सम्पादकीय

सिद्धू के बाद अब कौन?

Rani Sahu
29 Sep 2021 6:39 PM GMT
सिद्धू के बाद अब कौन?
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एक पुरानी कहावत है-‘हाथी पर बैठने के बावजूद कुछ काट लेता है

एक पुरानी कहावत है-'हाथी पर बैठने के बावजूद कुछ काट लेता है।' कांग्रेस के संदर्भ में यह कहावत सटीक है। हाथी और काटना प्रतीकात्मक हैं। कमोबेश पंजाब के संदर्भ में आसानी से समझा जा सकता है। बीती 28 सितंबर का दिन कांग्रेस आलाकमान के प्रति बग़ावत, उसे चुनौती देने का दिन था अथवा गौरव और उल्लास का दिन था! उल्लास का एहसास इसलिए माना जा सकता है, क्योंकि 'टुकड़े-टुकड़े गैंग' के छात्र नेता रहे कन्हैया कुमार कांग्रेस में शामिल हुए और गुजरात की वडगाम सीट से निर्दलीय विधायक एवं अंबेडकरवादी चेहरा जिग्नेश मेवाणी ने कांग्रेस के साथ राजनीति करने की घोषणा की। वह अभी औपचारिक कांग्रेसी नहीं बने हैं। शायद उन्हें बाबा अंबेडकर की नसीहत याद नहीं रही कि कांग्रेस से जुड़ना या उसमें शामिल होना 'आत्मघाती' है। कन्हैया ने लगभग आधा दर्जन बार दोहराया कि वह कांग्रेस के जहाज को बचाने पार्टी में शामिल हुए हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय पदाधिकारी बगल में खड़े यह दावा सुनते रहे और तालियां भी बजाईं। ये दोनों नौजवान चेहरे कांग्रेस को कितना बचा पाएंगे या अपनी ही राजनीतिक वैतरणी पार करना चाहेंगे, यह तो वक्त ही तय करेगा। कांग्रेस के लिए सबसे विश्वासघाती और अस्थिर पंजाब के प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ही साबित हुए हैं। उन्होंने पार्टी आलाकमान को विश्वास में लेने और जानकारी देने के बजाय अपना इस्तीफा सोशल मीडिया के जरिए सार्वजनिक किया। सिद्धू बीती 18 जुलाई को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए थे और 28 सितंबर को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। यह अस्थिरता की पराकाष्ठा नहीं, तो और क्या है? इतने से अंतराल में मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को बदला गया। नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी बनाए गए। नई कैबिनेट और नए नौकरशाह तय किए गए। पंजाब जैसे घोर संवेदनशील राज्य को नेतृत्व देने के दावे किए ही जा रहे थे कि सिद्धू ने आदतन सब कुछ ठोंक कर रख दिया। अंततः कैप्टन सही और सटीक साबित हुए। सिद्धू की फितरत ही अस्थिर है। अलबत्ता कोई ऐसे ठोस और वाजिब कारण नहीं थे कि सिद्धू को इस्तीफा देना पड़ा।

यह कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रति स्पष्ट बग़ावत है। आलाकमान को 'बौना' मानने की हिमाकत है। दरअसल एक बार फिर यह साबित हो गया कि कांग्रेस आलाकमान 'अनुभवहीन' है और उसे साथी नेताओं की पहचान ही नहीं है। चुनाव से 3-4 माह पहले कोई पार्टी अपने ही मुख्यमंत्री और सबसे कद्दावर नेता को खोने का जोखि़म उठा सकती है? यदि अब भी पार्टी नेतृत्व सिद्धू का इस्तीफा स्वीकार कर उन्हें हाशिए पर नहीं सरकाता, तो इससे घातक गलती कोई और नहीं हो सकती। नतीजतन फरवरी, 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की फजीहत को टालना मुश्किल होगा। इस्तीफों का नाटक सिद्धू तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि परगट सिंह और रजि़या सुल्ताना सरीखे मंत्रियों ने भी इस्तीफों की घोषणा की है। उन्हें मंत्रालयों का आवंटन 28 सितंबर को ही किया गया था। कई-कई विभाग सौंपे गए थे, लेकिन सिद्धू के वफादारों ने इस्तीफों का रास्ता चुना है। हालांकि संपादकीय लिखने तक न तो सिद्धू और न किसी और नेता-मंत्री का इस्तीफा मंजूर किया गया था, लेकिन ख़बर थी कि आलाकमान ने नए प्रदेश अध्यक्ष पर मंथन करना भी शुरू कर दिया है। हालांकि राहुल गांधी केरल के अपने चुनाव क्षेत्र में हैं और प्रियंका गांधी लखनऊ में हैं। इधर सिद्धू नेे वीडियो जारी कर अपना स्पष्टीकरण देने की कोशिश की है कि यह लड़ाई निजी नहीं है, यह जारी रहेगी। अब सिद्धू की लड़ाई मुख्यमंत्री चन्नी से है या नेतृत्व के खिलाफ है, जिन्होंने दागी चेहरों को जिम्मेदारियां देकर कैबिनेट तक में स्थान दिया है! सिद्धू लच्छेदार भाषा बोल लेते हैं, यही उनकी शख्सियत है। चुनाव सिर पर हैं। पंजाब फिलहाल कांग्रेस का गढ़ रहा है। फैसला कांग्रेस आलाकमान को लेना है कि गढ़ बचाए रखना है या लड़ाई जारी रखनी है।

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