सम्पादकीय

अंकों के पैमाने में ज्ञान कहां

Subhi
28 July 2022 5:53 AM GMT
अंकों के पैमाने में ज्ञान कहां
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पड़ोस में हुई हलचल से इस साल फिर इस पर ध्यान गया कि देश में सीबीएसई यानी केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तहत हुई परीक्षाओं के नतीजे घोषित हो चुके हैं।

भावना मासीवाल; पड़ोस में हुई हलचल से इस साल फिर इस पर ध्यान गया कि देश में सीबीएसई यानी केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तहत हुई परीक्षाओं के नतीजे घोषित हो चुके हैं। और इस परिणाम के साथ ही आशा, निराशा, उल्लास और क्रोध के भाव भी चारों तरफ देखने को मिल रहे हैं। यह भाव विद्यार्थियों से ज्यादा अभिभावकों के बीच देखने को मिल रहे हैं।

कहीं सत्तानबे फीसद अंकों के साथ उत्तीर्ण हुए विद्यार्थी और अभिभावक परिणाम में तीन फीसद कम अंक आने का अफसोस मना रहे हैं और विद्यार्थी उस कमी को पूरा न कर पाने के बोझ से दब रहे हैं तो कहीं असफल विद्यार्थी इसे जीवन का अंतिम परिणाम मानकर हताश होकर तनाव में जी रहे हैं। इन दोनों ही स्थितियों में कई बार कुछ विद्यार्थी आत्महत्या तक पहुंच जाते हैं। इस साल भी ऐसी खबरें आर्इं ही। जबकि यह सबको अंदाजा होगा कि अंकों से तय होती प्रतिभा की परिभाषा विद्यार्थी पर मानसिक दबाव बनाती है।

वर्तमान समय में हमारी शिक्षा व्यवस्था ही अंकों पर प्रतिभा का मानक तैयार करने वाली प्रणाली बन गई है। अगर कोई विद्यार्थी नब्बे, निन्यानबे या फिर सौ में सौ फीसद अंक लाता है तो समाज उसे सिर-आंखों पर रखता है। वहीं अंकों की दौड़ में अगर कोई पिछड़ जाता है तो समाज और खुद उस बच्चे का परिवार भी बच्चे के आत्मविश्वास की हत्या कर देता है।

दरअसल, हमारे समाज की तुलनात्मक अध्ययन की मानसिकता रही है और यह मानसिकता बच्चों में किसी भी प्रकार का विभेद नहीं करती है, बल्कि हमेशा उनका तुलनात्मक स्तर पर मूल्यांकन करती रही है। इस पूरी व्यवस्था में जो सर्वाधिक दोषी है, वह है हमारी शिक्षा प्रणाली जो आज भी पहली कक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में विद्यार्थी के मूल्यांकन का आधार उसके द्वारा प्राप्त परीक्षा परिणाम से आंकता है।

वह उस परीक्षा से इतर उसके भीतर की प्रतिभा को मूल्यांकन का आधार नहीं बना पाता है। यही कारण है कि शिक्षा व्यवस्था में सीखने से अधिक अंकों की प्राप्ति पर जोर दिया जाने लगा है। हमने साक्षरता दर बढ़ाने के लिए पहले पांचवीं और फिर आठवीं कक्षा में अनिवार्य रूप से पास करने की नीति को अपनाया, उसी का परिणाम नौवीं और दसवीं कक्षा में विद्यार्थियों का अधिक फेल होना और बीच में स्कूल छोड़ने वालों की तादाद का बढ़ना रहा।

हमने इसके समाधान के तौर पर प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा में सभी को पास करने की नीति में बदलाव करने की अपेक्षा पाठ्यक्रम को अधिक छोटा बना दिया। शिक्षा की गुणवत्ता को मजबूत बनाने की अपेक्षा शिक्षा में मात्रात्मक बदलाव पर ज़ोर दिया और उसी के अनुरूप मूल्यांकन पद्धति को सरल बनाया। क्या कभी हमने सोचा कि शिक्षा पर बनाई गई नीतियां हमेशा नाकाम क्यों होती हैं?

ऐसा इसलिए है कि ये नीतियां जमीनी स्तर पर कारगर नहीं होती हैं। हमने आठवीं कक्षा तक पास करने की नीति को तो अपनाया और साक्षरता सूचकांक में अपना नंबर भी बढ़ाया, लेकिन क्या हमारा विद्यार्थी साक्षर हो सका? इसी पास करने की नीति के कारण आज विद्यालयों में कई बार छठी या आठवीं कक्षा के विद्यार्थी भी अपना नाम शुद्ध नहीं लिख पाते हैं।

हममें से बहुत से लोग इसका दोष भी शिक्षक को देंगे, लेकिन हम भूल जाते हैं कि शिक्षक भी इसी व्यवस्था के अधीन कार्य करने वाला कर्मचारी है, जो आदेशों से बंधा है। हम शिक्षा नीति में शिक्षक और विद्यार्थी संख्या अनुपात व उसके माध्यम से शिक्षा की गुणवत्ता पर बहस करते हैं लेकिन हमने कभी इसे व्यावहारिक धरातल पर लागू नहीं किया।

सरकारी विद्यालय इस पूरे विवरण का यथार्थ हैं, जहां विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात से लेकर आधारभूत संरचना तक का अभाव देखा जाता है। अंकों के मानक मूल्यांकन आधार से उच्च शिक्षा विभाग भी अछूता नहीं रहा है। अंकों के महिमामंडन में उच्च शिक्षा तक में मानक निर्धारित कर दिया गया। उच्च शिक्षा की मूल्यवान उपाधियों को भारतीय शिक्षा व्यवस्था की जमीनी स्थिति को समझे बिना समाप्त कर दिया गया।

यह बेवजह नहीं है कि हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था में ज्ञान अर्जन से अधिक अंक अर्जन और चाटुकारिता की परंपरा बढ़ने लगी है। हमने इस परंपरा को बढ़ावा दिया है और इसी प्रणाली को विद्यार्थी और शिक्षक के मूल्यांकन का आधार बनाया है। वर्तमान समय में शिक्षक व्यवस्था की कठपुतली बन गया है। अगर वह ऐसा नहीं करता है तो निष्कासन और तबादला जैसे भारी-भरकम शब्दों से उसका परिचय करा दिया जाता है और विद्यार्थी इस व्यवस्था में अंकों की दौड़ में पिछड़ने पर कई बार जीवन की दौड़ भी हार जाता है।

ज्ञान अंकों से अधिक जीवन जीने की कला है, जिसे हम भूलते जा रहे हैं, क्योंकि इस पूंजीवादी दौर में जीने से अधिक जीने के लिए आवश्यक मूलभूत आवश्यकताओं की दौड़ में मनुष्य लगा है और वह उसी दौड़ में अपने बच्चे को पिछड़ता नहीं देखना चाहता है। यही वजह है कि आज शिक्षा बाजार के केंद्र में हैं और हम पूंजी के अधीन मजदूर बनकर रह गए हैं।


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