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पिछले कई दिनों से तबलीग़ के कामपर सऊदी अरब के कथित प्रतिबंध और उस पर दारु-ल-उलूम देवबंद समते कई मुस्लिम संगठनों के एतराज़ की चर्चा देश भर में है
यूसुफ़ अंसारी पिछले कई दिनों से तबलीग़ के कामपर सऊदी अरब के कथित प्रतिबंध और उस पर दारु-ल-उलूम देवबंद समते कई मुस्लिम संगठनों के एतराज़ की चर्चा देश भर में है. मुस्लिम समाज में इसे लेकर संशय बना हुआ है. ये भी दावा किया जा रहा है कि सऊदी अरब ने भारतीय तबलीग़ी जमात पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं लगाया. ये प्रतिबंध अल अहबाब नामक संगठन पर लगया गया है. ये संगठन भी 'तबलीग़' (धर्म प्रचार)और 'दावत/दावा' (इस्लाम में शामिल होने का न्योता देना) का काम करता है. भारतीय मुसलमान तबलीग़ी जमात पर प्रतिबंध की इन ख़बरों उन्हें बदनाम करने की साज़िश के तौर पर देख रहा है.
अहम सवाल यह है अगर सऊदी अरब ने प्रतिबंध का भारतीय तबलीग़ी जमात से कोई ताल्लुक़ नहीं हैं तो फिर दार-उल-उलूम देवबंद ने इस पर आपत्ति जताते हुए बक़ायदा बयान क्यों जारी किया? क्यों सऊदी सरकार से अपने फ़ैसले पर फिर से ग़ौर करने की अपील की? तबलीग़ी जमात से जुड़े लोग क्यों इस पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं? तबलीग़ी जमात से जुड़े मशहूर कारोबारी और एक्टिविस्ट ज़फ़र सरेशवाला ने दावा किया है कि उन्होंने इस संबध में सऊदी अधिकारियों से बात की है. उनके मुताबिक़ प्रतिबंध अल-अहबाब पर ही लगाया है, भारतीय तबलीग़ी जमात पर नहीं. भारतीय तबलीग़ी जमात पर सऊदी अरब 1981 में ही प्रतिबंध लगा चुका है. लिहज़ा अब उस पर दोबारा प्रतिबंध लगाने का कोई तुक नहीं है.
45 साल हुआ अरब में तबलीग़ का काम
ज़फ़र सरेशवाला के मुताबिक़ सऊदी अरब में 1936 से 1981 तब क़रीब 45 साल तबलीग़ी जमात ने काम किया है. इस दौरान मक्का और मदीना समेत कई जगहों पर जमात के बड़े मरकज़ थे. उनके मुताबिक़ जमात से संस्थापक मौलाना इलियास कांधलवी ने सऊदी अरब के तातकालीन बादशाह अल अज़ीज़ के पास तबलीग़ का काम शुरू करने की इजाज़त लेने के लिए तीन मौलानाओं को भेजा था. ये तीन थे मौलाना अबुल हसन अली नदवी, मौलाना उबैदुल्लाह और मौलाना सईद ख़ान. इनकी अरबी में बातचीत और तबलीग़ के मक़सद से बादशाह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने फ़ौरन इजाज़त दे दी. इसके बाद सऊदी अरब में तबलीग़ी जमातों के आने जाने और उनके बयानों का सिलसिला पूरे 45 साल तक चला.
1981 में लगा तबलीग़ी जमात पर प्रतिबंध
ज़फ़र सरेशवाला के मुताबिक़ पाबंदी के वजजूद सऊदी अरब में 1981 में तबलीग़ी जमात की गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी गई. पाबंदी की कोई ठोस वजह नहीं बताई गई. लेकिन पाबंदी के बावजूद वहां गुपचुप तरीक़े से जमात का काम चलता रहा. 1987 में सऊदी अरब ने जमात के सभी मरकज़ों को पूरी तरह बंद कर दिए और जमात से जुड़े तमाम लोगों के देश छोड़ने का भी आदेश दिया. उस समय मौलाना सईद ख़ान मदीना के मरकज़ के अमीर थे. मरकज बंद होने पर मौलाना ने अपना सऊदी अरब का पासपोर्ट सरेंडर कर दिया. मौलाना को पाकिस्तान ने नगरिकता की पेशकश की और मौलाना नें इसे क़बूल कर लिया. उसके बाद भी मौलाना सऊदी अरब जाते रहे लेकिन उन्होंने वहां फिर कभी तबलीग़ का काम नहीं किया.
दुनियाभर में सक्रिय है तबलीग़ी जमात
दुनिया के 190 देशों में तबलीग़ी जमात सक्रिय है. लगभग सभी देशों में उसके मरकज़ मौजूद हैं. अकेले अनेरिका में न्यूयार्क से लेकर सैन फ्रैंसिस्को तक 50 से ज़्यादा मरकज़ हैं. ग्रेट ब्रिटेन और तमाम यूरोपीय देशों से लेकर ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और जापान तक तबलीग़ी जमात के बड़े-बड़े मरकज़ हैं. हैरानी की बात यह है मुसलमानों का दुश्मन माने जाने वाले इज़्राइल में भी तबलीग़ी जमात का मरकज़ मौजूद है. इन सभी देशों में तबलीग़ी जमात बेरोकटोक काम करती है. इसकी गतिविधियों को को लेकर कहीं किसी को कोई एतराज़ नहीं है. दुनिया भर से जमात से जुड़े लोग भारत आते हैं और भारत के लोग जमात के काम से सऊदी अरब और पाकिस्तान को छोड़कर पूरी दुनिया में जाते हैं.
क्या है आतंकवाद पर जमात की राय
तबलीग़ जमात मुसलमानों को क़ुरआन के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारने पर ज़ोर देती है. तबलीग़ जमात के मुताबिक़ सबसे बड़ी 'जिहाद' ख़ुद के भीतर मौजूद सभी बुराइयों के ख़िलाफ़ लड़ने की कोशिश और समाज में प्रकट होने वाली बुराइयों के ख़िलाफ़ लड़ने की कोशिश है. साथ ही नस्लीय भेद-भाव के ख़िलाफ़ लड़ना और औरतों को उनके अधिकार दिलाने की कोशिश करने को दूसरे नंबर पर रखा गया है. तबलीग़ जमात ने कभी आतंकवाद का समर्थन नहीं किया. इसके उलट 1990 में जब जिहाद के नाम पर आतंकवाद शुरू हुआ तो तबलीग जमात ने इसे 'जिहाद' नहीं सबसे बड़ी 'फसाद' बताया था. तबलीग़ी जमात की पहल पर ही कई मुस्लिम संगठनों ने आतंकवाद को ग़ैर-इस्लमी क़रार देने वाला पहला सामूहिक फ़तवा जारी किया था.
किसी एजेंसी ने नहीं जोड़े आतंकवाद से तबलीग़ के तार
तबलीग़ से जुड़े ज़फ़र सरेशवाला ने सऊदी अरब के एक फैसले पर भारतीय तबलीग़ी जमात को निशाना बनाने वालों पर सवाल उठाते हैं. उनका कहना है कि दुनिया भर में हुई आतंकी घटनाओं में कभी जमात से जुड़े किसी व्यक्ति का दोषी पाया जाना तो दूर कभी कोई आरोप भी नहीं रहा. ऐसे में उसे आतंक का दरवाज़ा बताना किसी सूरत में स्वीकार्य नहीं है. उनका कहन है की ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी एमआई-5, अमेरिका की सीआईए और एफबीई, इज़रायल की मोसाद या फिर भारतीय एजेंसियों आईबी और रॉ ने भी कभी तबलीग़ी जमात के तार आतंकवाद से नहीं जोड़े. ऐसे में सऊदी अरब के अल अहबाब पर लगाए प्रतिबंध के आथार पर भारतीय तबलग़ी जमात को बदनाम करना उचित नहीं है.
तबलीग़ी जमात की शुरुआत
तबलीगी जमात की स्थापना 1926 में एक सुधारवादी धार्मिक आंदोलन के तौर पर हुई थी. मौलाना मोहम्मद इलियास कांधलवी ने इसकी शुरुआत की थी. यह धार्मिक आंदोलन इस्लाम की देवबंदी विचार धारा से प्रभावित और प्रेरित है. मौलाना मोहम्मद इलियास उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर जिले के कांधला गांव में 1303 हिजरी यानी 1885-1886 पैदा हुए थे. कांधला गांव में पैदा होने की वजह से ही उनके नाम में कांधलवी लगता है. देवबंद से जुड़े तमाम मौलाना अपने नाम में अपने पैदा होने की जगह का नाम बड़े फख्र से जोड़ते हैं. यह पुराना चलन है और आज भी जारी है.
मेवात से ही क्यों शुरू हुई तबलीग ?
हरियाणा के मेवात इलाके में बड़ी संख्या में मुस्लिम रहते थे. इनमें से ज्यादातर ने काफ़ी बाद में इस्लाम धर्म स्वीकार किया था. लिहाज़ा उन पर हिंदू रीति रिवाज हावी थे. उनके नाम भी आधे हिंदू और आधे मुसलमान हुआ करते थे. मसलन मोहम्मद रमेश या फिर राकेश अहमद. मेवात और इसके आसपास के कुछ इलाक़ों मे आज भी ऐसे नाम मिल जाते हैं. तब वहां के मुसलमान बस नाम के ही थे. रोज़े नमाज़ से दूर थे. यहां तक कहा जाता है कि तबलीग का काम शुरू होने से पहले तक मेवात के लोग सही से कलमा तक पढ़ना नहीं जानते थे.
जमात क्या होती है?
उर्दू के'जमात' शब्द का मतलब किसी एक ख़ास मक़सद से इकट्ठा होने वाले लोगों का समूह है. तबलीगी जमात के संबंध में बात करें तो यहां जमात ऐसे लोगों के समूह को कहा जाता है जो कुछ दिनों के लिए खुद को पूरी तरह तबलीगी मिशन को समर्पित कर देते हैं. इस दौरान उनका अपने घर, कारोबार और सगे-संबंधियों से कोई संबंध नहीं होता है. वे गांव-गांव, शहर-शहर, घर-घर जाकर मुसलमानों के बीच इस्लाम की बुनियादी शिक्षा का प्रचार करते हैं. इस्लामी शिक्षा के मुताबिक़ जिंदगी गुज़ारने के तौर तरीक़े सीखने और सिखाने का दौर चलता है. जमात से जुड़े लोग बाक़ी लोगों से अपने साथ जुड़ने का आग्रह करते हैं. इस तरह उनके घूमने को गश्त कहा जाता है.
क्या हैं जमात के नियम?
जमात का एक मुखिया होता है. उसे अमीर-ए-जमात कहा जाता है. गश्त के बाद का जो समय होता है, उसका इस्तेमाल वे लोग नमाज़, क़ुरआन की तिलावत और ज़िक्र (प्रवचन) में करते हैं. जमात से जुड़ने का एक नियम यह है कि हर साथी महीने में कम से कम 3 दिन, तीन महीने में 10 दिन साल में 40 दिन और जिंदगी में 4 महीने तबलीगी जमात के मिशन को अनिवार्य रूप से देगा. बाक़ी लोग एक निश्चित समय के लिए जुड़ते हैं. कोई लोग तीन दिन के लिए, कोई 40 दिन के लिए, कोई चार महीने के लिए तो कोई साल भर के लिए शामिल होते हैं. इस अवधि के समाप्त होने के बाद ही वे अपने घरों को लौटते हैं और रोज़ाना के कामों में लगते हैं. सबसे ख़ास बात यह है कि जमात में जाने वाले लोग अपना ख़र्च खुद उठाते हैं. वो किसी पर निर्भर नहीं होते हैं और ना ही इसके लिए चंदा करते हैं.
तबलीगी जमात के 'छह उसूल'
तबलीगी जमात के छह उसूल यानि सिद्धांत हैं.जमात में इन्हें 'छह बातें', 'छह सिफ़आत' और 'छह नंबर' भी कहा जाता है. ये छह उसूल इस तरह हैं…
1. मुकम्मल ईमानः यानी पूरी तरह अल्लाह पर यक़ीन रखना
2. दिन में पांच वक़्त पाबंदी से नमाज़ पढ़ना
3. इल्म-ओ-ज़िक्रः यानी धर्म से संबंधित बातें करना
4. इकराम-ए-मुस्लिमः यानी मुसलमानों का आपस में एक-दूसरे का सम्मान करना और मदद करना
5. इख़्लास-ए-नीयतः यानी नीयत का साफ़ रखना
6. तबलीग़ और दवतः मुस्लमानों को इस्लामी उसूलों के हिसाब से ज़िंदगी गुज़ारने के लिए प्रचार करना और ग़ैर मुसलमानों को इस्लाम में शामिल होने की दावत देना
दरअसल आम मुसलमानों में तबलीग़ी जमात से जुड़े लोगों को सीधा-सादा या फिर दकियानूसी ख़्याल का माना जाता है. आमतौर पर आर्थिक रूप से कमजोर और मध्यमवर्गीय मुसलमान रोज़े नमाज़ की तमीज़ सीखने के लिए जमात से जुड़ते हैं. इनका ज़ोर सादगी से ज़िंदगी गुज़ारने पर होता है. यही वजह है कि सऊदी अरब में अल अहबाब की तबलीग़ पर प्रतिबंध वाली खबरों को भरतीय तबलीग़ से जोड़कर उसे आतंक का दरवाज़ा बताया जाना आम मुसलमानों को अखर रहा है. इसी लिए तबलीग़ी जमात से असहमति रखने वाले संगठन भी उसके साथ खड़े हैं.
Rani Sahu
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