सम्पादकीय

पूरे मॉनसून सत्र के बर्बादी की जिम्मेदारी कौन लेगा?

Tara Tandi
13 Aug 2021 1:15 PM GMT
पूरे मॉनसून सत्र के बर्बादी की जिम्मेदारी कौन लेगा?
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19 जुलाई से शुरू हुए मॉनसून सत्र को अपने निर्धारित समय से 2 दिन पहले ही बुधवार को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क |संयम श्रीवास्तव| 19 जुलाई से शुरू हुए मॉनसून सत्र को अपने निर्धारित समय से 2 दिन पहले ही बुधवार को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया. इस बीच पूरे मॉनसून सत्र में जहां लोकसभा में केवल 22 फ़ीसदी और राज्यसभा में महज 28 फ़ीसदी काम हुआ और बाकी का पूरा समय हंगामे की भेंट चढ़ गया. तीन कृषि कानून और पेगासस जासूसी कांड जैसे मामलों पर लगातार हो रहे हंगामों के बीच देश के वह मुद्दे कहीं गुम हो गए जिन पर संसद में एक सार्थक चर्चा होनी चाहिए थी. सोचिए कि 19 जुलाई 2021 से शुरू हुए मॉनसून सत्र के दौरान लोकसभा में 17 बैठकों में महज 21 घंटे 14 मिनट तक ही कामकाज हो पाया, जबकि 74 घंटे केवल हंगामा हुआ.

एक अनुमान के मुताबिक संसद के सत्र को चलाने के लिए हर मिनट लगभग ढाई लाख रुपए खर्च होते हैं. लोकसभा में 19 दिन कार्यवाही चलनी थी. वहीं दोनों सदनों को यानि राज्यसभा और लोकसभा को मिला दें तो तकरीबन 226 घंटे तक कामकाज होना था. जबकि कामकाज हुआ सिर्फ 50 घंटे, यानि दोनों सदनों के 176 घंटे बर्बाद गए. वहीं अगर इस दौरान संसद में करदाताओं के पैसों का कुल नुकसान देखें तो यह लगभग 133 करोड़ रुपए से अधिक का है. इस नुकसान पर केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने ठीक कहा की 'चर्चा चवन्नी खर्चा रुपैया.'

जाहिर सी बात है इस पूरे मॉनसून सत्र में जितना समय और पैसा बर्बाद हुआ, उसका 10 फ़ीसदी भी काम नहीं हुआ. अब सवाल उठता है कि आखिर इस नुकसान की भरपाई कौन करेगा और इस नुकसान का जिम्मेदार कौन है? क्या विपक्ष अपने सवालों को ठीक ढंग से संसद में नहीं उठा सकता था? क्या उसे हंगामा करना जरूरी था? इस हंगामे की वजह से जिनपर चर्चा होना चाहिए था (स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, रोजगार, सामाजिक) कल्याण जैसे मुद्दों पर सार्थक चर्चा नहीं हो पाई.

2024 की गोलबंदी की भेंट चढ़ गया मॉनसून सत्र

विपक्ष के हंगामे के पीछे केवल पेगासस जासूसी कांड और कृषि कानून ही नहीं थे. बल्कि उसके पीछे छुपी थी एक बड़ी राजनीतिक चाल. दरअसल विपक्ष इस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ एकजुट होने का प्रयास कर रहा है और यह मॉनसून सत्र उसके लिए एक जरिया बना. कांग्रेस नेता राहुल गांधी हों या फिर तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी, इन सभी का एक ही उद्देश्य था कि किसी भी हाल में सरकार के विरोध में विपक्ष को इसी मॉनसून सत्र के दौरान खड़ा कर लिया जाए. ताकि एक एकता भी बन जाए और देश में यह संदेश भी चला जाए कि विपक्ष एक साथ खड़ा है.

शायद यही वजह थी राहुल गांधी विपक्षी सांसदों को चाय पार्टी दे रहे थे और ममता बनर्जी दिल्ली आकर विपक्ष के नेताओं से मुलाकात कर रही थीं. जमीनी स्तर पर विपक्ष की एकता कितनी मजबूत बनेगी इस पर तो कुछ नहीं कहा जा सकता. लेकिन इस एकता को बनाने के लिए विपक्ष ने पूरे मॉनसून सत्र को हंगामे की भेंट चढ़ा दिया. यह पूरे देश के सामने है. हालांकि इस बीच ओबीसी बिल पर बड़े शांति से चर्चा हुई. इस चर्चा के दौरान लगा ही नहीं कि विपक्ष इससे पहले हंगामा भी कर रहा था. दरअसल यहां एक बड़े वर्ग के वोट बैंक का सवाल था, इसलिए पक्ष और विपक्ष दोनों ने शांतिपूर्ण तरीके से इस पर चर्चा कर ली. लेकिन जो मुद्दे वोट बैंक से सीधे प्रभावित नहीं होते उन पर खूब चिल्ला चोट मची.

राज्यसभा में भी हुआ जमकर हंगामा

लोकसभा की तरह राज्यसभा में भी खूब हंगामा देखने को मिला. हालांकि ओबीसी बिल पर यहां भी करीब 6 घंटे तक चर्चा चली और संविधान के 127वें संशोधन विधेयक को पारित कर दिया गया. लेकिन अन्य मुद्दों पर विपक्षी सांसदों ने खूब हंगामा किया. इस हंगामे को देखते हुए उपसभापति हरिवंश ने राज्यसभा को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करने की घोषणा कर दी. राज्यसभा में स्थिति तब बिगड़ी जब पेगासस जासूसी मामले पर सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री अश्वनी वैष्णव के हाथों से उनका बयान छीनने और उसे फाड़ने की तृणमूल के सांसद शांतनु सेन ने कोशिश की.

शांतनु सेन के इस रवैये के खिलाफ एक्शन लेते हुए उन्हें पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया. आंकड़ों के अनुसार समझें तो राज्यसभा में इस बार केवल 28 फ़ीसदी ही काम किया गया. मतलब की सिर्फ 28 घंटे 21 मिनट काम हुआ और 76 घंटे 26 मिनट बर्बाद हुए. हालांकि हंगामे के बीच 19 विधेयक पारित भी किए गए और 5 विधेयकों को पेश भी किया गया.

हंगामे की दीवार को संसद में पार कर गए ये विधेयक

जहां लोकसभा में मॉनसून सत्र के दौरान कई मुद्दे हंगामे की भेंट चढ़ गए. वहीं कुछ विधायक ऐसे भी रहे जो हंगामे की दीवार पार कर गए और उन्हें लोकसभा में मंजूरी मिल गई. लोकसभा ने अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित संविधान 127वां संशोधन विधेयक को मंजूरी दी, दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता संशोधन विधेयक 2021 को मंजूरी मिली, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और निकटवर्ती क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग विधेयक 2021 भी पारित हुआ. वहीं कराधान विधि संशोधन विधेयक 2021, अधिकरण सुधार विधेयक 2021, अनिवार्य रक्षा सेवा विधेयक 2021, राष्ट्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी उद्यमिता और प्रबंधन संस्थान विधेयक 2021, भारतीय विमानपत्तन आर्थिक विनियामक प्राधिकरण संशोधन विधेयक 2021, साधारण बीमा कारोबार राष्ट्रीयकरण संशोधन विधेयक 2021, केंद्रीय विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक 2021, राष्ट्रीय होम्योपैथी आयोग संशोधन विधेयक 2021, राष्ट्रीय भारतीय आयुर्विज्ञान प्रणाली आयोग संशोधन विधेयक 2021 एंव प्रत्यय गारंटी निगम संशोधन विधेयक 2021 और सीमित दायित्व भागीदार संशोधन विधेयक 2021 को इस पूरे हंगामे के बीच लोकसभा में मंजूरी मिल गई.

आक्रामक राजनीति की ओर बढ़ रहा है देश

जितना ज्यादा विपक्ष का हंगामा इस मॉनसून सत्र में दिखा, शायद इतिहास में इतना ज्यादा कभी नहीं देखा गया हो. इस देश में बड़े-बड़े घोटाले हुए हैं, बो फोर्स घोटाला, कोल घोटाला, 2जी स्कैम और न जाने कितने घोटाले. लेकिन इन सब पर विपक्ष ने संसद में इतना बड़ा हंगामा कभी नहीं किया कि संसद में अन्य मुद्दों को जगह ही ना मिले. इस देश ने चरम पर महंगाई भी देखी है, उसके लिए विपक्ष का हंगामा भी देखा है. लेकिन वह हंगामा इतना अमर्यादित और बड़ा नहीं होता था कि उसके पीछे देश की और समस्याएं जिन्हें संसद में उठाया जाना चाहिए, जिन पर चर्चा होनी चाहिए वह दम तोड़ दें.

बीते कुछ वर्षों में देश की राजनीति आक्रामकता की ओर बढ़ी है. चाहे मंचों से दिए गए भाषण हों या एक नेता के द्वारा दूसरे नेता पर पर्सनल अटैक. सब कुछ भारतीय राजनीति की बनाई मर्यादाओं को तोड़ता जा रहा है. शायद यही वजह है चुनाव जीतने और हारने के बाद अब हिंसा भी बढ़ने लगी है. पश्चिम बंगाल हमारे सामने एक जीता जागता उदाहरण है, जहां ममता बनर्जी के चुनाव जीतने के बाद विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं के साथ जो उपद्रव और हिंसा हुई उसका पूरा देश गवाह बना.

यह राजनीति हिंदुस्तान की उस राजनीति को कहीं ना कहीं चोट पहुंचाती है, जहां एक विपक्ष का नेता भरी संसद में देश की प्रधानमंत्री को दुर्गा स्वरूप कहता है. क्या आज यह संभव है कि देश के प्रधानमंत्री के किसी कार्य को विपक्ष का कोई नेता सराह भी दे. भारतीय राजनीति को इस आक्रामकता और हिंसा से बचाने का सारा दारोमदार नेताओं के ही कंधे पर है. उन्हें यह सोचना होगा कि आज वह जिस हिसाब की राजनीति का बीज बोकर जाएंगे, आने वाले समय में उनकी पीढ़ियों को वैसी ही फसल खड़ी मिलेगी.

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