सम्पादकीय

सफेद हाथी और गोबर

Gulabi
28 Sep 2021 5:18 AM GMT
सफेद हाथी और गोबर
x
कुछ कहावतें आम आदमी के जीवन में उतना ही महत्व रखती हैं, जितना इस धरती पर उसका अस्तित्व

कुछ कहावतें आम आदमी के जीवन में उतना ही महत्व रखती हैं, जितना इस धरती पर उसका अस्तित्व। आम आदमी का महत्व कितना महत्वपूर्ण है यह तो उसकी भलाई के नाम से बनी योजनाओं के क्रियान्वयन से जगज़ाहिर है। ऐसी ही दो कहावतें हैं, 'अगर हाथी पालने हों तो दरवाज़े ऊँचे रखने चाहिए' और 'स़फेद हाथी'। अब जिसे हाथी पालने का शौ़क होगा, वह अपने दरवाज़े तो अवश्य ऊँचे रखेगा। लेकिन स़फेद हाथी कभी नहीं पालना चाहेगा। यह काम तो केवल सरकारें ही कर सकती हंै, वह भी आज़ाद भारत की। ऐसी सरकार इसीलिए लोकतांत्रिक और जन कल्याणकारी कहलाती है क्योंकि वह पालती ही स़फेद हाथी है। स़फेद हाथी पालने वाली परियोजनाओं से सरकार के चेले-चमट्टों को मु़फ्त की रोटियां तोड़ने के मौ़के के अलावा महावतों और उनके सरदारों को घूस, दलाली (सभ्य शब्दों में कमीशन) एवं कई प्रकार की सुविधाएं मिलती रहती हैं। सरकार द्वारा पाले गए अधिकतर स़फेद हाथी जब तक सरकार के आँगन में बँधे रहते हैं, खाने के अलावा सि़र्फ गोबर ही करते नज़र आते हैं। जब इन हाथियों के बरसों के गोबर के ढेर बदबू मारने लगते हैं तो सरकारों को नए स़फेद हाथी बाँधने का बहाना मिल जाता है।

फिर नए और पुराने हाथी, दोनों मिलकर गोबर के नए-नए ढेर लगाते रहते हैं। लेकिन सरकार द्वारा गोबर के इन ढेरों से फैलती बदबू को रोकने और उन्हें सा़फ करने के नाम पर आम आदमी की ़िकस्मत में टैक्स रूपी गोबर के ढेरों में दबना ही लिखा है। फिर चाहे सदियों पुरानी धनानंद की सरकार हो या समाजवादी, साम्यवादी या आत्मनिर्भर भारत के नारों वाली सरकारें, सशक्त और आत्मनिर्भर भारत के नाम पर कभी ़गरीबी हटाने तो कभी नसबंदी, कभी शिक्षा तो कभी स्वास्थ्य, कभी रोज़गार तो कभी शक्तिशाली राष्ट्र निर्माण, कभी आदिवासी क्षेत्रों में उद्योग-रोज़गार तो कभी पहाड़ी इला़कों में बिजली-पर्यटन, कभी सुफला तो कभी उज्जवला, कभी काले धन पर रोक तो कभी जीएसटी जैसे स़फेद हाथियों वाले उपक्रम बराबर जारी रखे रहती हैं। आम आदमी इन गोबर के ढेरों के नीचे पहली और अंतिम साँस लेने तक टैक्स के बोझ से बराबर दबा रहता है। ऐसा नहीं है कि सरकार को गोबर के ढेरों के नीचे दबे आम आदमी की चिंता नहीं। उसे तो चौबीस घंटे आम आदमी की ही चिंता सताती रहती है।
इसीलिए आज़ादी के बाद से ही विभिन्न सरकारों के प्रधानमंत्री कभी नए सूट-बूट में गुलाब का फूल लगा कर तो कभी करोड़ों के उड़ने वाले स्पेशल बोइंग महाराजा में उड़ कर विदेशों में सहायता की भीख माँगते आ रहे हैं। भीख के ये नए दरवाज़े देश में नए स़फेद हाथी पालने वाली परियोजनाओं के नाम पर ही खुलते हैं। हाँ, हर बार देश के विकास के नाम पर इन हाथियों के परिधान बदलते रहते हैं। लेकिन आम आदमी की चिंता में हर क्षण दुबली होती सरकारें नए-नए स़फेद हाथी पालने का उपक्रम जारी रखती हैं। केवल सरकारें ही नहीं, तमाम राजनीतिक पार्टियाँ मिलकर अपने-अपने चुनावी घोषणा-पत्रों में नए-नए स़फेद हाथी पालने के ऐलान करती रहती हैं। बेचारे आम आदमी की ़िकस्मत में केवल तालियाँ पीटना ही लिखा है। वह नए और पुराने, दोनों ़िकस्म के हाथियों के बँधने और खुलने पर तालियाँ पीटता नज़र आता है। भूले-भटके से जो स़फेद हाथी एक सरकार के कार्यकाल में रत्नों की श्रेणी में आते हैं, दूसरी सरकार के आते ही विकास के नाम पर धन जुटाने का ज़रिया बन जाते हैं। हाल में ही आत्मनिर्भर भारत सरकार ने कई पुराने हाथियों को बेचना आरंभ किया है। लेकिन कुछ हाथी सालों से बिकने में नहीं आ रहे। दरअसल इन हाथियों ने दशकों से गोबर के इतने-इतने बडे़-बड़े ढेर लगा दिए हैं कि वे खुद ही उसमें दब गए हैं। लेकिन बिकने के बाद ये हाथी निजी क्षेत्र में आते ही गोबर करने की बजाय इत्र फेरना शुरू कर देते हैं।

पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं
Next Story