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By: divyahimachal
हिमाचल में चुनाव घोषित होते ही उम्मीदवारों की तख्तियों की छीनाझपटी शुरू हो गई। सोशल मीडिया के तर्क गमछा ले कर निकल पड़े और अपनी हरारत छुपाती राजनीति पसीना पोंछने लगी। उम्मीदवारों की सूचियों में मतदाता की देनदारी स्पष्ट होने लगी या प्रत्याशियों को ढोने की जिम्मेदारी फिर गले पड़ रही है। कम से कम चर्चाओं में चटक वजूद लिए नेता भी महफिल को बदरंग करने में शायद ही कमतर साबित होंगे। टिकटों के सियापे हमें शर्मिंदा कर रहे हैं और बदले हुए घर में बैठे दलबदलुओं के नक्षत्र तंग कर रहे हैं। अजीब सा मूड है जनता का जिसे कुछ टीवी चैनल इतना सूंघ गए कि सत्ता की तरकारी अब एंकरों की थाली में परोसी जाने लगी। इस बार राष्ट्रीय टीवी चैनल यकीनन हारेंगे, क्योंकि हिमाचल में मीडिया का एक पक्ष निष्पक्ष रहेगा। डिजिटल मीडिया के अनियंत्रित वजूद और व्यवहार के बावजूद, किसी माइक आईडी के पीछे कोई तो स्वतंत्र व निष्पक्ष खड़ा होगा। कांग्रेस की जंग अपना समय पूरा कर चुकी है और टिकट चयन प्रक्रिया का निचोड़ सारे पर्दे हटा रहा है, लेकिन भाजपा के घूंघट के पीछे कितने आज्ञाकारी चेहरे सामने आएंगे, इसे लेकर ऊहापोह का समुद्र और वहीं चरित्र का ठहराव देखा जाएगा। कौन बेहतर, कौन भारी और कितने ताजा उम्मीदवारों से शुरू होगी पारी, इसका कोई मूल सिद्धांत दिखाई नहीं देता। कांग्रेस का उदयपुर सम्मेलन अपनी चिमटी से चिराग पकड़ते-पकड़ते अंगुलियां जलाने के बाद समझ गया कि पार्टी को फिलहाल अपनी पुरानी फौज को ही बचाना है, तो अधिकांश चेहरे वही हैं जो आलाकमान की दरगाह से निकलतेे रहे हैं।
यकीनन कांग्रेस को भाजपा के इस ऐतराज का कोई असर नहीं कि राजनीति में परिवार स्थापित नहीं होने चाहिएं। यह दीगर है कि भाजपा के पुत्रों, पोत्रों और बेटियों-बहुओं के साथ ऐसा सलूक क्यों हो, इसलिए सोलह आने का सवाल तो अनिल शर्मा या उनके बेटे आश्रय शर्मा को लेकर रहेगा। भाजपा की आशा में आश्रय पाए कई पूर्व कांग्रेसी नेताओं को टिकट मिलता है, तो शगुन अच्छा है वरना शकुनी ढूंढते ये नेता फिर कहीं घर बसाएंगे। प्रकाश राणा व होशियार सिंह को क्या भाजपा सीने से लगाएगी या इनकी छाती पर मूंग दले जाएंगे। वैसे भाजपा दिलेर है और ऐसी छातियों पर मूंग दल सकती है। भय यह और मुकाबला भी यही कि किस पार्टी में उम्मीदवारी के खोटे सिक्के आगे नहीं चल पाते, वरना आग तो दोनों तरफ लगी है। जाहिर है विस्फोट होंगे और बाहर का रास्ता नापते ये तथाकथित ठुकराए हुए नेता कितने 'आजाद' हो पाते हैं या विरोधी पक्ष की मुराद पूरी करते हैं। जो भी हो पार्टियों के भीतर इंकलाब ज़ेहन में है और जरूरत यह है कि फौजें अनुशासित रहें। मजबूरी तो मतदाता की इसलिए है कि उसे हर सूरत किसी एक को कबूल करना है, भले ही दिल लानत भेजे या परिस्थितियां कबूल न करें। एक बार फिर उम्मीदवारों की नुमाइश में हिमाचल की विरासत हारेगी या स्वार्थ जीतेगा। कोई मतदाता किसी को हराने, किसी पार्टी को ठुकराने में विरोधी मतदान करेगा, तो कोई अपनी जाति के झंडे पर फिदा हो जाएगा। बुद्धिजीवियों का यह प्रदेश कितनी बुद्धि और विवेक से उम्मीदवारों के बीच सही और गलत का इंतखाब कर पाएगा।
आखिर राजनीतिक चयन के वर्तमान दौर में हमारी पसंद के लिए है भी क्या। राजनीति के वर्तमान में समाज-संस्कृति और बौद्धिक पक्ष को देखता ही कौन है। क्या आज के उम्मीदवार कल जीत कर कुशल अर्थ शास्त्री हो जाएंगे। क्या किसी एक उम्मीदवार की जीत से पूरा प्रदेश क्षेत्रवाद से बच जाएगा। क्या इनकी जीत से सुशासन को गारंटी मिल जाएगी। आज राजनीति खुद भूसा है और तूड़ी के ट्रक से हम यह अपेक्षा कर रहे हैं कि इससे निकल कर कोई उम्मीदवार प्रदेश के सरोकार बदल देगा। हो सकता है सरकार विरोधी लहरें सत्ता पक्ष की खानाखराबी कर दें, लेकिन तब कौन सा ऐसा साहसिक कदम उठाया जा सकेगा जो हिमाचल को आत्मनिर्भर तथा खजाने को कर्जमुक्त कर देगा। जरा अपने नजदीक खड़े हो रहे उम्मीदवारों को ध्यान से देखें कि वे आपकी अपनी पढ़ी-लिखी बेरोजगार औलाद से बेहतर क्यों माने जा रहे। देखें कि उम्मीदवारों के जीत के समीकरण उनकी योग्यता, दक्षता और क्षमता के बजाय ऐसे क्यों हो गए जो केवल 'विनेबिलटी' के नारे पर एक नया हुजूम खड़ा करने की कोशिश है। कल हम भी किसी के लिए एक हुजूम में शामिल हो जाएंगे, लेकिन लोकतंत्र का घटाटोप हमारे नजदीक ही खड़ा है, किसी न किसी सियासी हस्ती के रूप में।
Rani Sahu
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