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शब्दकोश में ट्रोल करने का अर्थ ‘मुक्त कंठ से गीत गाना’ या ‘मछली मारना’ भी होता है
जयप्रकाश चौकसे। शब्दकोश में ट्रोल करने का अर्थ 'मुक्त कंठ से गीत गाना' या 'मछली मारना' भी होता है। गोया कि फिल्म मेकर राजकुमार हिरानी की फिल्म 'पीके' के एक दृश्य में अनुष्का शर्मा अभिनीत पात्र को गलत नंबर पर बार-बार फोन आता है, तो वह तंग आकर उस फोन करने वाले से कहती है कि 'जिस बीमार का हाल जानने के लिए आप फोन कर रहे हैं वह तो मर गया।'
आमिर अभिनीत पात्र उससे पूछता है कि यह उसने क्या किया? तो अनुष्का अभिनीत पात्र की तरफ से जवाब आता है कि वह उसकी 'फिरकी' ले रही थी। फिरकी लेने का अर्थ ट्रोल करना ही होता है। भ्रम फैलाने को भी ट्रोल करना ही कहते हैं। गौरतलब है कि लेखिका स्वाति चतुर्वेदी ने 'आई एम ए ट्रोल' नामक एक किताब लिखी है। विगत समय में राजनीतिक क्षेत्र में ट्रोलिंग एक हथियार की तरह इस्तेमाल हो रही है। साथ ही यह चहेतों की प्रशंसा में मुक्त कंठ से गीत गाने की तरह भी हो गई है।
बहरहाल, राजनीतिक दलों ने ट्रोल को प्रचार के साथ, विरोधी की चारित्रिक हत्या का शस्त्र भी बना दिया है। वे इसे अपनी डिजिटल फौज कहते हैं। कुछ लोगों का विचार है कि यह अस्त्र अब पलटवार कर रहा है अर्थात चलाने वाले को ही नुकसान पहुंचा रहा है। ट्रोल के माध्यम से जातिगत हिंसा भी फैलाई जा रही है।
गौरतलब है कि थाईलैंड में एक छोटी सी बस्ती है 'बुरी' अगर भूगोल का नक्शा उठा कर देखें तो इस 'बुरी' नामक बिंदु को मैग्नीफाइंग ग्लास से देखना होगा। दरअसल इस जगह से ट्वीट किए जाते हैं, ट्रोलिंग की जाती है। माताहरी जैसी परिपक्व जासूस भी इस जगह को खोज नहीं सकती। खबर है कि इनको भुगतान भी हांगकांग के बैंक के मार्फत होता है।
एक भारतीय पत्रकार को अनजाने मोबाइल से कभी अपशब्द कहे जाते थे। एक दिन दुस्साहस करके फोन करने वाला अपने 'शिकार' के घर जा पहुंचा। पत्रकार के पुत्र ने उसे थप्पड़ मारा तो उसने रोते हुए राज उगला कि हर माह उसे पत्रकारों के नाम, पते भेजे जाते हैं और मासिक वेतन भी उसी पत्र के साथ आता है।
यही उसकी रोजी-रोटी है अत: बेरोजगारी के मुद्दे को उठाने वाले नहीं जानते कि इस तरह से भी रोजगार मिल रहा है। हालात ये हैं कि ट्रोल के कारण किसी मासूम शिकार का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। अनजाने मोबाइल से कहे गए अपशब्द सुनने वाले को तीरों की तरह लगते हैं। अत: पत्रकार, भीष्म पितामह की तरह तीरों की शय्या पर लेटा है।
ट्रोल को एक तरह की भड़ास निकालना भी माना जा सकता है परंतु उसके द्वारा सत्ता के लिए किया जा रहा प्रचार उसे एक शस्त्र का स्वरूप दे रहा है। क्या ट्रोल करने को प्रेशर कुकर में लगा सेफ्टी वॉल्व मान लें? इस प्रेशर कुकर में पकाई जाने वाली चीज भी डी.डी.टी पाउडर डालकर खेत में उपजाई सब्जी की तरह हानिकारक हो सकती है।
ट्रोल करते-करते मौलिक लेखन कार्य में असफल व्यक्ति को अपने पत्रकार होने का भ्रम हो जाता है। हम सब धीरे-धीरे इसके अभ्यस्त होते जा रहे हैं और वैचारिक संकीर्णता को स्वीकार करते हुए इसे अपना भी रहे हैं। विचारणीय यह है कि हमारी पीढ़ी तो जैसे-तैसे गुजर जाएगी परंतु आने वाली पीढ़ी कैसी होगी? क्या वह हमारा श्राद्ध करेगी या मृत्यु दिवस पर फातिहा पढ़ेगी?
धीरे-धीरे वर्तमान के सामाजिक हालात का विवरण देने वाले, कथा वाचक की तरह कहेंगे कि एक समय की बात है एक था राजा, एक थी रानी और एक था उनका दुष्ट दरबारी। गौरतलब है कि इस लेख के लिए सामग्री स्वाति चतुर्वेदी की किताब 'आई एम ए ट्रोल' से मिली है। फिल्म के प्रारंभ में डिस्क्लेमर दिया जाता है कि कथा काल्पनिक है। इसी तरह का डिस्क्लेमर पत्रकार को भी देना चाहिए।
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