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विकारों का उपचार
वर्ष 1993 में विश्व बैंक ने बताया था कि भारत में 6 से 7 प्रतिशत लोग मानसिक विकारों से प्रभावित हैं. तंत्रिका-मनोविकारों के कारण मानव जीवन, मानवीय व्यवहारों और उत्पादकता का नुकसान होता है, उतना नुकसान डायरिया, मलेरिया, कृमि संक्रमण और तपेदिक से कारण भी नहीं होता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (2001) ने यह बताया था कि वर्ष 2020 तक भारत में मनोविकारों से प्रभावित लोगों की संख्या कुल जनसंख्या के लगभग 15 प्रतिशत तक पहंच जाएगी.
इसके बाद द लांसेट में प्रकाशित एक अध्ययन – द बर्डन आफ मेंटल डिसआर्डर्स अक्रास द स्टेट्स आफ इंडिया (1990-2017) में यह बताया गया कि भारत में हर 7 में से 1 व्यक्ति यानी 14 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या मानसिक विकारों की गिरफ्त में आ चुकी है. वर्ष 2017 की स्थिति में 19.73 करोड़ भारतीय किसी न किसी मानसिक विकार से ग्रस्त थे. राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के निष्कर्ष बताते हैं कि जीवनकाल में मानसिक विकारों से ग्रस्त होने ही दर मध्यप्रदेश में 15.6 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 15.1 प्रतिशत, तमिलनाडु में 19.3 प्रतिशत, केरल में 14 प्रतिशत, राजस्थान में 15.4 प्रतिशत और मणिपुर में सबसे ज्यादा 19.9 प्रतिशत है.
मानसिक विकारों का एक घातक परिणाम होता है आत्महत्या की पृवत्ति का विकसित होना. मध्यप्रदेश में 7.2 प्रतिशत, तमिलनाडु में 6.7 प्रतिशत, उतरप्रदेश में 7.1 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 2.2 प्रतिशत, झारखंड में 3.4 प्रतिशत और गुजरात में 4.1 प्रतिशत लोगों में आत्महत्या की पृवत्ति का जोखिम दिखाई दिया.
देश और दुनिया में जिस तरह से मानवीय जीवन में मूल्यगत आघात हो रहे हैं, उससे यह माना जा सकता है कि वर्ष 2017 के बाद भी भारत में मानसिक विकारों से प्रभावित लोगों की संख्या में हो रही है. ऐसा माना जाना इसलिए लाजिमी हो जाता है क्योंकि भारत में आत्महत्याओं की संख्या वर्ष 2017 में 129887 थी, जो वर्ष 2019 में बढ़कर 139123 हो गई. द लांसेट के अध्ययन में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि समाज में मानसिक विकारों के फैलाव और लोगों में आत्महत्या की मनोवृत्ति में सीधा रिश्ता होता है.
इतना ही नहीं आपराधिक व्यवहार और मानसिक विकारों में भी प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है (क्योंकि उत्तेजना, अवसाद, हिंसा भी मानसिक विकार हैं); इस मान से हम मानसिक बीमारी की महामारी की गंभीर स्थिति की तरफ बढ़ रहे हैं. वर्ष 2018 में भारत में 50.75 लाख अपराध के मामले दर्ज किये गए थे, जबकि यह संख्या वर्ष 2020 में बढ़कर 66 लाख (एनसीआरबी रिपोर्ट्स) तक पहुंच गई. क्या अपराधों में 3 सालों में 30 प्रतिशत की वृद्धि एक असहनीय बदलाव नहीं है?
एक तरफ तो राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य के निष्कर्षों से पता चला था कि भारत में आत्महत्या करने वालों में 23.4 प्रतिशत लोग दैनिक आय अर्जित करने वाले लोग थे, जबकि 10.1 प्रतिशत लोग बेरोजगार और 11.6 प्रतिशत लोग स्व-रोज़गार करने वाले लोग थे. यदि भारत में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति में सकारात्मक बदलाव लाना है, तो बहुत जरूरी होगा कि देश की आर्थिक नीतियों में आर्थिक असमानता, बेरोज़गारी, गरीबी और सामाजिक सुरक्षा के मानकों पर प्रभावी पहल को प्राथमिकता दी जाए.
संकट यह भी है कि इन मानकों पर सरकार की संवेदनशीलता का अभाव है और इसे छिपाने के लिए सामाजिक विद्वेश और साम्प्रदायिकता को राजनीतिक संरक्षण प्रदान किया जाता है. इसका मतलब है कि भेदभाव और हिंसा को पोसने वाली राजनीतिक प्रक्रिया मानसिक विकारों का उपयोग अपने वजूद को ज्यादा मज़बूत करने में करती है.
इसके दूसरी तरफ यह जरूरी है कि मानसिक स्वास्थ्य के लक्ष्यों (अब सतत विकास लक्ष्यों में भी यह शामिल है) को हासिल करने के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में बहुत ठोस और प्रतिबद्ध पहल की जाती. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. जर्नल आफ न्यूरोसाइंसेस इन रूरल प्रेक्टिस में प्रकाशित अध्ययन (मई 2020) के मुताबिक़ भारत में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने में एक बहुत बड़ी चुनौती है मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने वाले मानव संसाधन (यानी चिकित्सक, परामशर्दाता, नर्स और विशेषज्ञ आदि) की विकराल कमी.
भारत में ऐसे मानव संसाधन की कमी लगभग 90 प्रतिशत है. इस कमी को पूरा करने के लिए मानसिक स्वास्थ्य शिक्षण संस्थाओं की आवश्यकता होती है. जब भारत के विभिन्न राज्यों में मानसिक स्वास्थ्य शिक्षण संस्थानों और उनमें प्रशिक्षण पाने वाले व्यक्तियों की संख्या का अध्ययन किया गया तो पता चला कि भारत के विभिन्न राज्यों के बीच मानसिक स्वास्थ्य शिक्षण संस्थानों के मामले में भी भारी असमानता है. यह समझ पाना बहुत मुश्किल है कि भारत में अलग-अलग राज्यों में 70 से 92 प्रतिशत मानसिक रोगियों को स्वास्थ्य सेवाएं हासिल ही नहीं हो पाती हैं,
इसके बावजूद मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए कमज़ोर प्रयास ही किये जा रहे हैं. मानकों के मुताबिक़ हर एक लाख की जनसँख्या पर कम से कम एक मनोचिकित्सक होना चाहिए, लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार भारत में एक लाख की जनसँख्या पर केवल 0.292 मनोचिकित्सक, 0.796 मनोस्वास्थ्य नर्स, 0.065 मनोस्वास्थ्य सामाजिक कार्यकर्ता और 0.069 मनोवैज्ञानिक ही मौजूद हैं.
भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए मानव संसाधन को प्रशिक्षित करने के लिए कुल 221 संस्थान हैं, जिनमें से 116 सरकारी और 105 निजी संस्थान हैं. अलग-अलग राज्यों में आवश्यक मानसिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं आवश्यकता के मान से देखा जाए तो दो तिहाई राज्यों में उनकी जरूरत को पूरा करने से नज़रिए से मानसिक स्वास्थ्य शिक्षण संस्थान और उनमें उपलब्ध सीटों की संख्या अपर्याप्त है. इस पहलू पर ध्यान नहीं दिए जाने के कारण मानसिक स्वास्थ्य देखरेख अधिनियम (2012), बच्चों के यौन उत्पीडन से बचाव का अधिनियम (2021), कार्य स्थल और घरों में महिलाओं के साथ हिंसा को नियंत्रित करने के लिए तय लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सकेगा. मानसिक स्वास्थ्य पर ठोस पहल न होने के कारण ही साम्प्रदायिकता और भीड़-हिंसा को सामान्य व्यवहार मान लिए जाने का संकट भी पैदा हो गया है, जबकि ये मनो-सामाजिक विकार हैं.
भारत के पांच राज्यों (छत्तीसगढ़, मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम) और चार अन्य केंद्र शासित प्रदेश में कोई मानसिक स्वास्थ्य शिक्षण संस्थान नहीं है,
दिसंबर 2019 की स्थिति में उत्तरप्रदेश में कुल 14 शिक्षण संस्थानों में मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा के लिए 51 सीटें उपलब्ध थीं, यानी एक लाख की जनसँख्या पर मात्र 0.022 स्थान. बिहार में तो हालात और ज्यादा खराब हैं. वहां कुल 3 शिक्षण संस्थान हैं मानसिक स्वास्थ्य पर पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा के लिए 3 ही स्थान उपलब्ध थे. गुजरात में 14 स्वास्थ्य शिक्षण संस्थानों में 45 स्थान थे. मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में क्रमशः 9 और 7 शिक्षण संस्थानों में 31 और 24 स्थान उपलब्ध थे.
इसके दूसरी तरफ महाराष्ट्र में 26 संस्थानों में 85, तमिलनाडु में 21 संस्थानों में 87, केरल में 18 संस्थानों में 56 कर्नाटक में 27 संस्थानों में 124 स्थान शिक्षण के लिए उपलब्ध थे. बेहतर स्थिति तभी मानी जा सकती है, जब एक लाख की जनसँख्या पर मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ की शिक्षा के लिए कम से कम 1 स्थान उपलब्ध हो. इस मान से मध्यप्रदेश को 37 गुना, बिहार को 400 गुना, गुजरात को 14 गुना, केरल को 6 गुना और तमिलनाडु को 9 गुना ज्यादा स्थान बढाने होंगे.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सचिन कुमार जैन, निदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.

Gulabi
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