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कल्पना कीजिए कि किसी स्कूल या कॉलेज में क्लासरूम के अंदर से आवाज़ आ रही हो- ‘शांतनु आपको पूरे सेमेस्टर के लिए सस्पेंड कर दिया गया है
नीरज पाण्डेय। कल्पना कीजिए कि किसी स्कूल या कॉलेज में क्लासरूम के अंदर से आवाज़ आ रही हो- 'शांतनु आपको पूरे सेमेस्टर के लिए सस्पेंड कर दिया गया है, आपसे अनुरोध है कि आप क्लासरूम से चले जाएं ताकि हम ठीक तरीके से क्लास चला सकें.' ज़ाहिर है आप यही अंदाज़ा लगाएंगे कि किसी छात्र ने कोई बड़ी गलती की है इसलिए उसे कुछ दिनों के लिए सस्पेंड कर दिया गया है और उसे क्लासरूम से बाहर चले जाने को कहा जा रहा है. स्वाभाविक तौर पर आपके मन में ये विचार भी आएगा कि इस गलती से छात्र के करियर पर भी असर पड़ सकता है. एक ख्याल आपके मन में ये भी आ सकता है कि इस छात्र के माता-पिता को भी बुरा लगेगा, जब उन्हें पता चलेगा कि बच्चे को ऐसी सज़ा मिली है. मुमकिन है आपको ये भी महसूस हो कि अब दोबारा ये छात्र ऐसी गलती नहीं करेगा और बाकी बच्चे भी इससे सबक लेंगे.
आइए इस घटनाक्रम में मामूली तब्दीली करते हैं. अब स्कूल की जगह संसद है और यहां शांतनु कोई छात्र नहीं बल्कि सांसद का नाम है. सदन से आवाज़ आ रही है- 'डॉ. शांतनु सेन… आपको सदन की कार्यवाही में भाग लेने से सत्र की समाप्ति तक सस्पेंड किया गया है, आपसे अनुरोध है कि आप सदन से चले जाएं ताकि सदन की कार्यवाही चल सके.' शुक्रवार, 23 जुलाई को (बुद्धिजीवियों का सदन कहे जाने वाले) राज्यसभा में पहले सभापति और बाद में उपसभापति बार-बार यही घोषणा करते रहे. लेकिन एक दिन पहले आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव के हाथों से उनके बयान के पेपर को छीनने और उसे फाड़कर पीठासीन अधिकारी की तरफ पुर्जे उछाल देने वाले पेशे से डॉक्टर तृणमूल कांग्रेस के सांसद शांतनु सेन (TMC MP Santunu Sen) सदन से बाहर जाने को तैयार नहीं हो रहे थे. स्कूल वाली तस्वीर काल्पनिक है. लेकिन संसद की तस्वीर तो आंखों देखी कार्यवाही है, जिसका सीधा प्रसारण (सिर्फ यूट्यूब पर) हज़ारों लोग देख रहे थे.
हंगामा करने वाले सांसदों को लगता है आलाकमान तो खुश होगा!
दोनों घटनाएं एक सी हैं. लेकिन राज्यसभा में जिस माननीय को सस्पेंड किया गया, वो या उन जैसे दूसरे संसद सदस्य दोबारा कोई गलती ना करें, इसकी गारंटी नहीं के बराबर है. स्कूल या कॉलेज के छात्र और संसद के सदस्य में फर्क ये है कि छात्र या उसके माता-पिता को इस बात का डर होता है कि विद्यालय के नियमों को तोड़ने पर करियर ख़राब हो सकता है. इसके उलट संसद के वेल में जाकर हंगामा करने, तख्तियां दिखाने और कागज के पुर्ज़े फाड़कर उड़ा देने वाले नेता को इस बात का पक्का यकीन होता है कि पार्टी आलाकामान के सामने उसके नंबर बढ़ रहे होंगे जो अंततोगत्वा करियर ग्रोथ में सहायक होगा. यही हुआ भी तृणमूल के सभी सांसद शांतनु के बचाव में एकजुट हो गए. उल्टे राज्यसभा के सभापति से इस फ़ैसले को लेकर सवाल किए गए, जिसपर सभापति को क्षुब्ध होकर कहना पड़ा- 'कम से कम सदन की गरिमा का तो ख्याल रखें'.
जब राज्यसभा पर टिप्पणी हुई और डॉ. राधाकृष्णन बुरा मान गए
राज्य सभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल सुदर्शन अग्रवाल (जो बाद में उत्तराखंड और सिक्किम के राज्यपाल भी रहे) ने अपनी किताब 'जवाहरलाल नेहरू ऐंड राज्यसभा' में एक दिलचस्प घटना का ज़िक्र किया है. लोकसभा सदस्य एनसी चटर्जी ने हैदराबाद में आयोजित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के 31वें सम्मेलन में कहा था कि 'राज्य सभा से उम्मीद थी कि वो भद्रजनों का सदन होगा, लेकिन ऐसा लगता है कि वहां लावारिस लोगों का जमावड़ा है.' चटर्जी के इस बयान का काफी विरोध हुआ था. उच्च सदन के तत्कालीन सभापति राधाकृष्णन ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई थी और चटर्जी को चिट्ठी भिजवा कर पूछा कि आपके बयान की सच्चाई क्या है. चटर्जी ने इस चिट्ठी पर आपत्ति जताई और इसे 'दूसरे सदन से जारी आदेश' बताकर लोकसभा में विशेषाधिकार का मसला भी उठाया. आगे की कहानी दिलचस्प है कि कैसे जवाहर लाल नेहरू ने बीच-बचाव करते हुए दोनों सदनों के रिश्ते में खटास नहीं आने दिया. लेकिन, 1950 के दशक की इस घटना से एक बात तो सीखी ही जा सकती है, कम से कम राज्यसभा से उम्मीद की जाती है कि वो संसदीय मर्यादा का उल्लंघन ना करे.
याद कीजिए अत्यंत मृदुभाषी स्पीकर मीरा कुमार (जो 'बैठ जाइए-बैठ जाइए' बोलकर सदस्यों से आग्रह करती थीं), ने फरवरी, 2014 में रूल 374-A के तहत तेलंगाना के 16 संसद सदस्यों को निलंबित किया था. ये वही नियम है, जो कहता है कि सदन में अव्यवस्था के दौरान अध्यक्ष द्वारा सदस्य का नाम लेने भर से वो सदन की 5 बैठकों के लिए या सत्र की शेष अवधि के लिए निलंबित हो जाएगा.
मसला रिकॉर्ड से हटाने का नहीं, मस्तिष्क से मिटाने का है!
आम तौर पर सुनने में आता है कि जब कोई विधायक या सांसद किसी असंसदीय आचरण का प्रदर्शन करता है, तब सदन के अध्यक्ष या दूसरे पीठासीन अधिकारी कहते हैं- 'ये घटना सदन की कार्यवाही में नहीं दर्ज होगी.' मध्यप्रदेश की विधानसभा का सचिवालय तो असंसदीय शब्दों की एक सूची भी तैयार कर रहा है, जो मानसून सत्र के पहले सदस्यों को दे दी जाएगी और उनसे उम्मीद की जाएगी कि इन शब्दों का इस्तेमाल सदन में ना करें. संविधान निर्माताओं की मंशा ये थी कि आने वाली पीढ़ियां जब संसद का इतिहास खंगालें तो उन्हें ऐसा कोई रिकॉर्ड ना देखने को मिले, जिससे लोकतांत्रिक परंपरा की मलिन छवि के दर्शन हों. लेकिन अब जबकि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण हो रहा है, माननीयों के मुंह से निकले शब्द और उनके कृत्य तो नागरिकों के दिमाग में दर्ज हो रहे हैं. ऐसे में संसद के रिकॉर्ड में उन्हें दर्ज करें या ना करें, क्या फर्क पड़ता है.
तो सीधा सवाल ये है कि अगर मोटर व्हीकल एक्ट के तहत तीसरी बार स्पीड लिमिट जंप करने वाले का ड्राइविंग लाइसेंस कैंसिल किया जा सकता है? अगर बार-बार कोई गलती दोहराने पर किसी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी को नौकरी से निकाला जा सकता है. अगर किसी खिलाड़ी को खेलने से, वकील को वकालत से रोका जा सकता है, तो भला ऐसा कोई नियम क्यों नहीं बनाया जा सकता, जिसमें तय हो कि बार-बार संसद के नियम तोड़ने वाले की सदस्यता खत्म कर दी जाए. ज़ाहिर तौर पर इस किस्म के जुर्माने या सज़ा का मकसद ये होता है कि लोगों में डर पैदा हो ओर वो नियमों का उल्लंघन ना करें. लेकिन, यही डर संसदीय परंपरा तोड़ने वालों में पैदा करने की ज़रूरत क्यों नहीं महसूस की जा रही है?
इसका सीधा सा जवाब ये है कि अनुशासित सदन किसी भी राजनीतिक दल को सूट नहीं करता है. हर पार्टी को ऐसे 'हाहाकारी' सदस्यों की दरकार है जो वेल में जाकर नारेबाज़ी करने और नियमों की अवहेलना करने में निपुण हों. इसकी एक वजह ये भी है कि अब ऐसे सदस्य विरले हैं, जो पढ़-लिखकर और पूरी तैयारी के साथ सदन में आते हैं.
लायब्रेरी जाने का वक्त क्यों नहीं निकाल पाते आज के सांसद?
इसी वर्ष मार्च में राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने इस बात पर चिंता जताई थी कि सांसद पार्लियामेंट की लायब्रेरी में नहीं जाते हैं (पार्लियामेंट लायब्रेरी ने इस वर्ष अपने 100 साल पूरे कर लिए हैं). नायडू ने ये भी कहा था कि 'लायब्रेरी में जाकर सांसद अपने ज्ञान में बढ़ोतरी कर सकते हैं क्योंकि सदन में अच्छी बहस हो इसके लिए ज़रूरी है सदस्यों का होमवर्क भी अच्छा हो.'
लेकिन, दिक्कत ये है कि 'नए दौर की राजनीति' में जो शॉर्ट कट फॉर्मूला हैं, उसमें लायब्रेरी का उल्लेख नहीं है. पार्लियामेंट लायब्रेरी में 14 लाख किताबें हैं और इसमें कई ऐसी चीजें उपलब्ध हैं, जो कहीं और नहीं मिलती हैं. यहां नरसिम्हा राव और उनके बाद के सभी प्रधानमंत्रियों के भाषण भी आपको मिलेंगे.
मिसाल के तौर पर 25 अप्रैल, 2000 का भाषण, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पेश कर रहे हैं. इसमें (काउंटर 23:52 पर) अटल जी सब्सिडी और खेती के विषय पर कहते हैं- 'हमारे मित्रों ने जो नीतियां शुरू की थीं, उससे वापस जा रहे हैं…क्यों..क्या ये सच नहीं है कि सब्सिडी के मामले में कांग्रेस पार्टी के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ रहा है. अध्यक्ष महोदय एक ग्वालियर वाला दूसरे ग्वालियर वाले के साथ ऐसा नहीं कर सकता (ठहाके की आवाज़) हम तो लखनऊ के हैं (फिर से ठहाके की आवाज़), अध्यक्ष जी सब्सिडी के सवाल पर सब राजनीतिक दलों को मिलकर सोचना होगा. गरीब के जीवन को सुधारने के लिए जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए. फर्टिलाइजर का मामला देखिए, किसान को उतना लाभ नहीं मिल रहा, जितना कारखानों को मिल रहा है.'
आप इस भाषण को सुनेंगे तो पता चलेगा कहीं कोई शोरगुल नहीं है. बीच में विपक्ष की तरफ से कहीं कोई आवाज़ उठी भी तो अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़े चुटीले अंदाज़ में (जैसे- एक ग्वालियर वाला दूसरे ग्वालियर वाले के साथ ऐसा नहीं कर सकता) माहौल को हल्का कर दिया और आगे बढ़ गए.
आज सोमनाथ दा को क्यों याद करना चाहिए?
सौ बात की एक बात ये है कि सदन में सांसदों का आचरण प्रेरक होना चाहिए और ये तभी संभव होगा जब नियमों और परंपराओं का तालमेल बनाकर आगे बढ़ा जाए. अगर 'लोक' के बीच 'तंत्र' की छवि लगातार बिगड़ती जा रही है तो इससे ख़तरनाक कुछ भी नहीं है.
अंत में एक और रोचक जानकारी- ऊपर जिस एनसी चटर्जी का ज़िक्र हुआ, उनका पूरा नाम निर्मल चंद्र चटर्जी है. निर्मलचंद्र चटर्जी हिंदू महासभा के नेता थे. वो कलकत्ता हाई कोर्ट के जज भी रहे. बंगाल से जीतकर लोकसभा में आने वाले निर्मलचंद्र चटर्जी के पुत्र भारत की 14वीं लोकसभा के स्पीकर हुए, जिनका नाम था- सोमनाथ चटर्जी. हम सदन में जिस अनुशासन की बात कर रहे हैं- सोमनाथ दा उसकी मिसाल रहे. उन्होंने 4 दशक तक राजनीति की, 10 बार सांसद रहे, उन्हें वर्ष 1996 में 'सर्वश्रेष्ठ सांसद' का सम्मान भी मिला.
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