सम्पादकीय

मेरी मां को किसने मारा?

Rani Sahu
24 July 2023 7:04 PM GMT
मेरी मां को किसने मारा?
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आप कहेंगे, मेरी किस्मत खराब थी, इसलिए जब मैं 21 साल की हुई तो मेरी मां इस दुनिया में नहीं रही। पहले मैं शमशानघाट की तरफ देखती भी नहीं थी, डरती थी, लेकिन मां को वहां पहुंचाने वालों ने मुझे भी उसकी चिता के करीब लाकर खड़ा कर दिया। भयंकर आग में उस दिन मेरी मां जल रही थी और एक आग मेरे सीने में जल रही थी। यह आग पूछ रही थी, ‘मेरी मां को किसने मारा?’ वह पेट की एक साधारण सी बीमारी से पीडि़त हुई थी। मेरे पिता जी उन्हें लगातार दो दिन धर्मशाला के क्षेत्रीय अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में ले जाते रहे, लेकिन वहां मिलती थी एक अदद ग्लूकोज की बोतल और फिर छुट्टी। उनके लिए मेरी मां सिर्फ एक असंवेदनशील डिस्चार्ज रिपोर्ट थी, इसलिए हर बार निपटा दी गई। अस्पताल की हुकूमत चलाने वालों का दिल इतना भी नहीं पसीजा कि एक बेटी की मां की अहमियत जान लेते। जान लेते कि हर मरीज के पीछे ढेरों रिश्ते, आंसू और आश्वासन होते हैं। जान लेते कि इमरजेंसी में मरीज शौकिया नहीं आते। जान लेते कि सरकारी अस्पताल की पर्चियां अगर अपंग हो जाएं, तो शमशानघाट आबाद हो जाते हैं। हमारे परिवार को सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर पूर्ण भरोसा था, इसलिए लगातार दो दिन जोनल हास्पीटल को मंदिर मानकर पूजते रहे। इसके पीछे सबसे बड़ा सिला बारह जुलाई की अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट ने यह दिया कि मेरी मां की आंतडिय़ां व पेट नार्मल है।
इसमें आश्चर्य नहीं था और भरोसे करने के लिए अस्पताल के रेडियोलॉजिस्ट का अनुभव और इसी अस्पताल में लगातार दो दशकों से उसके बने रहने का प्रमाणपत्र भी था। जाहिर है जिस डाक्टर को कमोबेश हर सरकार ने पिछले बीस सालों से धर्मशाला अस्पताल में ही काम करने की छूट दे रखी हो, उसके वजूद, उसकी पहुंच, उसकी क्षमता और उसकी दक्षता पर मरीज क्यों न विश्वास करें। हमने भी किया, लेकिन तीसरे दिन के बाद जब मां असहनीय स्थिति में पहुंच गई या हमें जब प्रतिकूल परिस्थितियों में एक निजी अस्पताल की शरण लेनी पड़ी, तो मालूम हुआ कि मामला इंटेस्टाइनल ऑबस्ट्रक्शन का था, जिसे धर्मशाला अस्पताल की वरिष्ठ रेडियोलॉजिस्ट ने ‘नार्मल’ प्रमाणित कर रखा था।
बिगड़ती हालत में मेरी मां का निजी अस्पताल में आप्रेशन तो सफल रहा, लेकिन सरकारी अस्पताल की एक रिपोर्ट ने जो •ाहर पेट में इकट्ठा कर दिया था, उसके लिए उसे मरना ही था। और वह मरी मेरे आंसुओं के नसीब में। मैं सरकार से यही पूछना चाहती हूं कि मेरी मां को एक गलत रिपोर्ट मार सकती है, तो एक सही रिपोर्ट बचा भी तो सकती थी। काश! मेरी मां धर्मशाला की वरिष्ठ डाक्टर के पास न गई होती। काश! सरकार ने ऐसी डाक्टर को समय रहते बदल दिया होता। काश! महिला डाक्टर को पता होता कि मरीज उसकी मजबूरी नहीं, प्रोफेशनल एथिक्स की एक गंभीरता है। मेरी मां तो मर गई, लेकिन मुझे मेरी मां से सदा-सदा के लिए दूर उस नालायक रिपोर्ट ने किया, जिसके साथ मौत का फरमान टंगा है। सरकार छानबीन करे, तो मेरी मां की अर्थी से पहले न जाने कितनी अर्थियां इसी तरह उठी होंगी, पता चल जाएगा, क्योंकि सरकारी अस्पतालों की इमरजेंसी में कोई न कोई डाक्टर पर्ची को आगे सरका रहा होता है।
कभी धर्मशाला अस्पताल हमीरपुर से ऊना तक के लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करता था, लेकिन अब ऐसे संस्थान केवल सरकारी नौकरी के अभयारण्य बन गए हैं। एक आसान सी ड्यूटी और प्रतिफल में लापरवाही का आलम यह कि अल्ट्रासाउंड जैसा आधारभूत निरीक्षण भी गुमराह करता रहा है। मेरे सामने अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट खंजर की तरह रक्तरंजित है और उस पर लिखा ‘नार्मल’ शब्द मेरे वजूद से मां को छीनकर कहीं खिल्ली उड़ा रहा है। मैं अब सिर्फ मां को याद करते हुए यही पश्चाताप करती रहूंगी कि आखिर हम उसे सरकारी अस्पताल क्यों ले गए। सरकार से अपील है कि भले ही मेरी मां मर गई, किसी और की मां इस तरह न मरे, कुछ तो ऐसा किया जाए। मैं अपनी तरह के बच्चों, अभिभावकों और समाज से अपील करती हूं कि सरकारी अस्पतालों के टेस्ट, एक्सरे, अल्ट्रासाउंड या अन्य परीक्षणों के बावजूद, यह न सोचें कि उनके कहे को ‘नार्मल’ मान लिया जाए। हमारे परिवार ने सरकारी अस्पताल के डाक्टर की रिपोर्ट पर संदेह किया होता, तो मां बच जाती। हमने विश्वास किया, तो मेरी मां के जीवन के साथ ‘विश्वासघात’ हो गया। मेरी मां तो चली गई, लेकिन सरकार इस विषय पर गौर करे, तो कई बच्चों के मां-बाप और सगे संबंधी ऐसी परिस्थिति से बच सकते हैं। और अंत में यही कह सकती हूं कि :
‘काश! उस दिन तुम देवता बन जाते
मां की सांसों की मरम्मत कर जाते।’
अनन्या
स्वतंत्र लेखिका
By: divyahimachal
Rani Sahu

Rani Sahu

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