सम्पादकीय

अफगानिस्तान में वो कौन सा 'चक्रव्यूह' है, जिससे कोई भी 'अभिमन्यु' बाहर नहीं निकला?

Gulabi
1 Sep 2021 12:48 PM GMT
अफगानिस्तान में वो कौन सा चक्रव्यूह है, जिससे कोई भी अभिमन्यु बाहर नहीं निकला?
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अफगानिस्तान के इतिहास में 30 अगस्त 2021 की तारीख को हमेशा याद रखा जाएगा

विपुल पांडे।

अफगानिस्तान के इतिहास में 30 अगस्त 2021 की तारीख को हमेशा याद रखा जाएगा. इस दिन अमेरिका (America) को सबसे बड़ी जलालत झेलकर अपने आखिरी सैनिक को बाहर निकालना पड़ा है. लाचारी ऐसी कि एक आतंकी संगठन ने उसकी डेडलाइन आगे बढ़ाने की गुजारिश तक ठुकरा दी. और खुद को सुपरपावर (Superpower) कहने वाला अमेरिका अपनी डेडलाइन तक फॉलो नहीं कर सका. आत्मघाती हमलों के बीच, तय वक्त से एक दिन पहले ही अफगानिस्तान छोड़ देने की उसकी शर्मनाक शिकस्त हमेशा याद रखी जाएगी.

अब अमेरिका से बार-बार ये सवाल पूछा जाएगा कि वो अफगानिस्तान में क्या टारगेट लेकर गया था. अगर उसे 9/11 का बदला लेना था. तो ओसामा बिन लादेन (Osama Bin Laden) को अफगानिस्तान में बिना बेस बनाए भी मारा जा सकता था. अगर अफगानिस्तान में उसे लोकतंत्र बहाल करना था और आतंक मुक्त करना था. तो अमेरिका आज उसे फिर से आतंकियों के हाथों में सौंपकर क्यों चला गया. लेकिन अगर आप पूरे घटनाक्रम को समझेंगे, तो महाभारत की कहानी की तरह अफगानिस्तान भी कौरवों के चक्रव्यूह जैसा लगेगा. जिससे अभिमन्यु बनकर दाखिल हुए ग्रेट ब्रिटेन से लेकर रूस और अमेरिका तक बाहर नहीं निकल सके.
अमेरिका अपन आबरू तक नहीं बचा सका
अगर आप अफगानिस्तान में अमेरिका के बीस साल के पूरे सफर को समझेंगे. तो ये एक मिस्ट्री की तरह नजर आएगी. अमेरिका ने अपने वादे के मुताबिक तय समय से एक दिन पहले यानि 30 अगस्त की आधी रात को ही काबुल के एयरपोर्ट से पूरे अफगानिस्तान को अलविदा कह दिया. करते भी क्या. जिस एयरपोर्ट पर उनका आखिरी कब्जा था, वहां उनके मददगारों में भागने की होड़ मची थी. आतंकी संगठन आत्मघाती हमले कर रहे थे. विस्फोट के लिए गाड़ियां तैयार कर रखी थीं.
काबुल से भाग जाने की जो तस्वीरें सामने आईं, उनमें सुपरपॉवर की सबसे बड़ी शर्म छिपी है. पराजय छिपी है. और एक अदना से मुल्क से भाग जाने की हड़बड़ी छिपी है. जो दो दशक के अपने सच्चे साथी, ट्रेंड डॉग्स तक को तालिबान के रहमो करम पर छोड़कर भाग गए.
अमेरिका की इस शिकस्त के पीछे चार चेहरे हैं. और चार अध्याय भी. जिनमें जो बाइडेन का चैप्टर है सरेंडर. डोनाल्ड ट्रंप का चैप्टर है ब्लंडर. बराक ओबामा का चैप्टर है लूजर. तो जॉर्ज डब्ल्यू बुश का चैप्टर है फाउंडर. इन अध्यायों को समझने के लिए 80 और 90 के दशक के अफगानिस्तान को समझना जरूरी है. तब सोवियत रूस अफगानिस्तान में अभिमन्यु बनकर घुसा था.
जब पठानलैंड में लहूलुहान हो गया सोवियत संघ
24 दिसंबर 1979 को सोवियत संघ रूस ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया. उस दिन आधी रात से पहले रूस के 280 ट्रांसपोर्टर एयरक्राफ्ट हजारों जवानों को लेकर काबुल पहुंचे थे. तब हफीजुल्लाह आमीन की फोर्स तीखी किंतु बहुत छोटी लड़ाई के बाद हार गई थी. लेकिन रणनीतिक रूप से अहम अफगानिस्तान में रूस भी कामरेड शासन नहीं ला सका. दस साल के खून खराबे के बाद मिखाइल गोर्वाच्योव ने सोवियत सेना की वापसी का फैसला किया. 15 फरवरी 1989 को रूस के आखिरी सैनिक ने अफगानिस्तान की धरती छोड़ दी.
इतिहास में अफगानिस्तान में ये किसी सुपरपावर की दूसरी हार थी. अफगान इसे बर्दाश्त नहीं कर सके कि किसी दूसरे देश के लोग उसके देश का भाग्य तय कर रहे हैं. और बहुत ही जल्द मुजाहिदों ने गुरिल्ला वार छेड़ दिया. जिसे दुनिया के तीन मुल्कों ने अंदरखाने समर्थन दिया. तब पाकिस्तान को डर था कि रूस अपना दायरा दक्षिण की तरफ बढ़ाकर बलूचिस्तान तक ले जा सकता है. इसलिए पाकिस्तान ने तब अपने सदाबहार दोस्त रहे अमेरिका के साथ मिलकर कट्टरपंथ को हवा देनी शुरू की.
तब अमेरिका अपनी अकड़ में युद्ध में कूदा था और पाकिस्तान अपने डर से युद्ध में कूदा था. पाकिस्तान, अमेरिका और सऊदी अरब ने अफगानिस्तान के लड़ाकों को गुप्त रूप से आर्थिक और हथियारों की मदद की. जिससे अफगानिस्तान में कट्टरपंथियों की ताकत इतनी बढ़ी कि रूस जैसे शक्तिशाली देश को भगा दिया.
अमेरिका ने अपने लिए 'चक्रव्यूह' खुद तैयार किया
रूस के निकलते ही अफगानिस्तान में सत्ता के लिए कलह मच गई. कट्टरपंथी लड़ाके आपस में लड़ने लगे. छह साल तक अफगान अवाम गृहयुद्ध में फंसी रही. सत्ता के इसी वैक्युम का फायदा उठाकर तालिबान खड़ा हुआ. पश्तो कबीलाइयों ने पाकिस्तान बॉर्डर के मदरसों से पश्तो नौजवानों को अपने संगठन में भर्ती किया. तालिबान के फाउंडर मुल्ला मोहम्मद उमर ने संगठन को इतना आगे बढ़ाया कि 1994 तक अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा हो गया. इसके दो साल के अंदर तालिबान ने 1996 में काबुल में सरकार बना ली.
अफगानिस्तान में जब गृहयुद्ध जारी था, तब दुनिया खामोश बैठी रही. तालिबान की सरकार बनते ही अमेरिका का रोल पलट गया. UNSC में 1267 प्रस्ताव पास हुआ जिसमें तालिबान और अलकायदा को आतंकवादी संगठन करार दिया गया और उस पर हर तरह के प्रतिबंध लगा दिए गए. इन प्रतिबंधों ने तालिबान की तो कमर तोड़ दी, लेकिन गृह युद्ध की राख से निकला अलकायदा एक घातक आतंकवादी संगठन बनकर उभरा. उसके बाद जो कुछ हुआ. वो देखकर अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया दहल गई.
अमेरिका के ट्विन टॉवर पर हुए हमले के बाद ये समझते देर नहीं लगी कि ये उन्हीं आतंकी संगठनों का हमला है, जिसे अफगानिस्तान में अमेरिका मजबूत करके लौटा था. और उसके कुछ दिन बाद अमेरिका ने जो फैसला लिया. वो बीस साल की जंग में बदल गया.
अफगान युद्ध के फाउंडर जॉर्ज डब्ल्यू बुश
2001 में 9/11 के कुछ दिन बाद तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने वॉर ऑन टेरर का ऐलान किया. अलकायदा और ओसामा बिन लादेन को मिटा देने की घोषणा की. इसी के बाद अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में उतरी थी और तालिबान को सत्ता से हटने के लिए मजबूर करने लगी थी. नवंबर के अंत तक सुपरपावर अमेरिका ने काबुल फतह कर लिया और हामिद करजई को अंतरिम राष्ट्रपति बना दिया. इसके कुछ दिन के अंदर तालिबान ने सरेंडर कर दिया और मुल्ला उमर कंधार भी छोड़कर भाग गया.
बुश प्रशासन ने अफगानिस्तान में सबसे पहले ऑपरेशन एनाकोंडा चलाया और अलकायदा-तालिबान के आतंकियों को चुन-चुनकर मारा. 2003 तक अफगानिस्तान में लोकतंत्र बहाल हो गया. हामिद करजई देश के पहले चुने गए राष्ट्रपति बन गए और बुश प्रशासन ने MAJOR COMBAT की समाप्ति की घोषणा कर दी. तब वहां पर अमेरिका के 8 हजार सैनिक थे. लेकिन ओसामा बिन लादेन का अता-पता नहीं था.
ओसामा को मारने वाले कन्फ्यूज़ योद्धा बराक ओबामा
2009 में बराक ओबामा का युग शुरू हुआ. और ओबामा जब ओवल ऑफिस में पहुंचे. तो अजीब सी स्ट्रेटेजी बनाई. ओबामा की स्ट्रेटेजी थी. तालिबान और अलकायदा को कमजोर करने के लिए पाकिस्तान को मजबूत कर दो. इसके लिए अमेरिका को ओबामा ने तीन शब्दों की जो चाशनी चटाई.. वो थी Disrupt, Dismantle And Defeat. इन शब्दों का मतलब चाहे जो भी रहा हो. अफगानिस्तान में लड़ाई के लिए ओबामा ने पाकिस्तान को बेस बनाया. पानी की तरह पैसा बहाया. पाकिस्तान को ऐसे-ऐसे हथियार सौंपे कि हिंदुस्तान तक की हलक सूख गई. लेकिन त्रासदी देखिए. 2011 में ओबामा ने अपने टारगेट ओसामा बिन लादेन को उसी पाकिस्तान में मारा था. चूंकि लादेन पाकिस्तान में ही छिपा बैठा था. इसलिए ओबामा जीतकर भी हार गए.
बावजूद इसके अमेरिका अफगानिस्तान में इंतकाम की जंग लड़ता रहा. बराक के बाद ट्रंप का भी दौर आ गया. और 2017 में डोनाल्ड ट्रंप ने व्हाइट हाउस पहुंचकर अफगान पॉलिसी एक बार फिर शिफ्ट की. ट्रंप ने लुटेरे पाकिस्तान को किनारे कर दिया. लेकिन गलती ये कर दी कि- तालिबान की ही गोद में जा बैठे और धोखा खा गए. 2018 में US ने जिस जलमय खलीलजाद को अपना दूत नियुक्त किया, उसने मुल्ला अब्दुल गनी बारादर से बात तो की. लेकिन अब पता चला है कि वो तालिबान के ही हक में अमेरिका की नीतियां पलट रहा था. जिसका नतीजा हुआ अमेरिका की शर्मनाक हार. ट्रंप की डील को बाइडेन ने जिस तरह से हकीकत में बदला. वो अमेरिका के लिए एक शर्मनाक इतिहास बन गया. वियतनाम और इराक के बाद अफगानिस्तान का ये अध्याय अमेरिका को शूल की तरह चुभता रहेगा.
1842 में ब्रिटेन भी मुंह दिखाने लायक नहीं बचा था
1842 में ब्रिटेन का आक्रमण भी डिजास्टर बन गया था. ब्रिटिशर्स का आधिपत्य बढ़ाने के लिए सेना अफगानिस्तान में घुसी थी. लेकिन तब अफगानियों ने पूरी सेना को खत्म कर दिया था. ब्रिटिश टेरिटरी में सिर्फ एक सैनिक वापस लौटा था. शायद उसे अफगानियों ने ही नरसंहार की पूरी कहानी बताने के लिए जिंदा छोड़ा था.

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