सम्पादकीय

जातिगत गणना से क्यों परहेज

Gulabi
26 Sep 2021 5:06 AM GMT
जातिगत गणना से क्यों परहेज
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केंद्र सरकार जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं है

विनोद बंधु, स्थानीय संपादक, पटना.

केंद्र सरकार जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं है। केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण मंत्रालय की ओर से सु्प्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे से यह साफ हो गया है। हलफनामे में यह कहा गया है कि पिछड़े वर्ग की जाति आधारित जनगणना प्रशासनिक रूप से कठिन और दुष्कर कार्य है। जातिगत जनगणना की मांग समाजवादी दलों की ओर से अरसे से होती रही है। खासकर बिहार के राजनीतिक दल इस मुद्दे पर ज्यादा मुखर रहे हैं। बिहार के सभी दल इस मुद्दे पर एक मत रहे हैं। भाजपा भले ही सैद्धांतिक तौर पर इसका विरोध करती है, मगर यहां वह भी इस मुहिम के साथ खड़ी रही है। इसी कारण बिहार विधानमंडल के दोनों सदनों ने 2019 में और विधानसभा ने 2020 में जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया। इस साल भी जातिगत जनगणना कराने का सबसे ज्यादा दबाव बिहार ने ही बनाया है। नीतीश कुमार 1989 से ही यह मांग करते रहे हैं। हालांकि, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा नेता अखिलेश यादव, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन समेत कई अन्य राज्यों के समाजवादी नेताओं ने भी इस जनगणना पर जोर दिया है।

बिहार के मुख्यमंत्री ने इस मसले पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मिलने का समय मांगा था और 23 अगस्त को दस दलों के प्रतिनिधियों के साथ उनसे मिलकर ज्ञापन सौंपा था। इसमें भाजपा के जनक राम भी शामिल थे। प्रधानमंत्री से मिलने के बाद सबने प्रसन्नता व्यक्त की थी कि प्रधानमंत्री ने उनकी बातें गौर से सुनीं। लेकिन अब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करके अपना पक्ष साफ कर दिया है। केंद्र सरकार ने यह भी कहा है कि जब भी इस तरह के प्रयास हुए हैं, वह चाहे आजादी के पहले हुए हों या बाद में, उनमें सही तस्वीर सामने नहीं आ पाती है। 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना में भारी त्रुटियां थीं। यह प्रशासनिक रूप से काफी कठिन कार्य है। केंद्र सरकार का पक्ष सामने आने के बाद देश-प्रदेश की सियासी गोलबंदी या गठबंधन की राजनीति पर इसका किस तरह असर पड़ेगा, इस बारे में कोई भी टिप्पणी जल्दबाजी होगी। दरअसल, भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस सैद्धांतिक तौर पर जातीय जनगणना के खिलाफ ही है। साल 2011 में हुई सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी न करने का फैसला कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने ही लिया था। भाजपा के ज्यादातर नेता इसे देशहित में नहीं मानते। उनका तर्क रहा है कि इससे समाज बंटेगा। वैसे भाजपा में एक धड़ा ऐसा भी है, जो इसका समर्थक रहा है। उससे भी बड़ा सच है कि बिहार में जब भी जातिगत जनगणना की मांग उठी, तो भाजपा और कांग्रेस आधिकारिक तौर अपने-अपने गठबंधन के दलों के साथ खड़ी नजर आई हैं।
जातिगत जनगणना के पक्ष में खड़े लोगों का तर्क है कि भारत में असमानता की खाई काफी गहरी है। यहां की असमानता जातिगत कारणों से भी है। छोटी-छोटी जातियों की अपनी आबादी को लेकर बड़े-बड़े दावे भी रहे हैं। इसलिए वास्तविकता जातिगत जनगणना से ही सामने आ सकती है। इससे यह भी साफ हो जाएगा कि कहां, किस जाति और इलाके में पिछड़ापन ज्यादा है। पिछड़ापन की प्रकृति क्या है?
समाजशास्त्री पी घोष का कहना है कि जातिगत जनगणना के नुकसान कम और फायदे ज्यादा हैं। घोष कहते हैं, यह सही है कि हिन्दुस्तान की सोच और सरोकार के केंद्र में जातियां हैं। जातिगत जनगणना से इसे और मजबूती मिलेगी। लेकिन इससे बड़ा फायदा यह होगा कि हम देश में असमानता पाटने का एक कारगर एजेंडा तैयार कर सकेंगे। विकास में संतुलन लाने में यह बेहद कारगर होगा। असमानता कम होगी, तो जाति आधारित सोच भी बदलेगी। बिहार के समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी का कहना है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में जनवरी 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया था। उस आयोग ने मार्च 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, तो उसमें भी 1961 में जाति आधारित जनगणना कराने की सिफारिश की गई थी। हालांकि, किसी दबाव में कालेलकर खुद पीछे हट गए और इस रिपोर्ट पर अमल न करने का अनुरोध कर दिया। वह कहते हैं कि जातिगत जनगणना से यह तो पता चलेगा ही कि विकास यात्रा में कौन-कहां तक पहुंचा? किस तबके में आज भी ज्यादा पिछड़ापन है? उसकी प्रकृति क्या है? साथ ही छोटी-छोटी जातियां बड़ी आबादी के जो दावे करती हैं, उसकी वास्तविकता क्या है, यह भी सामने आएगी। इस सवाल पर कि जातिगत जनगणना की सबसे मजबूती से मांग बिहार के दलों ने की। यहीं से दस दलों के प्रतिनिधि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में पीएम से मिले। शिवानंद तिवारी ने कहा कि मांग तो हर राज्य से उठी है, लेकिन यह भी सच है कि बिहार में सामाजिक आंदोलनों की जमीन सबसे मजबूत रही है।
जातिगत जनगणना की मांग मुखर करने वाले दल नहीं मानते कि इससे अगड़ों का कोई नुकसान होगा। जद-यू ने तो बाकायदे इस पर अपनी सफाई भी दी थी। जद-यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने पार्टी की बैठक में कहा कि यह धारणा गलत है कि इससे सवर्णों को नुकसान होगा या उनकी हकमारी होगी। बहरहाल, केंद्र के सुप्रीम कोर्ट में हलफनामे से भाजपा को छोड़ प्रतिनिधिमंडल में शामिल तमाम दलों को निराशा हुई है। जद-यू, राजद और कांग्रेस ने तीखी प्रतिक्रिया भी दी है। जब पीएम के पास प्रतिनिधिमंडल जाने का फैसला हुआ था, उस समय यह भी कहा गया था कि अगर केंद्र सरकार जातिगत जनगणना कराने के लिए सहमत नहीं होगी, तो राज्य सरकार अपने स्तर से कराने पर विचार कर सकती है। संभव है, बिहार में सरकार इस दिशा में पहल करे और जातिगत गणना का प्रयोग बिहार में सफलतापूर्वक हो। जातिगत जनगणना की मांग उठाने और खारिज करने के नफा-नुकसान को लेकर भी शास्त्रार्थ होते रहे हैं। एक तबका मानता है कि अति-पिछड़ी जातियों की आाबादी सबसे ज्यादा है और वे जातिगत जनगणना के पक्ष में रही हैं। उनकी नाराजगी भारी पड़ सकती है। दूसरी तरफ, सोशल मीडिया पर यह संदेश भी पिछले दिनों वायरल किया जाता रहा कि जिसने भी जातिगत जनगणना कराने की कोशिश की सत्ता उसके हाथ से फिसल गई। इन तमाम विरोधाभासों के बीच हमें केंद्र सरकार के ताजा स्टैंड के बारे में सामाजिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया का इंतजार करना होगा।
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