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पंजाब में राजनीतिक अस्थिरता ठीक नहीं
बलदेव कृष्ण शर्मा एक साल से किसान आंदोलन के कारण सुर्खियों में चल रहा पंजाब पिछले तीन महीने से राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बना हुआ है। अंतर्कलह में अपना वजीर बदलने वाली कांग्रेस के सामने सिद्धू रूपी संकट खड़ा है। कांग्रेस से न निगलते बन रहा और न उगलते। दरअसल, नवजोत सिंह सिद्धू ने पार्टी को ऐसे धर्मसंकट में ला खड़ा किया है, जिसको अगले तीन महीनों में पिछले पौने पांच साल की नाकामियों से पार पाना है।
पार्टी करे तो क्या करे, उसे कुछ सूझ नहीं रहा है, इसलिए उसने रूठे हुए सिद्धू को अपने हाल पर छोड़ दिया है। सिद्धू को न 'महाराजा' की कार्यशैली पसंद आई और न ही 'आम आदमी' के सीएम चरणजीत सिंह चन्नी के फैसले। लिहाजा, बिना रीढ़ की कांग्रेस के भविष्य को लेकर पंजाब में तमाम आशंकाएं खड़ी हो गई हैं।
कांग्रेस ने अनुसूचित जाति समुदाय से सीएम चेहरा देकर जो दांव खेला था, उस पर सिद्धू की नई रुसवाई भारी पड़ती दिख रही है। पिछले चुनाव में जिन कैप्टन अमरिंदर सिंह के नाम पर कांग्रेस को वोट मिले थे, उन्होंने भी पार्टी छोड़ने का एलान कर दिया है। कांग्रेस के नए वजीर से लेकर मंत्रियों तक ने सरकार की सारी नाकामी का ठीकरा कैप्टन पर फोड़ दिया है, जबकि कैप्टन मंत्रिपरिषद के 12 मंत्रियों को फिर से सरकार में मौका मिला है।
इनमें से कई मंत्रियों को बिना परफॉर्मेंस देखे प्रमोशन दिया गया है। उनसे कोई यह सवाल नहीं कर रहा है कि उन्होंने जनता के लिए क्या काम किए? कांग्रेस आलाकमान जैसे सिद्धू को समझने में भूल कर गया, वैसी ही भूल पंजाब की जनता के मिजाज को समझने में कर रहा है। उसने भाजपा से भी सीख नहीं ली, जिसने गुजरात में पूरे मंत्रिपरिषद को ही बदल डाला।
भाजपा को शायद अपनी गलती स्वीकारने में संकोच नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस अंतर्कलह के कारण आमूलचूल परिवर्तन की मिसाल कायम नहीं कर सकी। यही कारण है कि कांग्रेस को लेकर पंजाब में माहौल बनने लगा है कि उसने चुनाव से ठीक पहले बदलाव तो कर दिए, लेकिन पंजाब की जनता से किए गए वादों का क्या होगा?
पौने पांच साल तक सरकार यदि कुछ नहीं कर रही थी तो कांग्रेस हाईकमान ने निर्णय इतनी देरी से क्यों लिया? पंजाब की जनता इसे छलावा मान रही है। 'नई सरकार' विपक्ष की तरह किसी दूसरे की नाकामी बताकर फिर से वोट पा लेगी, यह आसान नहीं है। सवाल इसलिए भी, क्योंकि पंजाब में राजनीतिक अस्थिरता ठीक नहीं। दो दशक पहले तक पंजाब ने राजनीतिक अस्थिरता के कारण उपजे दंश को झेला है
ऐसे में वह ऐसी किसी नई शक्ति को पनपने नहीं देना चाहता, जो पंजाब के अमन-चैन और भाईचारे को खराब करे। कोरोना और किसान आंदोलन के कारण पहले ही उसकी आर्थिक सेहत बद से बदतर हो चुकी है। कैप्टन ने जब गद्दी संभाली थी तब राज्य पर 1.82 लाख करोड़ रुपए का कर्ज था, जो वित्त वर्ष 2021-22 में 2.73 लाख करोड़ रुपए होने का अनुमान है।
कर्ज में डूबी किसी भी सरकार के लिए इतने कम समय में चुनावी वादों को पूरा करना असंभव है। कैप्टन के हटने से भले ही कांग्रेस यह संदेश देने में सफल रही है कि वह जनता के बीच का मुख्यमंत्री लेकर आई है, लेकिन उनको भी यदि निर्णय लेने में स्वतंत्रता नहीं मिलेगी तो उसने जो मास्टर स्ट्रोक खेला था, वह उल्टा भी पड़ सकता है।

Rani Sahu
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