सम्पादकीय

कहां फंसा है आंदोलन का पेंच, क्यों सरकार के झुकने के बाद भी नहीं मान रहे किसान

Gulabi
10 Dec 2020 1:35 PM GMT
कहां फंसा है आंदोलन का पेंच, क्यों सरकार के झुकने के बाद भी नहीं मान रहे किसान
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6 महीने के राशन से आंदोलन

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। सरकार के साथ किसानों की कई दौर की वार्ता विफल रही है. किसान कृषि कानूनों को रद्द कराने पर अड़े हैं. दूसरी ओर सरकार का कहना है कि तीनों कानून सही हैं, इसे रद्द करने की कोई बात नहीं. किसानों की बात से लग रहा है कि विरोध प्रदर्शन लंबे दिनों तक चलेगा. सरकार भले बोल रही है कि वह किसानों के हर भ्रम को दूर करेगी, लेकिन किसान अपने इरादों पर टिके हैं.


आंदोलन या राजनीति
सवाल है कि किसान अगर इस जिद पर अड़े रहेंगे कि कानून रद्द कराना ही अंतिम विकल्प है, तो शायद इस मसले का हल नहीं निकलेगा. कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर कह चुके हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) प्रणाली जारी रहेगी और एपीएमसी के अंतर्गत मंडियों को समाप्त नहीं किया जाएगा. तोमर ने यह भी कहा है कि किसानों की जमीन कोई भी किसी भी वजह से नहीं ले सकता और खरीदार किसानों की भूमि में कोई बदलाव नहीं कर सकता. सरकार की ओर से कानूनों में कई संशोधनों की बात भी कही गई है, इसके बावजूद किसान कानून रद्द कराने पर अड़े हैं. इसे देखते हुए ऐसे आरोप लगने हैं कि किसान आंदोलन राजनीति से प्रेरित है.

6 महीने के राशन से आंदोलन
किसान आंदोलन के नाम पर राजनीति हो रही है, इसका आरोप बीजेपी शुरू से लगाती रही है. कुछ किसान संगठनों का भी कहना है कि आंदोलन और बातचीत से कोई बीच का रास्ता निकलना चाहिए. लेकिन सरकार के प्रस्ताव को सिरे से नकारने का मतलब है कि किसान अपनी बात मनवाने पर ही अडिग हैं. उन्हें बीच-बचाव और समझौते से कोई लेना-देना नहीं है. अगर वाकई आंदोलन का कोई रिजल्ट निकालना होता तो किसान सैद्धांतिक रूप से अपना दबाव बनाते न कि हाईवे जाम करने की चेतावनी देते. किसानों का यह कहना कि वे छह महीने का राशन लेकर दिल्ली चले हैं, इससे साफ है कि वे आंदोलन को बनाए रखना चाहते हैं न कि उन्हें समाधान की चिंता है.

हाइवे जाम करना ही विकल्प?
किसान नेताओं ने जिस तरह से जयपुर-दिल्ली और दिल्ली-आगरा एक्सप्रेसवे को शनिवार तक बंद करने का एलान किया है, इससे साफ है कि वे बातचीत से समाधान नहीं बल्कि एकतरफा अपनी बात मनवाने पर अड़े हैं. किसानों ने 12 दिसंबर को देशभर में सड़कों पर लगे टॉल को फ्री करवाने का आह्वान किया है. इसके अलावा 14 दिसंबर को पूरे देश में जिला मुख्यालयों पर धरना देने की अपील की गई है. किसान नेताओं ने लोगों से जियो की सीम पोर्ट करवाने या उसे बंद करवाने की भी अपील की है. ऐसे विरोध से साफ है कि किसानों की मंशा बीच-बचाव की नहीं, सरकार से आरपार की है. इससे आंदोलन की दिशा तो भटकेगी ही, सरकार में भी परेशानी बढ़ेगी.

खालिस्तान और शाहीन बाग से बिगड़ेगा माहौल
आंदोलन में शाहीन बाग और खालिस्तान जैसे शब्द भी सुनने में आ रहे हैं. बीजेपी का आरोप है कि किसान आंदोलन को खालिस्तानी आतंकी हाईजैक करने की फिराक में हैं. इससे किसानों की छवि धूमिल हुई है. ब्रिटेन में भारतीय दूतावास के सामने हुए प्रदर्शन में परमजीत सिंह पम्मा भी शामिल हुआ था और खालिस्तानी झंडे लहराए गए थे. ब्रिटेन मे हुए विरोध प्रदर्शन पर वहां के भारतीय उच्चायोग के एक प्रवक्ता ने बताया कि लोगों के जमावड़े की अगुवाई भारत विरोधी अलगाववादी कर रहे थे जिन्होंने भारत में किसानों के प्रदर्शन का समर्थन करने के नाम पर भारत विरोधी अपने एजेंडे को आगे बढ़ाया. कनाडा में भी ऐसा ही देखने को मिला.

महाराष्ट्र के पुणे में एक जगह ऐसी है, जहां किसानों की मांगों के समर्थन में दिल्ली के 'शाहीन बाग' की तर्ज पर 'किसान बाग' आंदोलन शुरू किया गया है. दरअसल, हाल में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग में कई महीनों तक लगातार प्रदर्शन किया गया था, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं शामिल रही थीं. इस प्रदर्शन की चर्चा पूरे देश में हो रही थी और शाहीन बाग का नाम सबकी जुबान पर आ गया था. अब यह शब्द किसान आंदोलन में चर्चा में आ गया है. इससे किसानों के पक्ष में माहौल बनने के बजाय बिगड़ने की आशंका है.

कनाडा-ब्रिटेन का क्या रोल
किसान आंदोलन भारत में चल रहा है और किसान भी यहीं के हैं. फिर कनाडा या ब्रिटेन में इसके समर्थन में माहौल बनाने के पीछे कौन है? क्या ये वो ताकतें नहीं जो भारत की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूमिल करना चाहती हैं? किसान अपने आंदोलन को आगे बढ़ाकर ऐसी ताकतों को मौका क्यों दे रहे हैं. सीएए और एनआरसी के खिलाफ पूरे देश में विरोध प्रदर्शन के दौरान ऐसा ही ट्रेंड देखने को मिला. राष्ट्रीय राजधानी में दंगे तक हुए और पूरी दुनिया में भारत की छवि खराब हुई. जांच एजेंसियां इसका भी पता लगा रही हैं कि इसमें विदेश तत्व भी शामिल थे या नहीं. किसान आंदोलन के पक्ष में विदेशों में हो रहे प्रदर्शन से साफ है कि जानबूझ कर इस मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण किया जा रहा है. जबकि मुद्दा पूरी तरह स्थानीय है.

राजस्थान में कांग्रेस की हार का क्या संकेत
किसानों का कहना है कि उसे पंजाब, हरियाणा सहित और भी कई राज्यों के किसानों का समर्थन प्राप्त है. अगर यह बात सही है तो बुधवार को राजस्थान पंचायत चुनाव में कांग्रेस की शर्मनाक हार क्या इशारा करती है. किसान आंदोलन को सबसे ज्यादा हवा कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों ने ही दी है. ऐसे में कांग्रेस की हार का संकेत साफ है कि किसान भले सरकार और बीजेपी के खिलाफ झंडा उठाए हुए हैं लेकिन स्थानीय स्तर पर जनता बीजेपी के साथ है. हरियाणा में भी इसी महीने स्थानीय निकाय के चुनाव हैं. वहां के नतीजे भी साफ कर देंगे कि असली किसान सरकार के खिलाफ हैं या साथ में हैं.


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