सम्पादकीय

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में वेस्ट यूपी की जनता किसे बनाएगी अपना चौधरी?

Gulabi
28 Jan 2022 9:26 AM GMT
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में वेस्ट यूपी की जनता किसे बनाएगी अपना चौधरी?
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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव
शंभूनाथ शुक्ल।
आरएलडी के चौधरी जयंत (RLD Chief Jayant Chaudhary) ने कहा है, वे चवन्नी नहीं हैं, जो पलट जाएंगे. मुज़फ़्फ़र नगर के खतौली में अपने लोगों से बतियाते हुए उन्होंने यह बात कही. दरअसल बीजेपी (BJP) ने यह कह कर आरएलडी ख़ेमे में शशोपंज खड़ा कर दिया था, कि आरएलडी और जयंत चौधरी के लिए पार्टी के दरवाज़े सदैव खुले हैं. इसी संदर्भ में उन्होंने जवाब दिया. उधर बीजेपी पश्चिमी उत्तर प्रदेश (Western Uttar Pradesh) में जाटों की नाराज़गी को देखते हुए बेचैन है. उसे लगता है, 2017 में जाटों ने उसके पक्ष में पासा पलट दिया था. किंतु इस बार जाट ही उसके विरुद्ध मुखर हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट न केवल संख्या बल में अधिक हैं, बल्कि वे चुनावों की दशा-दिशा पलटने में भी सक्षम हैं. इसलिए बीजेपी किसी तरह जाटों को अपने ख़िलाफ़ नहीं जाने देना चाहती. यहां बहुत पहले से माना जाता रहा है, कि जिसके साथ जाट, उसी के सिर पर ताज़!
इसीलिए बीजेपी भी जाटों के मान-मनौवल में जुटी है. संजीव बालियान को इस मुहीम में लगा दिया गया है और अमित शाह भी पगड़ी पहन कर खापों को मनाने में जुट गए हैं. लेकिन पहले dचरण की वोटिंग दस फ़रवरी को है, तो क्या कुल 15 रोज़ पहले इस तरह की पहल से जाटों की नाराज़गी दूर हो जाएगी? यह लाख टके का सवाल है. जानकार बताते हैं कि संजीव बालियान 26 जनवरी को जिन जाट चौधरियों को लेकर अमित शाह के पास गए थे, उनमें से अधिकतर बीजेपी समर्थक ही हैं. इसकी वज़ह यह है, कि ख़ुद संजीव बालियान की भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल इलाक़ों में ख़ास पकड़ नहीं है. इसलिए फ़िलहाल जाट वहीं पर हैं, जहां वह कल थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश ख़ासकर मेरठ और मुज़फ़्फ़र नगर के गन्ना इलाक़ों का किसान बीजेपी सरकार से नाखुश बताया जा रहा है. चूंकि यहां जाट किसान बहुमत में हैं, इसलिए बीजेपी आशंकित है कि कहीं आने वाली दस फ़रवरी को जाट उसकी स्थिति न बिगाड़ दें.
2017 में जाटों ने बीजेपी को खुल कर वोट दिया था
इसमें कोई शक नहीं कि 2017 में जाटों ने बीजेपी को खुल कर वोट दिया था. यहां तक कि उन्होंने अपनी पारिवारिक पार्टी आरएलडी की भी अनदेखी कर दी थी. किंतु इस बार हालात बीजेपी के फ़ेवर वाले नहीं हैं. जाट तो नाराज़ हैं ही गूजर, सैनी, कश्यप, ठाकुर, बनिया और ब्राह्मण भी बीजेपी से खुश नहीं है. इसके बाद बीजेपी के जितने भी विधायक रहे, उन्होंने अपने इलाक़े में कोई उल्लेखनीय काम नहीं किए. इसलिए बीजेपी के लिए स्थितियां जटिल हैं.
उधर आरएलडी के जयंत चौधरी पिछले एक वर्ष से जाटों को मनाने में जुटे रहे हैं. चौधरी चरण सिंह का वास्ता देकर उनको अपने साथ जोड़ा है. यहां पर मुसलमान वोट बहुत बड़ा फ़ैक्टर है. बीजेपी के लिए यह भी एक सिरदर्द है कि मुस्लिम के साथ अगर एक और जाति खड़ी हो जाती है, तो बीजेपी का वेस्ट से सफ़ाया तय है. मुसलमान बस इसी ताक में है, कि उसके क्षेत्र में कौन-सी पार्टी बीजेपी को हराने में सक्षम है.
बागपत, मुज़फ़्फ़र नगर, शामली, मेरठ और बिजनौर ये वे ज़िले हैं, जहां पर जाट बीजेपी से बुरी तरह नाराज़ हैं. एक तो यह गन्ना बेल्ट है दूसरे उसे लगता है कि बीजेपी सरकार ने उसके साथ न्याय नहीं किया. खाद, बीज और कृषि यंत्र सब उसकी पहुंच से बाहर हैं. इन ज़िलों में जाट, मुस्लिम गठजोड़ भारी है तो अलीगढ़, मथुरा और आगरा में जाट और अन्य पिछड़ी जातियां भी नाराज़ हैं. ये सारे समीकरण बीजेपी को मुश्किल में डाल सकते हैं. अब उसके पास एक ही रास्ता बचा है, कि किसी तरह वह सपा-आरएलडी गठबंधन के पक्ष में जा रहे इस समीकरण को तोड़े. और इसमें वह सफल हो भी रही है. आरएलडी के बारे में उसकी टिप्पणी इस बात का संकेत भी है.
जाट-मुस्लिम एकता ज़मीनी तौर पर कितनी कामयाब
दरअसल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की स्थिति बहुत अच्छी है. उनके पास पैसा भी है और ताक़त भी तथा एकता भी. किंतु अकेले यही एक जाति किसी को तब तक जिता नहीं सकती जब तक हिंदुओं की कुछ जातियों की सहायता उसे न मिल सके. पश्चिम में जाट और पूरब में यादव उसके लिए मददगार हो सकते हैं.
किंतु इसमें विरोधाभास यह है कि न तो मुसलमान को पक्का यक़ीन है, कि जाट और यादव हर स्थिति में उसके साथ रहेंगे न जाट-यादव यह मानते हैं. इसलिए मुस्लिम, जाट और यादव समाज की स्थिति तब छिन्न-भिन्न हो जाती है, जब वे देखते हैं कि उनकी सीट पर उनकी पार्टी का उम्मीदवार उनसे विपरीत मज़हब वाला है. तब मुस्लिम दूसरी तरफ़ हो जाते हैं और जाट या यादव दूसरी तरफ़. लड़ाई तिकोनी हो जाने पर बीजेपी को फ़ायदा मिलने की उम्मीद रहती है.
अब ऊपरी सतह पर भले जाट-मुस्लिम या यादव-मुस्लिम एकता की बात की जाए, किंतु पिछले सात-आठ वर्षों में जो माहौल बना है, उसमें यह बात बेमानी प्रतीत होती है. सच तो यह है कि जब वोट देने की बात आती है तो कहीं जाति आड़े आती है तो कहीं मज़हब. हम अधिक दूर न जाएं, कैराना को ही लें. यहां मुस्लिम आबादी ख़ासी है और वह आबादी गूजर जाति के मुसलमानों की है. इसलिए गूजर हिंदू हुकुम सिंह भी यहां से जीतते रहे. किंतु अब सपा से नाहिद हसन और बीजेपी से मृगांका सिंह आमने-सामने हैं और दोनों ही गूजर हैं.
मुसलमानों के बंटे वोट बीजेपी को फायदा पहुंचाएंगे
पिछली बार 2017 में भी यही दोनों थे. तब नाहिद हसन ही जीते थे. बीजेपी यहां पूरी ताक़त से लगी है कि वह जाटों को तोड़ ले. लेकिन मुस्लिम आबादी यहां इतनी अधिक है, कि यह संभव नहीं दिखता. किंतु मतदान तक ऊंट किस करवट बैठेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. कैराना ही नहीं शामली ज़िले की बाक़ी दोनों सीटों- शामली और थानाभावन पर भी स्थिति विचित्र है. थाना भवन में सुरेश राणा बीजेपी प्रत्याशी हैं और प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं. लगातार दो बार विधायक रहे सुरेश राणा के लिए अब जाट, मुस्लिम एकता चुनौती बन गई है. दिक़्क़त यह है कि राणा ठाकुर हैं और एक निर्दलीय ठाकुर शेर सिंह राणा के आ जाने से वे घिर गए हैं. उनके पक्ष में यह है कि यहां आरएलडी और बसपा ने मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं. वहीं शामली से बीजेपी के तेजेंद्र सिंह निर्वाल 2017 में जीते थे. उन्होंने कांग्रेस के पंकज मलिक को हराया था. इस बार कांग्रेस ने मुस्लिम को उतारा है. आरएलडी ने प्रसन्न चौधरी को और बसपा ने भी मुस्लिम को. अब अगर यहां मुसलमान और जाट एकजुट रहे तो ठीक अन्यथा लाभ बीजेपी को मिलेगा.
बीएसपी ने कई सीटों पर मुस्लिम प्रत्याशी उतार कर दो संकेत दिए हैं. एक यह कि वह मुस्लिम वोटों का गणित बिगाड़ेगी और दूसरा यह कि मुसलमान और दलितों के बीच कितनी एकता है, यह पता चलेगा. चूंकि दलित वोट समान रूप से पूरे प्रदेश में हैं और कहीं भी उसकी आबादी बीस प्रतिशत से कम नहीं है, इसलिए बसपा इस गठबंधन की हवा निकालने की फ़िराक़ में है. सपा मुखिया अगर चंद्रशेखर आज़ाद को अपने साथ रख लेते तो वह दलित वोटों में कुछ सेंध लगा सकते थे. मुख्य रूप से पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा-आरएलडी गठबंधन और बीजेपी ही है, किंतु ज़मीनी लेवल पर मायावती की मार भी महीन होगी. अब देखना यह है कि निर्दलीय किसका समीकरण बिगाड़ेंगे और ओवैसी-चंद्रशेखर किसका? कुल मिला कर हफ़्ते भर पहले जो लड़ाई बहुत आसान बतायी जा रही थी, वह अब फंस गई है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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