सम्पादकीय

राजनीतिक दल अपने काम से ज्यादा जातिगत समीकरणों पर भरोसा करने को क्यों हैं मजबूर?

Rani Sahu
1 Oct 2021 3:18 PM GMT
राजनीतिक दल अपने काम से ज्यादा जातिगत समीकरणों पर भरोसा करने को क्यों हैं मजबूर?
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दिल्ली की गद्दी पर विराजमान होना है तो यूपी-बिहार (UP-Bihar) जैसे राज्यों से होकर गुजरना ही पड़ता है

विवेक त्रिपाठी दिल्ली की गद्दी पर विराजमान होना है तो यूपी-बिहार (UP-Bihar) जैसे राज्यों से होकर गुजरना ही पड़ता है. खैर बिहार का चुनाव तो पिछले साल 2020 में ही बीत चुका है लेकिन जो सामने है तो वो है उत्तर प्रदेश का चुनाव (Uttar Pradesh Election). कहते हैं कि दिल्ली की राजनीति में उत्तर प्रदेश का बड़ा योगदान माना जाता है. लिहाजा 2022 में अब तो कुछ ही महीने रह गए हैं लेकिन सियासत पूरी तरह से गर्मा गई है. राजनीतिक दल विकास का मंत्र छोड़ जातिवादी भजन गाने लगे हैं.

योगी सरकार (Yogi Government) में मंत्री मडल का विस्तार और मंडल लेवल पर काम कर रही टीम से तो यही साबित हो रहा है कि जातियों के आधार पर बीजेपी (BJP) उत्तर प्रदेश में चुनावी गोटी फीट करने में जुटी है. दोबारा लखनऊ का सिंहासन पाने के लिए बीजेपी ओबीसी पर अपनी निगाहें गड़ाए बैठी है. पूर्वांचल में उपजातियों की तरफ बीजेपी का रुख इसे बताने के लिए काफी है. योगी कैबिनेट का फॉर्मूल भी यही कहता है कि पिछड़े ही इसबार भी बेड़ा पार कराएंगे.
सवर्णों को लुभाने में जुटे मायावती-अखिलेश
M+Y फैक्टर वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जगह-जगह ब्राह्मण सम्मेलन करके ब्राह्मणों को अपने पाले में करना चाहती हैं. जाहिर है 2007 में मायावती की सत्ता में वापसी का मूल ब्राह्मण ही था, लेकिन दलित उत्पीड़न के बढ़ते फर्जी मुकदमों से परेशान होकर सवर्ण मुलायम सिंह यादव की पार्टी में चले गए. जिसका नतीजा 2012 में अखिलेश मुख्यमंत्री बने. यही कारण है कि मायावती और अखिलेश कुर्सी के लिए दोबारा ब्राह्मण और सवर्ण वाले फॉर्मूले पर चलना चाहते हैं. लेकिन जिस तरह से प्रियंका गांधी यूपी में जमीन तैयार कर रही हैं. यूपी में कांग्रेस जितनी मजबूती से चुनाव लड़ेगी उतना ही नुकसान सपा और एसपी और बीएसपी का करेगी.
यूपी का जाति समीकरण
2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को पिछड़ों का ज्यादा समर्थन मिला था. जबकि यादव समाजवादी पार्टी का और दलित मायावती की पार्टी का परंपरागत वोटर रहा है. यूपी में जाति समीकरण की बात करें तो ब्राह्मण 10 से 12 फीसदी हैं, यादव 12 फीसदी जबकि कुर्मी और अन्य पिछड़ी जातियां 8 फीसदी के करीब हैं. दलितों की संख्या 25 फीसदी है. जाट और मल्लाह पांच फीसदी और मुसलमान 18 फीसदी हैं.
ओवैसी फंसाएंगे अखिलेश का पेंच?
राजनीतिक दांव पेंच सिर्फ यहीं तक नहीं हैं हैदराबाद से लखनऊ तक इसके कनेक्शन हैं. हम बात कर रहे हैं असदुद्दीन ओवैसी की, ओवैसी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण में जोर-शोर से लगे हैं. खास बात ये है कि अगर ओवैसी कामयाब होते हैं तो इसका सीधा फायदा बीजेपी को जाएगा, लेकिन मुसलमान बहुत चालाक हैं. शुरू से यह समुदाय बीजेपी को रोकने के प्लान पर काम करता रहा है. इस लिहाज से वो ओवैसी के साथ कितने दमखम से खड़ा होगा अभी ये कहना मुश्किल है, क्योंकि यूपी में मुसलमान खासतौर पर सपा का वोटर रहा है.
काम पर कम जातियों पर ज्यादा भरोसा
अब ऐसे में भला कांग्रेस भी क्यों पीछे रहती. कांग्रेस ने पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर दलितों को साधने की कोशिश की. गुजरात में रूपाणी काल खत्म होने के बाद पटेल पर ज्यादा भरोसा जताया गया. गुजरात में मुख्यमंत्री से लेकर ज्यादातर मंत्री पटेल ही बनाए गए. इन सब पर ध्यान दें तो ये साफ लगता है कि देश में राजनीतिक दलों को अपने काम पर कम जातीय गणित पर ज्यादा भरोसा है. 2022 में यूपी, गुजरात और पंजाब जैसे राज्यों में आम चुनाव होने हैं.


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