सम्पादकीय

जहां प्रेम नहीं, वहां सभ्यता कैसे : मौन के इशारे को समझता है प्रेम, अलग होकर भी राधारानी से अलग नहीं श्रीकृष्ण

Neha Dani
16 Oct 2022 1:52 AM GMT
जहां प्रेम नहीं, वहां सभ्यता कैसे : मौन के इशारे को समझता है प्रेम, अलग होकर भी राधारानी से अलग नहीं श्रीकृष्ण
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जिसके मुख में नया सर्ग, आंखों में नई श्रुति और मस्तक पर नया प्रेम सोपान चिह्नित है।
न वैदिक सभ्यता में इस पर बात हुई, न सिंधु सभ्यता में, न ही अन्य किसी भी सभ्यता में। जबकि श्रीमद्भागवत और गीतगोविंद भारतीय पृथ्वी पर ही घटे हैं। शायद सिविलाइजेशन का गलत अनुवाद कर दिया गया है, या इसके लिए अनुपयुक्त हिंदी शब्द चुन लिया गया है। जहां प्रेम नहीं, वहां सभ्यता कैसे हो सकती है! व्यक्ति सही हो सकता है, लेकिन उसके सही होने से यदि किसी को दुख मिलता है, तो उसे सभ्य नहीं कहा जा सकता। सभ्य तो वही है, जो प्रेम में हो।
सही होने पर अपने लिए सोचना है, प्रेम में होने पर दूसरे या दूसरों के लिए। यही देना या समर्पण है। देने के सुख में अनवरत होना। काशी में एक बार मां आनंदमयी ने कहा था, हम सब कुछ खोकर सब कुछ पा लेते हैं। सब कुछ खोना यानी मन, बुद्धि, अहंकार, यहां तक कि देह को भी खो देने का भाव। पहली सोच हमेशा अपने आप को लेकर ही होती है। यही अहंकार है। प्रेम में पहली सोच हमेशा उसे लेकर होती है, जिससे हम प्रेम करते हैं।
विद्यानिवास मिश्र ने यदि यह कहा था कि मेरे राम का मुकुट भीग रहा है, तो यह प्रेम है। यह प्रेम ही है, जब वह लिखते हैं कि राधा माधव रंग रंगी। भृगु द्वारा विष्णु के सीने पर पदाघात और फिर विष्णु का उनसे यह पूछना कि आपको चोट तो नही लगी, विष्णु का प्रेम ही है। जयदेव की रचना गीत गोविंद में सही होकर भी श्रीकृष्ण श्रीराधा से माफी मांग रहे, तो यह प्रेम ही है। आह्लाद प्रेम में ही है। श्रीराधा आह्लादिनी शक्ति हैं प्रेम की, कृष्ण की। महज वृंदावन में रहकर श्रीराधा को नहीं जाना जा सकता। जीवन में गीतगोविंद घटने पर जाना जा सकता है। प्रेम हुआ, मतलब मनुष्य सभ्य हुआ। सभ्यता का सर्ग या युग दरअसल यहीं से शुरू होता है, जो सतयुग, द्वापरयुग, त्रेता और कलियुग सब के परे और सब में श्रेष्ठ है।
नाट्यशास्त्र में जब भरतमुनि शृंगार की बात करते हैं और भवभूति करुण की, जब भोज शृंगारप्रकाश रचते हैं, तब वे वस्तुत: प्रेम ही रचते हैं, प्रेम की ही बात करते हैं, अहंकार या बुराई की नही। सोच यानी मन के कारण बुराई का जन्म होता है और अनुकूल परिवेश मिलते ही प्रकट होता है। यह बुराई या इविल फिर इतनी बलवती हो उठती है कि प्रेम की आंच मद्धिम पड़ जाती है। मन में हमेशा बुरी छवियां ही हावी रहती हैं। प्रेम मन का विषय ही नहीं। प्रेम हृदय की आभा है। इसी से मनुष्य की सभ्यता का परिचय मिलता है। मन को पशुता ने तमाम 'सभ्यताओं' में इतना महत्व दे रखा है कि हृदय की लौ धीमी पड़ती गई है। भारतीय पृथ्वी पर और महाकाव्यों में हुए सारे युद्ध इसी एकमात्र बुराई का दोहराया गया इतिहास है। यह मनुष्य सभ्यता का इतिहास नहीं, न यहीं इसकी इति है। प्रेम तो आरंभ है।
प्रेम की लौ को बचाए रखना मनुष्य की एकमात्र साधना है। रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे, फूंक मार-मारकर इसे जलाए रखना है। यदि कहीं प्रेम पर बुराई हावी हो भी गई, तो प्रेम निरंतर करते रहना है। प्रेम की आंच ही बुराई को नष्ट कर सकेगी। और यदि चाहते हैं कि कभी बुराई की काली छाया प्रेम पर न पड़े, तो आसान है मन के मकान से बाहर आकर हृदय के घर में विश्राम करना। यह क्षण हृदय का जीवंत प्रेमघर है। प्रेम पर सोचना यानी प्रेम को क्रमशः नष्ट करना है।
शाश्वत अर्थ में प्रेम को जीवित और जीवंत रखना इस जीवंत क्षण में रहना है। फिर तमाल वृक्ष का श्याम रंग भी कृष्ण प्रेम है, जिसके अभ्यंतर में सुरक्षित है श्रीराधा का आह्लाद। प्रेम के सारे सर्ग हम में ही हैं। आदिस्रष्टा भी प्रेम और आत्मस्रष्टा भी प्रेम। मनुष्य हृदय की संध्याभाषा है प्रेम। प्रेम की यह युक्ति यानी लॉजिक संसार की युक्ति के उलट है। इसीलिए अमीर खुसरो कहते हैं कि खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार, जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।
प्रेम में हार-जीत नहीं होती। हार की जीत होती है। हारी तो पी के रंग, जीती तो पी के संग। इसलिए प्रेम में होना शुभता के सर्वोच्च क्षण में होना है। इस जीवंत क्षण में उत्कंठा का स्वाद भी लेना है। फिर हर रंग में प्रेम का ही प्रतिबिंब है। रंग चाहे मीरा हो या कबीर। जयदेव हो या विद्यापति। इनसे सभ्यता की शुरुआत होती है। प्रेम सभ्यता की। राधिका-आह्लाद से पहले सभ्य होना शर्त है। सभ्य होने के तीन प्रस्थान हैं।
आत्मा की बुनावट मौन से हो और यदि वह शून्य घर में रहता हो, तो रहने वाले के पास किसी भी चीज़ का अभाव नहीं होगा, क्योंकि उसके पास आह्लाद, उत्कंठा और प्रेम की गोपन सभ्यता है, जिसे दूसरे लोग रहस्य कहेंगे। मौन के इशारे को समझना प्रेम की रस निष्पत्ति है। दूसरा प्रस्थान है अविभक्त होना। अर्धनारीश्वर के बावजूद शिव और शक्ति विभक्त हैं। विभक्त दिखने के बाद भी राधा और कृष्ण अविभक्त हैं।
यह प्रस्थान विद्यानिवास मिश्र ने अपनी रससिक्त व्याख्या में दिया है। प्रियतम के स्वप्न में सोना योगनिद्रा है, आदिम वृत्ति और विभक्त व्यक्तित्व के प्रागैतिहासिक शाप से मुक्ति है। राजनीतिक क्षरण और सामाजिक असभ्यता के उत्तर आधुनिक कालखंड में प्रेम सभ्यता की प्रतिष्ठा मनुष्य गौरव की प्राण प्रतिष्ठा है। इस युग में देश का प्रवेश ही तृतीय प्रस्थान है, जिसके मुख में नया सर्ग, आंखों में नई श्रुति और मस्तक पर नया प्रेम सोपान चिह्नित है।

सोर्स: अमर उजाला

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