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कहा जाता है कि किसी भी सशस्त्र संघर्ष की सबसे अधिक मार महिलाओं को झेलनी पड़ती है. लेकिन
कहा जाता है कि किसी भी सशस्त्र संघर्ष की सबसे अधिक मार महिलाओं को झेलनी पड़ती है. लेकिन, अफसोस कि इस सदी में भी यह बात अक्षरत: सच सिद्ध हो रही है. भारत से करीब साढ़े चार हजार किलोमीटर दूर इथियोपिया में गृह-युद्ध की स्थिति बनी हुई है. सवाल है कि इससे हमारा क्या सरोकार? जवाब है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में यदि महिलाओं के खिलाफ मानवीय इतिहास की क्रूरतम घटनाओं को दोहराया जा रहा हो, तो हमें क्यों आंखें मूंद लेनी चाहिए!
इथियोपिया, अफ्रीका महाद्वीप का यह देश पिछले दो वर्षों से अधिक समय से सुखिर्यों में है, जहां नवंबर, 2020 से शुरू हुए सशस्त्र संघर्ष जारी है, जहां टिग्रे अलगाववादियों और उनके खिलाफ इथियोपियाई सैन्य अभियान ने गंभीर संकट पैदा कर दिया है. यही वजह है कि पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी कि टिग्रे 'पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट' के संघर्ष ने देश के उत्तरी हिस्से में नागरिकों के जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है. लेकिन, इसमें जो सबसे भयावह आयाम उभर कर आ रहा है उसे देश-दुनिया के हर नागरिक समाज को समझने की आवश्यकता है. दरअसल, इथियोपिया के सशस्त्र संघर्ष ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया कि हर सशस्त्र संघर्ष में महिलाएं सबसे आसान शिकार होती हैं.
'हयूमन राइटस वॉच' सहित दुनिया भर के तमाम मानवाधिकार संगठनों ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस सशस्त्र संघर्ष ने नरसंहार, महिलाओं के खिलाफ बलात्कार और अन्य यौन हिंसा को सतह पर ला दिया है.
इसी कड़ी में अंतरराष्ट्रीय संगठन 'हयूमन राइटस वॉच' ने जून, 2021 से मुख्य तौर पर अनेक यौन पीड़ित महिलाओं के साक्षात्कार लिए, साथ ही एक रिपोर्ट बनाई जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यकर्ता, सेवा प्रदाता, मानवीय सहायता कार्यकर्ता, सामुदायिक संगठनों के सदस्य और सरकारी दाता एजेंसियों को शामिल किया गया है, जिसके तहत यौन हिंसा के 43 प्रकरणों की विस्तृत समीक्षा की गई.
संघर्ष हुआ यौन हिंसा पर आधारित
'टिग्रे पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट' और इथियोपियाई सरकार के सैन्य बलों के बीच जारी सशस्त्र संघर्ष में विभिन्न युद्धरत जवानों द्वारा महिलाओं के साथ बलात्कार और सामूहिक बलात्कार सहित पूरे क्षेत्र में व्यापक यौन हिंसा की खबरें आ रही हैं. यह संघर्ष अब उस मोड़ पर पहुंच गया है, जहां यौन हिंसा अपमानजनक जाति आधारित गालियों के साथ युद्ध के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल होता है. आरोप है कि इथियोपियाई सैन्य बल अपने ही देश की टिग्रेयन महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ अनाचार कर रहे हैं. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने भी संघर्ष से संबंधित बलात्कारों की पुष्टि करते हुए इस पर निंदा जताई है.
'वहीं, कई मानव अधिकार कार्यकर्ता यह आरोप लगाते हैं कि पिछले साल जनवरी से जून के बीच इथियोपियाई सैन्य बलों ने मोबाइल क्लीनिक और सामुदायिक आउटरीच कार्यक्रमों के काम को प्रभावित किया. वहीं, 'इथियोपियाई मानवाधिकार आयोग' और 'संयुक्त राष्ट्र' की संयुक्त जांच रिपोर्ट में भी सशस्त्र संघर्ष के दौरान मानवाधिकारों के हनन के मामले उजागर हुए हैं. इसमें स्पष्ट तौर पर यह उल्लेख किया गया कि संघर्ष क्षेत्र में यौन और लिंग आधारित हिंसा बढ़ रही है. इस बीच इथियोपिया सरकार के महिला, बाल और युवा मंत्रालय के आंकड़े भी चौंकाते हैं. आंकड़ों के मुताबिक, नवंबर 2020 से मई 2021 के बीच मेकेले शहर और आसपास के क्षेत्रों से यौन हिंसा से बचे 1,324 मरीज वहां के अस्पतालों में उपचार के लिए पहुंचे.
दूसरी तरफ, यह आशंका जाहिर की जा रही है कि सामाजिक कलंक, असुरक्षा और लचर स्वास्थ्य व्यवस्था के कारण यौन हिंसा पीड़ितों का वास्तविक आंकड़ा दर्ज नहीं हो सका है, जो सरकारी आंकड़े से कई गुना अधिक हो सकता है.
यौन रोगों में बढ़ोतरी
'ह्यूमन राइट्स वॉच' के शोध से पता चला है कि यौन हिंसा पीड़ित महिलाओं को गर्भावस्था संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा. इसके अलावा, एचआईवी और हेपेटाइटिस बी जैसे यौन संक्रमणों में बढ़ोतरी देखी गई. वहीं, कई महिलाओं को शारीरिक आघात पहुंचा, जिसमें उनकी हड्डियां टूटी पाई गईं, परीक्षण के दौरान सामने आया कि उनके शरीर पर कहीं चोट के निशान थे, तो कहीं छुरे के घाव थे. रिपोर्ट बताती है कि इथियोपिया यौन हिंसा की शिकार कई किशोरियां हेपेटाइटिस पॉजिटिव पाई गईं, बाद में सहमति के बाद उनके गर्भ गिराने पड़े.
अप्रैल 2021 में 'संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष' (UNFPA) ने बताया कि टिग्रे के अस्पतालों में महज 1 प्रतिशत यौन हिंसा पीड़ित महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने की क्षमता थी. इससे स्पष्ट होता है कि सशस्त्र संघर्ष स्थलों पर यदि बलात्कार पीड़ित महिलाओं के लिए चिकित्सा तंत्र कमजोर हो, तो उनके लिए स्थिति और अधिक भयावह हो जाती है.
वहीं, कई मानव अधिकार कार्यकर्ता आरोप लगाते हैं कि पिछले साल जनवरी से जून के बीच इथियोपियाई सैन्य बलों ने मोबाइल क्लीनिक और सामुदायिक कार्यक्रमों के काम को प्रभावित किया. दूसरी तरफ, ऐसी जगहों पर यह भी देखा गया कि यौन हिंसा पीड़ित महिलाओं को अवसाद और मानसिक रोग से उभारने के लिए कोई व्यवस्था ही नहीं थी. हालांकि, मानसिक रोग से जूझ रहीं ऐसी महिलाओं के बारे में विस्तृत अध्ययन की भी मांग की जा रही है.
इसलिए दब गई पीड़िताओं की आवाज
इस दौरान एक महत्त्वपूर्ण बात तो यही है कि इथियोपियाई सरकार ने यौन हिंसा की खबरों को स्वीकार किया है, लेकिन उस पर आरोप है कि वह निष्पक्ष जांच मामले में महज खानापूर्ति करती हुई दिख रही है. हालांकि, जनवरी में वहां की सरकार ने यौन हिंसा के आरोपों की जांच के लिए एक संयुक्त सरकारी कार्य-बल टीम बनाई है.
देखा गया है कि 'टिग्रे पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट' ने पिछले 28 जून को टिग्रे क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित किया है, इसलिए सरकार ने संबंधित सड़कों को काटते हुए पहुंच को सीमित कर दिया है, जिससे बिजली और दूरसंचार जैसी सभी बुनियादी सेवाओं से भी टिग्रे क्षेत्र कट गया है और यही वजह है कि इन दिनों वहां यौन हिंसा पीड़ित महिलाओं की आवाज बाहर नहीं आ पा रही है.
इसी तरह, टिग्रे क्षेत्र में मानवीय सहायता के वितरण पर इथियोपियाई अधिकारियों सुरक्षा कारणों से प्रतिबंध लगा दिया है, जिससे भोजन और चिकित्सा आपूर्ति बाधित हुई है. मानवाधिकार संगठन इसे अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का उल्लंघन बता रहे हैं. दरअसल, उन्हें डर है कि इससे सशस्त्र संघर्ष स्थल पर भुखमरी की स्थिति बन जाएगी और ऐसी स्थिति में भी सबसे अधिक प्रताड़ना महिलाओं को ही झेलनी पड़ेगी.
हालांकि, पिछले साल की 3 सितंबर को 'अफ्रीकी संघ' ने इथियोपिया की सरकार से सशस्त्र संघर्ष क्षेत्र में मानवीय पहुंच सुनिश्चित करने के लिए प्रयास तेज करने का आग्रह किया है. इसी तरह, 7 अक्टूबर को यूरोपीय संसद ने भी वहां मानवीय सहायता और भोजन, दवा सहित महत्वपूर्ण आपूर्ति पर वास्तविक नाकाबंदी को समाप्त करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया है.
अंत में यदि पिछले तीन दशकों के अनुभवों पर गौर करें, तो मध्य अफ्रीकी गणराज्य, इराक, म्यांमार और दक्षिण सूडान सहित दुनिया भर के संघर्षों से जुड़े शोध बताते हैं कि महिलाओं पर यौन हिंसा के गहरे और दीर्घकालिक प्रभाव पड़ते हैं, जिससे उनका मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य तो प्रभावित होता ही है, वे काम, अध्ययन करने तथा सार्वजनिक जीवन में भाग लेने से लेकर अपने परिवारों की देखभाल करने की क्षमताओं को खो देती हैं.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शिरीष खरे लेखक व पत्रकार
2002 में जनसंचार में स्नातक की डिग्री लेने के बाद पिछले अठारह वर्षों से ग्रामीण पत्रकारिता में सक्रिय. भारतीय प्रेस परिषद सहित पत्रकारिता से सबंधित अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. देश के सात राज्यों से एक हजार से ज्यादा स्टोरीज और सफरनामे. खोजी पत्रकारिता पर 'तहकीकात' और प्राथमिक शिक्षा पर 'उम्मीद की पाठशाला' पुस्तकें प्रकाशित.
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