सम्पादकीय

तबाही की पुतिन की मुहिम कहां थमेगी?

Rani Sahu
3 March 2022 11:12 AM GMT
तबाही की पुतिन की मुहिम कहां थमेगी?
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आसमान से बम गिर रहे हैं और सामने से गोली आ रही है लेकिन दिमाग़ जहां था वहीं अटका हुआ है. जिससे पता चलता है

रवीश कुमार

आसमान से बम गिर रहे हैं और सामने से गोली आ रही है लेकिन दिमाग़ जहां था वहीं अटका हुआ है. जिससे पता चलता है कि दिमाग़ को खत्म करने की जंग इस दुनिया में हर जगह जीती जा चुकी है. इसका बमों और मिसाइलों से कोई लेना-देना नहीं है. प्रोपेगैंडा इतना मज़बूत है कि बहुत से लोग युद्ध को सही बताते हैं और रंग और नस्ल के नाम पर नफरत इतनी मज़बूत हैं कि मरने की हालत में भी कोई गोरा किसी काले को धक्का देकर अलग कर रहा होता है. मानवाधिकार का बखरा लग गया है. कई तरह के अधिकारों में बंट गया है. लोग अपने-अपने धर्माधिकार, नस्लाधिकार, जात्याधिकार, रंगाधिकार, क्षेत्राधिकार और सर्वाधिकार को श्रेष्ठ बताने और दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हैं. ग़नीमत है यूरोपीय और व्हाइट श्रेष्ठता से भरे किसी जानकार ने भूरे रंग के बारुद को ब्राउन साहिब नहीं पुकारा है.
बम के धमाकों से घिरा यूक्रेन मानवता के नाम पर दुनिया से मदद मांग रहा है लेकिन खुद उसकी सेना में घुसे नात्जी और नस्लवादी तत्व और उसके समर्थक भारतीयों और अफ्रीकी लोगों के साथ भेदभाव भी कर रहे हैं. अफ्रीकी यूनियन ने इसकी निंदा की है कि यूक्रेन के लोगों को सबसे पहले सीमा पार कराया जा रहा है और अफ्रीकी नागरिकों को लाइनों से निकाल कर अलग किया जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र में शरणार्थी मामलों के उच्चायुक्त ने भी इसकी पुष्टि की है.
पश्चिमी मीडिया के स्टुडियो में बैठे एंकर,जानकार और फील्ड से पत्रकार अपने प्रसारण के दौरान गोरों की श्रेष्ठता का बखान कर रहे हैं. कोई कह रहा है कि यह इराक या अफगानिस्तान नहीं है, यूरोप है. यहां कैसे युद्ध हो सकता है. इसे आप घमंड और मूर्खता दोनों की श्रेणी में रख सकते हैं. जैसे इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान बम गिराने के लिए बने हों. बिल्कुल यूक्रेन के प्रति सहानुभूति होनी चाहिए और युद्ध रोका जाना चाहिए लेकिन साथ साथ इन चीज़ों से भी नज़र नहीं हटानी चाहिए.
जो युद्ध के विरोधी होते हैं वे हर देश और हर दौर में विरोध करते है. उनकी मुश्किल देखिए कि उन्हें युद्ध का विरोध उस नात्ज़ी सेना के लिए भी करना पड़ता है जो अंध राष्ट्रवाद में यकीन करती है और युद्ध को जायज़ मानती है. यूक्रेन के प्रति सहानुभूति के साथ यह याद रखा जाना चाहिए कि वहां किस तरह नात्ज़ी ताकतों ने पैठ बनाई है और नात्ज़ी ताकतों को मदद करने में अमरीका की भी भूमिका रही है. जो अब रूस में लोकतंत्र के नहीं होने की बात को लेकर जाग गया है. युद्ध का कवरेज आपको सुपर पावर का खोखलापन देखने का मौका देता है तो आम इंसान का सुपर पावर होना दिखाता है.
28 फरवरी को कीव के वोकज़ालना स्टेशन पर कर्फ्यू हटते ही शहर से भागने वालों की भीड़ जमा हो गई. इसमें यूक्रेन वासी भी थे और भारतीय भी. भारतीय छात्रा सना ने बताया कि इस स्टेशन पर लाइन से बोगी तक पहुंचने के बाद भी भारतीय जानकर अलग कर दिए गए. पहले यूक्रेन की महिलाओं और बच्चों को चढ़ने दिया गया. तभी युद्ध का सायरन बज गया, सबके होश उड़ गए. अपने परिवार से बिछड़ता देख भारत के छात्र यूक्रेन के लोगों को ट्रेन में चढ़ाने लगे. यूक्रेन ने इवेकुएशन स्पेशल ट्रेन भी चलाए हैं, जिसमें भारतीय दूतावास के अधिकारियों की मदद से सना सवार हो सकी. छात्रा ने कहा कि ट्रेन के चलते ही उसके साथ धक्का मुक्की शुरू हो गई.अब वह कीव से लवीव और रोमानिया की सीमा में प्रवेश कर चुकी है, कभी भी भारत आ सकती है. छात्रा ने यह भी बताया कि सीमाओं पर स्थिति में अब काफी सुधार है.
पर सना का अनुभव एकतरफा या एकरंगा नहीं था. सना कीव के जिस मकान में रहती है उसके मकान मालिक ने उसे मैसेज किया है. अच्छा मैसेज है, यही कि बताना भारत के मीडिया में युद्ध को लेकर क्या कवर हो रहा है. कैसे कवर हो रहा है और आपने जो किराया दिया है वह युद्ध में फंसे यूक्रेन के काम आएगा. युद्ध मकान मालिक और किरायेदार को भी कितना बदल देता है.
युद्ध के कवरेज को कभी आर-या पार की तरह मत देखिए. एक पल में हैवान दिखता है तो अगले पल में इंसान भी दिखेगा. यूक्रेन में अच्छे लोग भी हैं. उन्होंने भारतीयों की मदद भी की है. लेकिन खारकीव और लविव के हालात बिगड़ रहे हैं. भारतीय दूतावास ने एडवाइज़री जारी की है कि खारकिव में जो भी भारतीय हैं तुरंत शहर छोड़ दें लेकिन छोड़ना हर किसी के लिए संभव नहीं है. शहर में गोली चल रही है, बम गिर रहे हैं. खारकीव में ही कर्नाटक के छात्र नवीन एस जी की मौत हो गई थी.
जहां रूसी सेना की तबाही है वहां छात्रों के लिए जोखिम उठाना बड़ा फैसला है. शायद सरकार अपनी तरफ से कुछ पहल करे ताकि वे निकल पाएं. युद्ध की स्थिति में समाज बदहवास हो जाता है. जिस पर हमला होता है वह भी हमलावर हो जाता है. लेकिन जो हमलावर होता है उसका व्यवहार कुछ अलग होता होगा यह जानने के लिए हमने मास्को मे रह रहे सरफराज़ से संपर्क किया. रूस में भी सारे लोग इस हमले के साथ नहीं है. लेकिन उसी रूस में ऐसे लोग भी हैं जो युद्ध की तबाही से बेपरवाह हैं, सही मानते हैं. ऐसे लोग या तो प्रोपेगैंडा की चपेट में हैं या राजनीतिक रुप से इतने उदासीन होते हैं कि फर्क नहीं पड़ता कि उनका देश दूसरे देश के साथ क्या कर रहा है. उस देश के साथ जहां उनके कई रिश्तेदार रहते हैं.
युद्ध के समय एक ही पंक्ति अंतिम जानकारी मानी जाती है और जितने लोग उस एक पंक्ति को दोहराएंगे युद्ध उतना ही जायज़ होता जाएगा. वो एक पंक्ति है कि हमारे लिए देश ही सब कुछ है, उससे बढ़कर कुछ भी नहीं. अफसोस कि जो बम गिरा रहा होता है वह भी यही कहता है और जो बम से मर रहा होता है वह भी यही कहता है.
क्या यह तबाही कम है जो रूस के विदेश मंत्री चीख रहे हैं कि तीसरा विश्व युद्ध परमाणु युद्ध होगा और विनाशकारी होगा? आठ से दस लाख यूक्रेनी शरणार्थी हो चुके हैं. घर तबाह भी हो गया औऱ घर छूट भी गया. क्या कभी यूक्रेन यूक्रेन के लोगों को वापस मिलेगा, अगर रूस के कब्ज़े में आ गया तो उस बिलियन डॉलर की मदद का क्या होगा जिसका ऐलान दिन रात पश्चिम के देश कर रहे हैं. क्या वो पैसा ये लोग रूस को देंगे कि यूक्रेन का फिर से निर्माण करें? यूक्रेन पर बमों का गिरना और रूस पर प्रतिबंधों के लगने में कितना फर्क है. यूक्रेन में जिन जगहों पर शांति दिखती है वहां भी धड़का लगा रहता है कि बम कब गिर जाएगा.
2014 में भी पूर्वी यूक्रेन में रूस और यूक्रेन के बीच तनाव बना रहा था. उस दौरान भारतीय दूतावास की सक्रियता और इस समय की सक्रियता के बीच तुलना करेंगे तो काफी कुछ समझ आएगा. फरवरी 2014 में यूक्रेन में तख्तापलट हुआ था, इस तख्तापलट में अमरीका ने नात्ज़ी तत्वों को उकसाया, समर्थन दिया इनके भरोसे तथाकथित लोकतांत्रिक आंदोलन कराया जिसके कारण यूक्रेन के तत्कालीन राष्ट्रपति को देश छोड़ कर भागना पड़ा. 2014 में रूस ने पूर्वी यूक्रेन के अलगाववादी तत्वों का साथ दिया और यूक्रेन की सेना के साथ भिड़ंत हो गई.उस वक्त भी यूक्रेन में पढ़ रहे भारतीय छात्रों की जान पर बन गई थी.
30 मई 2014 के इकनोमिक टाइम्स की खबर आप भी देख सकते हैं. लिखा है कि आज भारत ने अपने नागरिकों और खासकर छात्रों से कहा है कि वे डोनेत्स्क और लुगांस्क के इलाकों को छोड़ दें, जहां लगातार हिंसक झड़पें हो रही हैं. भारत ने अपनी एडवाइज़री में पूर्वी और दक्षिण उत्तरी यूक्रेन में रह रहे भारतीयों को भी अपनी सुरक्षा को लेकर सतर्क रहने को कहा है. इस एडवाइज़री में खास कर छात्रों को चेतवानी दी गई है. खबर में लिखा है कि अधिकारियों के अनुसार इन इलाकों में एक हज़ार छात्र रहते हैं.
2014 के केरल RSP के सांसद एन के प्रेमचंद्रण ने लोकसभा में सवाल पूछा.13 अगस्त 2014 को लोकसभा में इस सवाल का जवाब तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने दिया था. हमें अंग्रेज़ी में दिया गया जवाब ही मिला है. सुष्मा स्वराज कहती हैं कि '3-4 जुन को करीब लुगांस्क और डेनोत्स्क में रहने वाले 1000 भारतीय नागरिकों को जिनमें ज्यादातर मेडिकल छात्र थे, इवेकुएट कर ट्रेन से कीव ले जाया गया. इन इलाकों में हिंसा बढ़ने के कारण इन्हें निकाला गया. कीव पहुंचने के बाद इनके ठहरने का इंतज़ाम किया गया और भारत जाने का हवाई जहाज़ का बंदोबस्त किया गया. ट्रेन की यात्रा का खर्च, ठहरने का खर्च का खर्च भारत सरकार ने दिया.'
अगर 2014 की तरह इस बार मुस्तैदी दिखाई गई होती तो यह सब करने की ज़रूरत नहीं थी. युद्ध में फंसे हज़ारों छात्रों ने अपने लाखों रुपये लगाए और बस और टैक्सी से सीमा तक पहुंचे हैं. इन्होंने खुद से खुद को इवैकुएट किया है. इसका श्रेय भी सरकार ले रही है तो सरकार को एक काम करना चाहिए. जिन छात्रों ने कीव या इवानो से निकलने के लिए चार चार लाख देकर बस का इंतज़ाम किया है उन्हें वो पैसा सरकार दे दे. तो हम बता रहे थे कि 2014 में क्या हुआ और 2022 में क्या हुआ. 2014 में पूर्वी यूक्रेन में तनाव बढ़ा औऱ हिंसा भी हुई थी,रूस ने इस तरह से हमला नहीं किया था तब उस साल 4 अगस्त 2014 तक भारत ने 21 एडवाइज़री जारी की थी. इसका मतलब है कि वहां के दूतावास को वहां के खतरों की समझ थी फिर इस बार क्यों देरी हुई? 23 जनवरी 2015 की एक एडवाइज़री में यहां तक लिखा है कि कुछ छात्रों ने वापस कॉलेज ज्वाइन कर लिया है उनसे अपील की जाती है कि तुरंत इलाका छोड़ दें.तब की एडवाइज़री में साफ साफ लिखा है कि दूतावास मज़बूती से अपील करता है कि इलाका छोड़ दें. इस बार तो छात्र ही हल्ला कर रहे थे कि भारत कैसे जाएं. विमान नहीं है. हमें जाना है या नहीं एडवाइज़री क्या है. जब युद्ध की आशंका नज़दीक दिखने लगी तब पुतिन की तारीफ में गोदी मीडिया जश्न मनाने लगा. पुतिन पावरफुल के सम्मान में बैशाख से पहले ही टुन्न हो गया.
जैसे ही हज़ारों छात्रों ने बंकर और शहर के हालात के वीडियो भेजने शुरू किए गोदी मीडिया का पुतिन पुराण हवा तो नहीं हुआ लेकिन दम ज़रूर फूल गया. उनके पुराण के सामने छात्रों के ये वीडियो वेद वाक्य बन गए. सरकार की कमज़ोरी उजागर होते ही आई टी सेल के ज़रिए छात्रों पर ही हमला किया गया कि विदेश पढ़ने गए हैं तो टिकट खुद कटाना चाहिए था. आई टी सेल वालों को पता नहीं था कि उसी सरकार ने 2014 में जनता के खर्चे से पूर्वी यूक्रेन से कीव और कीव से भारत लाने का इंतज़ाम किया था. क्या उस समय सरकार ने गलत किया था?
2014 में यूक्रेन में 4700 मेडिकल छात्र थे,जैसा कि सुषमा स्वराज ने अपने बयान में कहा था, इस बार 20,000 भारतीयों की संख्या बताई जा रही है. 7 साल में इतनी संख्या क्यों बढ़ी इसके कारणों में जाने का अभी वक्त नहीं है.हम बात करना चाहते हैं कि ICWF,इंडियन कम्युनिटी वेलफेयर फंड की. पिछले साल सरकार ने लोकसभा में बताया है कि इसमें 474 करोड़ हैं. यह बजट का पैसा नहीं है बल्कि भारतीयों के पैसे से ही यह फंडा बना है. भारत सरकार ICWF दिवस भी मनाती है.
पिछले साल अलग-अलग दूतावासों में इंडियन कम्युनिटी वेलफेयर दिवस मनाया और इसकी तस्वीरें ट्वीट कीं. एक तस्वीर घाना स्थित भारतीय दतावास की है. राजदूत ने ट्वीट किया है कि आज़ादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में इंडियन कम्युनिटी वेलफेयर फंड दिवस मनाया गया. इस दिन भारतीय समुदाय को बताया गया कि उनके कल्याण के लिए क्या-क्या कदम उठाए गए हैं. कोविड का पहला कहर टूटा था तब विदेशों में फंसे भारतीयों से टिकट लेने के सवाल पर कुछ जगहों पर याचिका दायर की गई थी और बकायदा इस फंड के इस्तेमाल को लेकर बहस हुई थी. आप इंटरनेट सर्च कर सकते हैं. आईटी सेल को भी बताईए कि 2014 में जब संकट शुरू भी नहीं हुआ था तब भारत सरकार ने एक हज़ार छात्रों के ट्रेन टिकट कटाए थे. तो इस बार भी यह काम उसी का था और इसके लिए उसके पास 400 करोड़ का फंड था.
यूक्रेन की एक छात्रा का ट्वीट है कि 24 फरवरी को एयर इंडिया ने उड़ान रद्द कर दी, 26-27 फरवरी को UIA ने उड़ान बंद कर दी. अगर हमारे विमान में बैठने से पहले युद्ध हो गया तो क्या यह हमारी गलती है. तब पूजा पर हमला हो गया कि 15 फरवरी की एडवाज़री का पालन क्यों नहीं किया. किसने कहा कि एडवाइज़री मत देखो. लेकिन यही तो सवाल है कि 2014 की एडवाइज़री की तरह क्या फरवरी 2022 की एजवाइज़री स्पष्ट थी.
यूक्रेन से लगे रोमानिया, हंगरी और पोलैंड की सीमाओं पर हालात अब बेहतर हैं. भारत सरकार ने भी हालात पर पकड़ बना ली है. भारतीय छात्रों के अनुभव भी बदल रहे हैं. आज जो भी हालात सुधरे हैं अगर छात्रों ने, उनके मां-बाप ने, विपक्ष के नेताओं और मीडिया के कुछ हिस्से ने आवाज़ नहीं उठाई होती तो बदहवासी बनी रह सकती थी अब इंतज़ाम बेहतर हो रहे हैं और यूक्रेन की सीमा से लगे लोग भी शरणार्थियों और भारतीयों की मदद के लिए आगे आ रहे हैं. एक छात्र आयुष ने बताया कि स्लोवाकिया की सीमा पर वहां के लोगों ने काफी अच्छा इंतज़ाम किया था.
कोई कवि भी प्राइम टाइम देख रहा है, जो युद्ध के मैदान में चिप्स और कुरकुरे मिलने के सुख पर कविता लिख सकता हो..ये कुरकुरे नहीं हैं इनमें जीवन दिखा है. बंदूक की गोली और बम के धमाकों के बीच इन छात्रों की स्मृति से जीवन का हर स्वाद चला गया होगा. जिस शहर में कुछ बचा न हो वहां से जान बचाकर इस तरह के सामानों को देखना भी जीवन को वापस पाना है. इन्हीं सब सामानों से भरे घर और अपार्टमेंट तबाह हो गए, इन्हें ही देखकर लोगों को लगा होगा कि घर आ गए. यह पोलैंड और यूक्रेन की सीमा को जोड़ने वाला मेदिका बार्डर है. पोलैंड के नागरिकों ने अपने घर का सामान यहां उड़ेल दिया है. जिनका घर चला गया है देश चला गया उन्हें जैकेट मिल रहा है. इस वक्त इस ठंड में जैकेट ही देश है. जैकेट ही सीमा है. जैकेट ही संयुक्त राष्ट्र है. पोलैंड में पढ़ने वाले भारतीय छात्र भी मदद के काम में शामिल हो गए हैं. यही वे लोग हैं जो दुनिया की हर ताकतवर और सनकी सेना का मुकाबला अपने पुराने कपड़ों औऱ खाने पीने के सामानों से करते हैं. पोलैंड के लोगों ने बस का इंतज़ाम किया है. जरा बताइए, हौसला बम से मिलता है या ऐस लोगों से…जो बम के बीच चले आते हैं हाथ थामने….
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