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जनता से रिश्ता वेबडेस्क। आप सोच रहे होंगे कि भला ये आप सोच रहे होंगे कि भला ये कुर्सी के साथ थाली का क्या मेल? बिलकुल है। दरअसल जब भी, जिस राज्य में सत्ता परिवर्तन होता है तो सियासत के बैनर, पर्दे बदलने के साथ चौक-चौराहों पर लगी गरीब की थाली के रंग भी तो बदल जाते हैं। ब्रांड नेम और थाली के जायके पर सत्ता पार्टी का स्वाद चढ़ जाता है। अब गरीब को क्या है खाने में दाल-भात मिले या सब्जी-रोटी, वडा पाव मिले या दाल मखनी, खिचड़ी मिले या इडली या फिर दही-चावल। इस पर भी सवाल उठाना उसके ओहदे की बात थोड़ी है कि ये थाली दो-चार दिन मिले, महीने मिले या कुछ साल मिलते-मिलते कब विलुप्त हो जाए।
पूर्वी दिल्ली के एक इलाके में स्थानीय सांसद गौतम गंभीर ने भी ऐसी ही सस्ती थाली की सेवा शुरू की है, जिसके बाद से यह विषय एक बार फिर सुर्खियों में है। एक और चीज देखिए। इस थाली में जायके और पौष्टिकता की भले आपको खुशबू नहीं आए, लेकिन हां, जिस राज्य में गरीब के नाम की थाली जन्म लेगी, उसमें फ्लेवर उस राज्य का ही होगा।
एक रोचक चीज और देखिए। जिस तरह किसी हवेली की कीमत को लेकर बोली लगती है कि उससे ज्यादा मुझसे लो, मैं तुम सबसे ज्यादा कीमत लगाता हूं। लेकिन यहां सियासत वाले गरीब की थाली पर जरा विपरीत बोली लगाते हैं, मैं तुमसे कम। दरअसल यहां कम कीमत लगाने पर अधिक मुनाफे का भरोसा रहता है न, इसलिए। तभी तो किसी ने दस रुपये में रोटी खिलाई, किसी ने आठ रुपये में, कोई पांच रुपये में, तो कोई एक रुपया, तो किसी ने मुफ्त में ही रोटी खिलाने की दावेदारी ठोक दी।
सत्ताधारी को तो इस तबके के समक्ष अपनी मौजूदगी रखनी होती है और भला रोटी यानी भूख से बड़ा वोट पाने का रास्ता और क्या हो सकता है। इन योजनाओं के शुरू होने के बाद संचालन तो एनजीओ द्वारा कराया जाता है। एनजीओ को ठेका मिला, कुछ दिन चौक-चौराहे पर गरीब बस्ती के आसपास खाना बंटा, फिर तलाशते रहिए। न दिखेगा ठेला और न ही बंटेगा खाना। इसी तरह इन थालियों की योजनाओं के नामकरण में भी सत्ता की मुहर होगी। यहां एक बड़ा सवाल यह भी जेहन में कौंधता है कि जैसे ही सत्ता में दल बदल होता है तो ये थाली क्यों बंद हो जाती है?
इस थाली और कुर्सी की शुरुआत भी बहुत दिलचस्प रही है जिसे तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता ने वर्ष 2013 में दक्षिण के मशहूर व्यंजनों के साथ तीन से पांच रुपये की कीमत में शुरू किया था। मजे की बात देखिए, ऐसा कहा जाता है कि वर्ष 2016 में इसी थाली ने उन्हें दोबारा सत्ता में भी ला दिया। फिर क्या था, यहीं से यह थाली विभिन्न राज्यों में जायकों की खुशबू फैलाती गई, राजनीतिक पार्टियों ने इसे हाथों-हाथ लिया। दिल्ली में 2015 तक सत्ता में जब शीला दीक्षित की सरकार थी, तो जन आहार योजना चलती थी, गरीब को खाना मिलता था। सत्ता गई तो गरीब की रोटी भी गई। वह भी उस दिल्ली में जिसमें देशभर से लाखों प्रवासी कामगार आते हैं, रहते हैं।
उत्तर प्रदेश में भी समाजवादी पार्टी के शासनकाल में 2015 में तब के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पंजीकृत श्रमिकों के लिए दस रुपये में थाली की योजना प्रारंभ की थी। लेकिन यह योजना भी बहुत दिनों तक चल नहीं पाई। महाराष्ट्र में भी कई बार कोशिशें हुईं, वहां शिव वडा पाव थाली शुरू की गई थी, वो हर चौक-चौराहे पर आज भी है तो, लेकिन उसमें मिलने वाला वडा पाव सामान्य कीमत में ही मिलता है। हां, बस शिव वडा पाव थाली के नाम पर उसे बेचने वाले रेहड़ी वालों को संरक्षण मिला रहता है। मालूम हो कि उद्धव ठाकरे सरकार ने इस थाली की शुरुआत की थी।
दिल्ली से ही सटे हरियाणा में भी राज्य सरकार ने श्रमिक कल्याण राशि से पूरे राज्य के 22 जिलों में सस्ती थाली की रसोई खोली, मगर लॉकडाउन के बाद से इनको शुरू नहीं करवाया जा सका। सरकार के श्रम विभाग ने 2018 में 20 रुपये की लागत वाला खाना 10 रुपये में देना शुरू किया था। फरीदाबाद व पलवल के सामान्य अस्पताल में जनचेतना ट्रस्ट के तत्वावधान में 10 रुपये में भरपेट खाने की रसोई खोली गई, मगर ये भी अब नहीं चल रही हैं। इन दोनों रसोईघरों का शुभारंभ हरियाणा के तत्कालीन उद्योग मंत्री विपुल गोयल ने किया था।
असल में ऐसी रसोई एक बार बड़े जोर-शोर से खोल दी जाती है, लेकिन बाद में इनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं रहता, या कहें कि ध्यान नहीं दिया जाता।
एनजीओ का मकसद ठेका लेने तक ही होता है। राजस्थान में भी अन्नपूर्णा रसोई योजना चल रही थी। वसुंधरा राजे ने दिसंबर, 2016 में इसकी शुरुआत की थी। पांच से आठ रुपये में भरपेट खाना मिलता था। सत्ता बदली तो अन्नपूर्णा की जगह अब यह इंदिरा रसोई बन गई। क्या गरीब वर्ग सिर्फ वोट पाने तक ही सीमित है? गरीब के लिए चलाई जाने वाली जन आहार योजना तो चलाई ही जा सकती है। क्या पता आप दोबारा सत्ता में आ जाएं, कम से कम गरीब को रोटी तो मिलती रहे। दरअसल हमारे देश में मुंशी प्रेमचंद का गरीब जो आज भी हमारे समाज का बड़ा तबका है, उसे वोट बैंक की सेहत के लिए सबसे बेहतर समझा जाता है, पर सिर्फ वोट पाने तक ही क्यों? क्या उस थाली को सत्ता के मोह से आगे उसकी पौष्टिकता और जरूरत के लिए निरंतर नहीं चलाया जा सकता? सियासत की रोटियां तो सिकती ही रहती हैं, गरीब के पास तो सिर्फ निवाले की भूख है।कुर्सी के साथ थाली का क्या मेल? बिलकुल है। दरअसल जब भी, जिस राज्य में सत्ता परिवर्तन होता है तो सियासत के बैनर, पर्दे बदलने के साथ चौक-चौराहों पर लगी गरीब की थाली के रंग भी तो बदल जाते हैं। ब्रांड नेम और थाली के जायके पर सत्ता पार्टी का स्वाद चढ़ जाता है। अब गरीब को क्या है खाने में दाल-भात मिले या सब्जी-रोटी, वडा पाव मिले या दाल मखनी, खिचड़ी मिले या इडली या फिर दही-चावल। इस पर भी सवाल उठाना उसके ओहदे की बात थोड़ी है कि ये थाली दो-चार दिन मिले, महीने मिले या कुछ साल मिलते-मिलते कब विलुप्त हो जाए।