी मुख्यालय पर हुए कार्यक्रम में परिवारवाद की खुली और तीखी आलोचना की. उन्होंने आरोप लगाया कि परिवारवादी राजनैतिक पार्टियों ने भारत के युवाओं को कभी आगे नहीं बढ़ने दिया, उनके साथ हमेशा विश्वासघात किया. उन्होंने कहा कि बीजेपी ही इकलौती पार्टी है, जो इस चुनौती से देश को सतर्क कर रही है. यह संघर्ष तब तक चलेगा, जब तक लोकतंत्र विरोधी शक्तियों को हम हरा नहीं देते.
भारत के संदर्भ में जब हम परिवारवादी पार्टी का उल्लेख करते हैं, तो ज़्यादा ध्यान कांग्रेस पर ही जाता है, नेहरू-गांधी परिवार की तरफ़ ही जाता है. हालांकि हक़ीक़त इससे अलग है. उत्तर प्रदेश केंद्र की सत्ता तक जाने का प्रवेश द्वार की भूमिका अदा करता है, इसलिए सियासत में दिलचस्पी रखने वाले यूपी की सियासत पर ज़्यादा ग़ौर करते हैं. यूपी में समाजवादी पार्टी मुख्य विपक्षी पार्टी है. समाजवादी पार्टी भी परिवारवादी ही कही जाएगी क्योंकि मुलायम सिंह यादव के बाद उनके सुपुत्र अखिलेश यादव उसके सर्वेसर्वा हैं. परिवार के दूसरे सदस्य भी पार्टी में अहम भूमिका निभा रहे हैं. बहरहाल, भारत में परिवारवाद का वर्चस्व क़रीब-क़रीब सभी राज्यों में है.
द प्रिंट की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत के 20 राज्यों के 34 प्रमुख राजनैतिक पार्टियां वंशवाद के आधार पर ही चल रही हैं. ये ऐसी पार्टियां हैं, जिनमें एक परिवार के कम से कम तीन सदस्य सक्रिय राजनीति में रहे हैं या हैं. जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ़्ती परिवार हों या दक्षिण में डीएमके पार्टी हो या फिर उत्तर भारत में एसपी, एलजेपी, आरएलडी, शिरोमणि अकाली दल और कैप्टन अमरिंदर सिंह का परिवार हो या चौटाला परिवार या फिर हुड्डा, जिंदल या भजनलाल परिवार, सभी वंशवादी राजनीति के उदाहरण हैं. इसी तरह हिमाचल में वीरभद्र सिंह, दिल्ली में शीला दीक्षित, छत्तीसगढ़ में जोगी और झारखंड में सोरेन परिवार भी इसके उदाहरण हैं.
आंध्र में रेड्डी और ओडिशा में पटनायक परिवार भी वंशवाद की बेल को आगे बढ़ा रहे हैं. महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और एमपी के सिंधिया परिवार को भी इसके उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है. कांग्रेस का मुख्य गांधी परिवार वंशवादी राजनीति का ही नमूना है, तो उसमें अंतर्निहित कई और परिवारों का भी राजनैतिक आधार वंशवाद ही है.
भारतीय जनता पार्टी की बात करें, तो उसके कई कद्दावर नेताओं की अगली पीढ़ी सक्रिय सियासत में रही है और आज भी है. लेकिन प्रश्न यह है कि बीजेपी के संदर्भ में इस तथ्य को क्या परिवारवाद के चश्मे से देखा जा सकता है? अगर किसी परिवार की अगली पीढ़ी में सियासतदां बनने के गुण स्वाभाविक रूप से हों, तब इसे विशुद्ध वंशवाद नहीं कहा जाना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष पद एक ही परिवार के क़ब्ज़े में कभी नहीं रहा.
राजनीति में परिवारवाद का नुकसान 'लोकतंत्र' के 'लोक' को भुगतना ही पड़ता है, इसमें कोई संदेह नहीं हैं. 'लोकतंत्र' में जब 'तंत्र' की ताक़त 'लोक' पर हावी हो जाए, तो जन कल्याण की मूल भावना का ह्रास हो जाता है. जिन पार्टियों में अंदरूनी लोकतंत्र नहीं होता, उनके नेता सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक लोकतंत्र या गणतंत्र की भावना को महसूस ही नहीं कर सकते. उनकी सारी सोच परिवार के हितों के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है.
समाजवादी पार्टी का उदाहरण सामने है. मुलायम सिंह यादव की उम्र होने के बाद पार्टी पर पकड़ की लड़ाई हमने देखी है. कुल मिला कर इस तरह की पार्टियों का अंतिम लक्ष्य जन-कल्याण नहीं रह जाता, जबकि लोकतंत्र का मूल उद्देश्य ही जन-कल्याण है. वंशवादी राजनीति 'लोक' को नहीं, 'तंत्र' को तरज़ीह देती है, ताकि उसका दबदबा बना रहे. समूची कार्यपालिका परिवार विशेष के हित साधने में लग जाती है. नौकरशाह चापलूसी पर उतर आते हैं और जनता की सेवा की बजाए परिवार विशेष और अपने परिवार की सेवा में जुटे रहते हैं.
नौकरशाही की यह प्रवृत्ति पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी देखने को मिल रही है, जहां वंशवाद से प्रेरित मनोवृत्ति ही सत्ता के शिखर पर विराजमान है. यूपी में चुनाव हारने के बाद बीएसपी अध्यक्ष मायावती ने अपने प्रवक्ताओं को टीवी डिबेटों में शामिल होने पर रोक लगा दी. वर्ष 2019 में लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टियों ने अपने प्रवक्ताओं को टीवी डिबेट में शामिल नहीं होने के फ़रमान सुनाया था. हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में अपेक्षित नतीजे नहीं आने पर सूत्रों के मुताबिक़ अखिलेश यादव ने भी अपने प्रवक्ताओं से कहा है कि टीवी डिबेट में न जाएं. पार्टियां अपने संगठन से जुड़े फ़ैसले कर सकती हैं. लेकिन अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने के फ़ैसले के माइने बड़े हैं. इसे निरंकुशता कह सकते हैं. ऐसा वातावरण परिवारवादी पार्टियां ही बना सकती हैं. लोकतंत्र के विराट स्वरूप का अनुसरण और अनुकरण करने वाली कोई राजनैतिक पार्टी इस तरह के तुग़लकी फ़ैसले कभी नहीं करेगी.
जो भी हो, वैदिक काल में भारत लोकतांत्रिक पद्धति से व्यवस्थित देश था, गणराज्य था. पांचजन्य में प्रकाशित भगवती प्रकाश शर्मा के लेख के अनुसार वेदों में राष्ट्र, लोकतंत्र, राष्ट्राध्यक्ष या राजा के निर्वाचन और निर्वाचित संस्थाओं के प्रति उसकी उत्तरदेयताओं के कई संदर्भ मिलते हैं. वेद, वेदांग, रामायण, महाभारत, पुराणों, नीति शास्त्रों, सूत्र ग्रंथों, कौटिल्य और कामंदक आदि ग्रंथों में गणराज्य, सार्वभौम शासन विधान अर्थात ग्लोबल गवर्नेंस और निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने जैसी अवधारणाओं का उल्लेख है.
राजशास्त्र के सभी प्राचीन प्रणेताओं ने राजधर्म को सभी धर्मों का तत्व या सार तत्व, राष्ट्र को राजधर्म का आधार और गणतंत्र को राजधर्म का साधन बताया है. ऋग्वेद में 40, अथर्ववेद में नौ बार और ब्राह्मण ग्रंथों में कई बार गणतंत्र और राष्ट्र के कई संदर्भ हैं. लेकिन बाद में ख़ास तौर पर गुलामी के काल में देश में विशुद्ध निरंकुश राजशाही व्यवस्था क़ायम हो गई. वर्ष 1947 में भारत आज़ाद तो हो गया, लेकिन कुछ शक्तिशाली परिवारों ने राजनीति पर निजी पकड़ बना ली. आज़ादी के बाद कुशासन के विरोध में देश में हुए कई बड़े राजनैतिक, सामाजिक आंदोलनों से उपजे कुछ ताक़तवर नेताओं ने ख़ुद को और अपने परिवार को शक्ति का केंद्र बना लिया.
लेकिन हर प्रवृत्ति की एक मंज़िल होती है. परिवारवादी सियासत का भी अंतिम छोर कोई तो होता ही होगा. परिवारवादी सोच का पराभव होना तय है, क्योंकि देश कोई पब्लिक या प्राइवेट कंपनी नहीं है, जिसमें किसी व्यापारी ख़ानदान का ही बोलबाला रहता हो. भारत देश जीवंत और जागृत भूमि है, जिसका सिद्धांत अपने और अपने कुटुंब का विकास नहीं है. भारत का सूत्र है- वसुधैव कुटुंबकम्. यही बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी के स्थापना दिवस पर रखने का सफल प्रयास किया है.



(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
रवि पाराशर वरिष्ठ पत्रकार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं. नवभारत टाइम्स, ज़ी न्यूज़, आजतक और सहारा टीवी नेटवर्क में विभिन्न पदों पर 30 साल से ज़्यादा का अनुभव रखते हैं. कई विश्वविद्यालयों में विज़िटिंग फ़ैकल्टी रहे हैं. विभिन्न विषयों पर राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में शामिल हो चुके हैं. ग़ज़लों का संकलन 'एक पत्ता हम भी लेंगे' प्रकाशित हो चुका है।
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