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- किसकी जिम्मेदारी
Written by जनसत्ता: नवसंवत्सर के अवसर पर राजस्थान के करौली जिले और दिल्ली के बुराड़ी मैदान में जो शर्मनाक घटनाएं हुईं, उससे आप-हम जैसे लाखों देशवासी आहत महसूस कर रहे हैं। यह तो हम मान लें कि पिछले कुछ सालों से देश की आबोहवा में अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा और नफरत का जहर घोलने का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा और कुछ साधुवेशधारियों के निर्मम आह्वानों से अब यह क्रूरतर होता जा रहा है।
दुर्भाग्य से यह सारा घिनौना खेल देश के बहुसंख्यक वर्ग से जुड़े कुछ लोगों (जिसमें हमारे असंख्य तथाकथित सुशिक्षित लोग भी शामिल हैं), के द्वारा खेला और प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसमें भी शक की कोई गुंजाइश नहीं कि इस खास मानसिकता को खाद-पानी देने के पीछे सत्ता के हाथों की कठपुतली बन चुकीं हमारी स्वायत्त संवैधानिक संस्थाओं की जनविरोधी भूमिका है।
ऐसे में क्या हम अपने 'जनता' होने के अहसास का गला घोंट कर भेड़-बकरियां बने रहने में खुश रहना चाहेंगे? क्या देश के एक जिम्मेदार नागरिक होने के विचार को हम अपने पास फटकने ही नहीं देना चाहते? 'होने दो जो होता है, मुझे क्या पड़ी है'- क्या खुद को यह दिलासा देकर पल्ला झाड़ लेना हमें संतुष्ट कर देता है? मुझे लगता है कि अगर हम बार-बार अपने आप से ये सवाल नहीं पूछेंगे और मीडिया के विविध मंच उपलब्ध होने के बावजूद अपनी प्रतिक्रिया देने से बचने का प्रयास करेंगे, तो हमें जनता होने का कोई अधिकार नहीं रह जाता।
आखिर कब तक हम अपने आसपास मंडराते हुए षड्यंत्रों के बीच निर्लिप्त बने रहने का ढोंग रचते रहेंगे? इसका हासिल क्या होना है इसके सिवा कि हमारी मौजूदा पीढ़ी विचार के स्तर पर शून्य होकर लाचार हो जाएगी और आने वाली पीढ़ियां मनुष्य के तौर पर अपनी पहचान की तलाश करने की कोशिश करेंगी। नफरत और हिंसा की यह राजनीति जितना नुकसान दूसरे समुदायों को पहुंचाएगी, उससे ज्यादा यह अपने समुदाय के लोगों को भी इंसान के रूप में खत्म करेगी।