सम्पादकीय

कोरोना महामारी के चार संभावित कसूरवार कौन? चीन के साथ अमेरिका भी घेरे में?

Gulabi
20 May 2021 4:12 PM GMT
कोरोना महामारी के चार संभावित कसूरवार कौन? चीन के साथ अमेरिका भी घेरे में?
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कोरोना महामारी

मानव-निर्मित आपदा या प्राकृतिक प्रकोप? कोरोना महामारी के स्रोत पर इस सवाल के चारों ओर पिछले 18 महीने से बहस जारी है. जबकि जालिम वायरस हर रोज हजारों लोगों को अपना शिकार बना रहा है. एक-दो नहीं, ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब अब तक सामने नहीं आए. तर्कपूर्ण साक्ष्यों के अभाव में जहां एक बार फिर वायरस के लैब से लीक होने की आशंका गहरी होती जा रही है, विषाणुओं के अप्रत्याशित संरचना और स्वरूप को आधार बनाकर इस भयावह महामारी को प्राकृतिक आपदा साबित करने की कोशिश भी लगातार जारी है. सवाल यह है कि असमंजस की यह स्थिति आखिर कब खत्म होगी? क्या कोविड-19 का सच हमेशा के लिए भविष्य के गर्त में छिप गया है या अब भी हकीकत सामने आने की कोई उम्मीद बाकी है? क्या वाकई कोई इंसानी गलती हुई और हुई तो कहां और किससे हुई? अगर ऐसा है तो दुनिया पर कोरोना के इस कहर के कसूरवार कौन हो सकते हैं?

अपने विस्तृत लेख के रिए इन सवालों को सामने लाने वाले ब्रिटिश पत्रकार और लेखक निकोलस वेड कुछ इस तरह से अपनी राय सामने रखते हैं. उनके मुताबिक सार्वजनिक दस्तावेजों से यह साफ हो चुका है कि चीन के वुहान लैब में गेन-ऑफ-फंक्शन के प्रयोग चल रहे थे, जिसमें कोरोना वायरस की बनावट में फेरबदल कर ह्यूमनाइज्ड चूहों को संक्रमित कराया जा रहा था. रिसर्च के जरिए मानव कोशिकाओं पर वायरस के असर का अध्ययन किया जा रहा था. संदेह है कि इसी क्रम में घातक कोविड वायरस का निर्माण हो गया. जबकि इससे बचाव के लिए वैक्सीन मौजूद नहीं होने की वजह से रिसर्चर्स के भी संक्रमित होने की पूरी संभावना रही होगी. ध्यान देने की बात यह है कि सभी प्रयोग कम सेफ्टी वाले BSL2 लैब में हो रहे थे.
18 महीने से जारी बहस का नतीजा आखिर कब तक?
निकोलस वेड मानते है कि अगर हालात ऐसे थे तो वायरस का लीक होना कोई हैरान करने वाली घटना नहीं थी. हो सकता है ह्यूमनाइज्ड चूहों पर लगातार प्रयोग की वजह से ही कोविड वायरस इंसानी कोशिकाओं पर हमले के लिए पूरी तरह तैयार था. वायरस में फ्यूरिन क्लीवेज साइट और आर्जिनाइन कोडोन की मौजूदगी से लगता है कि इसे लैब में ही तैयार किया गया, क्योंकि पहले कभी भी बीटा-कोरोनावायरस में यह दोनों नहीं पाए गए. प्रयोग के दौरान लैब में दर्ज किए गए कागजातों से सच्चाई सामने आ सकती थी, लेकिन सारे दस्तावेज नदारद हैं.
जो कोविड वायरस की उत्पत्ति को नेचुरल बताते हैं वो वायरस की बदलती प्रकृति के अलावा कोई ठोस साक्ष्य नहीं दे पाते. जबकि अब तक न तो चमगादड़ की उस प्रजाति का पता लग सका है जिसमें कोविड वायरस के जन्म का दावा किया जा रहा है, न ही उस होस्ट जानवर को ढूंढा जा सकता है जिससे वायरस इंसानों में फैल गए. गौरतलब है कि इस खोज में चीन में करीब 80,000 से ज्यादा जानवरों की जांच हो चुकी है. जबकि सार्स और मर्स महामारी की जांच में ऐसी कोई परेशानी नहीं आई थी. उस वक्त वायरस के बैट और होस्ट से इंसानों में आने के सिरोलॉजिकल एविडेंस भी मिल गए थे. लेकिन इस बार चीनी जांचकर्ता इसमें भी नाकाम रहे.
कोरोना वायरस का सच सामने आने में अभी वक्त लग सकता है. लेकिन दुनिया को दोबारा ऐसी महामारी नहीं झेलनी पड़े. इसके लिए हमारी तैयारियों और खामियों का आकलन जरूरी हो गया है. क्या वायरोलॉजिस्ट्स को गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च की इजाजत मिलनी चाहिए? क्या वायरस लीक के खतरे और सुरक्षा एहतियातों की कमी को नजरअंदाज करना पूरे विश्व पर भारी पड़ गया. लेखक निकोलस वेड की राय में इस पूरे प्रकरण में चार ऐसे किरदार नजर आते हैं जिनसे चूक जरूर हुई है.
कोरोना के संभावित कसूरवार
नंबर 1: चीनी वायरोलॉजिस्ट्स
पहली नजर में, चीनी वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी गलती थी प्रयोग के दौरान बायोसेफ्टी को लेकर लापरवाह होना. सार्वजनिक दस्तावेजों से जाहिर है कि BSL3 लेवल की प्रयोगशाला मौजूद होने के बाद भी चीनी वायरोलॉजिस्ट BSL2 श्रेणी की लैब में रिसर्च कर रहे थे, जबकि वहां घातक वायरस के संक्रमण को रोकना बेहद मुश्किल होता है. अगर 34 लाख से ज्यादा लोगों की जान लेने वाला वायरस वुहान के लैब से लीक हुआ तो खतरा मोलने वाले ये वैज्ञानिक पूरी दुनिया की घोर निंदा के पात्र हैं.
यह सच है कि डॉ. शी झेंगली ने वायरोलॉजी की ट्रेनिंग फ्रांस के वैज्ञानिकों से ली थी. उनके पास अमेरिका के विषाणु विशेषज्ञों के साथ काम करने का अनुभव था. लेकिन वुहान के लैब में किसी भी जोखिम के आकलन में कमी और वहां होने वाली गतिविधियों की जिम्मेदारी हर हाल में शी और उनकी टीम को ही लेनी होगी. हो सकता है कोरोना वायरस के विरुद्ध वैक्सीन बनाने के क्रम में यह प्रयोग वुहान के किसी दूसरे प्रयोगशाला में हो रहे हों. लेकिन जब तक तस्वीरें साफ नहीं हो जाती, चीन में कोरोना वायरस पर होने वाले रिसर्च का प्रमुख चेहरा होने की वजह से आलोचना भी डॉ. शी को ही झेलनी पड़ेगी.
कोरोना के संभावित कसूरवार
नंबर 2: चीनी अधिकारी
इसमें कोई दो राय नहीं कि चीनी अधिकारियों ने कोरोना वायरस नहीं तैयार किया. लेकिन महामारी की त्रासदी और जिम्मेदारी छिपाने की हरसंभव कोशिश चीनी अधिकारियों ने जरूर की. वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के सारे दस्तावेज और वायरस से जुड़े सभी डेटाबेस दबा दिए गए. जो थोड़ी बहुत जानकारी दुनिया के सामने रखी गई वो गलत या गुमराह करने की कोशिश भी हो सकती है. चीनी अधिकारियों ने वायरस के स्रोत को लेकर WHO की जांच को भी प्रभावित करने की पूरी कोशिश की. जिसकी वजह से WHO की टीम किसी नतीजे तक पहुंचने में नाकाम रही. हैरानी की बात यह है कि चीनी अधिकारी दूसरी महामारी को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाने के बजाय आज भी अपने ऊपर लगे आरोपों को इधर-उधर मोड़ने में व्यस्त हैं.
कोरोना के संभावित कसूरवार
नंबर 3: विश्व के तमाम वायरोलॉजिस्ट्स
निकोलस वेड के मुताबिक दुनिया भर के विषाणु विशेषज्ञ एक दूसरे को काफी करीब से जानते हैं. वो एक तरह के जर्नल में लिखते हैं. एक तरह के कॉन्फ्रेंस में शामिल होते हैं. सरकारों से रिसर्च के लिए फंड हासिल करने और सेफ्टी मानकों से खुद को दूर रखने में भी उनकी समान रुचि होती है. वेड के मुताबिक गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च से होने वाले खतरों के बारे में वायरोलॉजिस्ट्स से बेहतर कौन जान सकता है. लेकिन नया वायरस तैयार करने का जोश और इसके जरिए हासिल होने वाली फंडिंग की संभावना काफी लुभावनी होती है. इसलिए 2014 में जब गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च के लिए दी जाने वाली फंडिंग पर अमेरिकी सरकार ने रोक लगा दी तो पूरी दुनिया के विषाणु विशेषज्ञ विरोध में एकजुट हो गए. जिसके बाद 2017 में यह रोक हटा ली गई.
गौर करने की बात यह है कि तमाम दावों के बावजूद गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च से आज तक किसी महामारी को रोकने में कोई मदद नहीं मिली है, उल्टा इससे बीमारी फैलने का खतरा हमेशा से रहा है. अगर सार्स और मर्स वायरस पर प्रयोग सिर्फ BSL3 लैब में होने चाहिए तो नोवल कोरोना वायरस पर BSL2 लैब में एक्सपेरिमेंट की इजाजत क्यों दी गई? कोविड वायरस लैब से लीक हुए या नहीं यह अलग बात है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि दुनिया भर के वायरोलॉजिस्ट्स आग से खेल रहे थे.
निकोलस वेड के मुताबिक विषाणु वैज्ञानिकों की गतिविधियां पहले भी दूसरे जीव वैज्ञानिकों को अलार्म कर चुकी है. 2014 में कैम्ब्रिज वर्किंग ग्रुप के वैज्ञानिकों ने लैब में वायरस बनाने के खतरों के खिलाफ आवाज उठाई थी. Molecular Biologists ने जब एक से दूसरे जीव में जीन्स स्थानांतरित करने की तकनीक ईजाद की तो 1975 में उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर इससे जुड़े खतरों से दुनिया को अवगत कराया था. जब जीन्स के साथ कांट-छांट करने की CRISPR तकनीक सामने आई तो अमेरिका, ब्रिटेन और चीन के जीव वैज्ञानिकों ने मानव जीनोम के साथ छेड़छाड़ में सावधानी बरतने की अपील की थी.
चिंता इस बात की है कि कोविड महामारी के बाद भी वैज्ञानिक ऐसे रिसर्च से होने वाले नफा-नुकसान का आकलन करने से बच रहे हैं. निकोलस वेड के मुताबिक इनमें से कुछ तो वायरस के लीक होने की संभावना को खारिज कर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ ले रहे हैं, लेकिन बाकी कई वैज्ञानिक अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने से बच रहे हैं. फिलहाल चीन की चुप्पी को ढाल बनाकर सभी वायरोलॉजिस्ट्स महामारी के खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं. लेकिन समय की मांग यह है कि विषाणु वैज्ञानिक अगर खुद को रेगुलेट करने में कोताही बरतते हैं तो किसी और को यह जिम्मेदारी उठानी होगी.
कोरोना के संभावित कसूरवार
नंबर 4: वुहान लैब को अमेरिकी फंडिंग
जून 2014 से लेकर मई 2019 तक डॉ. पीटर डास्जैक की संस्था को वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के साथ गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च के लिए अमेरिकी संस्थान की तरफ से फंड मुहैया कराया गया था. प्रयोग में वैज्ञानिक कोविड वायरस बनाने में कामयाब हुए या नहीं इस बहस को किनारे कर दें तो भी कम सुरक्षा उपायों के बीच विदेशी लैब में ऐसे हाई-रिस्क रिसर्च की इजाजत देना अमेरिकी नीति पर सवाल खड़े करता है. अगर कोविड वायरस वाकई इस लैब से लीक हुए तो इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिकी संस्थान की यही पॉलिसी उनके 6 लाख नागरिकों की मौत की वजह बन गई. निकोलस वेड के मुताबिक हैरानी की बात यह भी है कि शुरुआत में – 2014 से 2017 के बीच – अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इन्फेक्शस डिजीज (NIAID) और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (NIH) ने वुहान लैब को यह फंडिंग देश में लगी रोक के बावजूद की थी.
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