सम्पादकीय

जिम्‍मेवार कौन?

Subhi
18 Aug 2021 3:38 AM GMT
जिम्‍मेवार कौन?
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काबुल हवाई अड्डे की तस्वीरें देख कर लोगों में फैले खौफ का अंदाजा लगा पाना मुश्किल नहीं है।

काबुल हवाई अड्डे की तस्वीरें देख कर लोगों में फैले खौफ का अंदाजा लगा पाना मुश्किल नहीं है। न सिर्फ दूसरे मुल्कों के नागरिक बल्कि अफगानी भी जान बचा कर भाग रहे हैं। इससे यह तो साफ हो चला है कि आने वाले दिनों में इस मुल्क की तस्वीर कैसी बनने वाली है। अराजकता के इस माहौल में देश-दुनिया में एक बड़ा सवाल यह भी उठ रहा है कि अफगानिस्तान की इस हालत के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है। क्या इसका दोषी अमेरिका को माना जाए, जो यहां से पिंड छुड़ा कर भाग निकला। या फिर देश छोड़ कर भागे राष्ट्रपति अशरफ गनी को माना जाए, जो जनता को उसके हाल पर छोड़ कर बच निकले या फिर तालिबान को जिसने बड़ी आसानी से निर्वाचित सरकार को चलता कर दिया? इस सवाल पर सबके अपने-अपने तर्क और विचार हो सकते हैं। वैसे सरसरी तौर पर देखें तो अफगान संकट के लिए अमेरिकी नीतियां ही ज्यादा जिम्मेदार जान पड़ती हैं।

काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के बयान हैरान करने वाले हैं। बाइडेन ताल ठोक कर कह रहे हैं कि वे अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को हटाने के अपने फैसले पर अडिग हैं और उन्हें इस पर कोई पछतावा नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि इस वक्त अफगानिस्तान जिस हालात से गुजर रहा है उसके लिए अशरफ गनी ही जिम्मेदार हैं। हालांकि अभी यह बात समझ से परे ही है कि बाइडेन ने क्या सोच कर यह कहा और ठीकरा गनी के सर फोड़ दिया। दरअसल अमेरिका की तो नीति ही यह रही है कि मौका पाकर दूसरे देशों में जाल बिछाया जाए और जब हित पूरे हो जाएं तो वहां से निकल लें। वियतनाम में उन्नीस साल तक लड़ने के बाद आखिरकार अमेरिका ने हथियार समेटे और भाग निकला। यही इराक में भी हो रहा है। वहां से भी वह अफगानिस्तान की तरह वापसी की तैयारी में है। लेकिन अमेरिकी नीतियों ने इराक को तबाह करके रख दिया। इसी तरह नब्बे के दशक में अमेरिका सोमालिया से मानवीय मदद के मिशन को बीच में छोड़ कर चला गया था, क्योंकि सोमालियाई विद्रोहियों से अमेरिकी सैनिक निपट नहीं पा रहे थे।
अमेरिका ने पिछले दो दशकों में अफगान मिशन पर अरबों डालर फूंके। लंबे समय से वह तालिबान का सफाया करने और अफगान सैनिकों को प्रशिक्षण देने का दावा भी करता रहा। लेकिन उसके ये दावे अब असलियत बयां कर रहे हैं। आज के हालात देख कर तो अब यह भी कहा जा रहा है कि आतंकवाद से निपटने के नाम पर अमेरिका दुनिया की आंखों में धूल झोंकता रहा। क्या अमेरिका बीस साल में तालिबान का सफाया कर पाया? अफगान सैनिकों को उसने ऐसा कैसा प्रशिक्षण दिया कि वे तालिबान के सामने जरा नहीं टिक पाए और तालिबान बिना किसी प्रतिरोध के देश पर कब्जा करता चला गया? इसमें कोई शक नहीं कि तालिबान के हमलों में अपने सैनिकों के मारे जाने से परेशान अमेरिका किसी भी तरह से यहां से निकलना चाह रहा था, और वह निकल भी गया। आज भी उसकी चिंता काबुल के नागरिकों की नहीं, बल्कि अफगानिस्तान में फंसे अमेरिकियों और उसके समर्थकों की है। इसीलिए उसने काबुल हवाई अड्डे पर छह हजार सैनिक तैनात कर दिए। इसीलिए कहा जाता रहा है कि अमेरिका अपने हितों के लिए पहले आतंकी संगठन खड़े करता है और फिर जब वे उसके लिए सरदर्द बन जाते हैं तो उनके सफाए के नाम पर दूसरे देशों में सैन्य अभियान चलाता है जो मुल्कों की तबाही का कारण बनते हैं। लगता है आज का अफगानिस्तान भी यही सबकुछ झेल रहा है।


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