सम्पादकीय

बजट की दिलचस्पी कहां?

Gulabi
30 Jan 2021 5:19 AM GMT
बजट की दिलचस्पी कहां?
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जनता में कौतुक होता था।

एक वक्त केंद्र सरकार का बजट कई दिनों पहले से टीवी चैनलों पर बहस, सुर्खियों, अनुमानों, अर्थशास्त्रियों के सुझावों-विश्लेषणों का पूर्व माहौल लिए होता था। जनता में कौतुक होता था। क्या महंगा होगा, क्या सस्ता इसका सस्पेंस होता था। देश की आर्थिकी, बजट का संसद सत्र, बजट का दिन और बजट की सुर्खियों के साथ आए आंकड़ों के अर्थ पर विचार होता था। क्या वैसा माहौल, वैसा कोई कौतुक अब है? हकीकत है न बजट को लेकर कोई संस्पेंस-कौतुक है और न आर्थिकी और विकास पर कोई बहस। सोमवार को बजट आना है लेकिन क्या अखबारों, टीवी चैनलों, सत्ता पक्ष या विपक्ष में चिंता, विचार, हैंडिंग में कही संकेत मिले कि सरकार के पास बजट के लिए कैसे-कैसे विकल्प है? कैसा होगा बजट? जो छपा है या छप रहा है वह इस रूटिन भाव में है कि बजट क्योंकि आ रहा है तो उसके लिए लिखना ही है तो लिख लो कि वित्त मंत्री निर्मता सीतारमण के लिए महामारी काल में बजट बनाना आसान नहीं है।


असलियत है कि पिछले छह सालों में भारत का, केंद्र सरकार का बजट राज्यों के बजट जैसी एक बेमतलब रूटीन बात हो गई है। गुजरात या पश्चिम बंगाल का बजट जैसे सुना-अनसुना होता है वैसे केंद्रीय बजट महज साल की एक वह घटना बन गई है जिस पर न कायदे से बहस होनी है और न जनता, अर्थशास्त्रियों के इनपुट का मतलब है। छह साल में सरकार और सरकारी आंकड़ों की विश्वसनीयता पर इतनी तरह के सवाल उठे है कि बजट के अनुमान और हिसाब को ले कर डा सुब्रहमण्यम स्वामी से ले कर अरविंद सुब्रहण्यम के कहे से अर्थ निकाले तब भी समझ नहीं आएगा कि आर्थिकी की रियल दशा कैसी है?

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहां है कि यह बजट सौ साल के इतिहास का अभूतपूर्व होगा क्योंकि पहली बार महामारी बाद का बजट है। सीधा अर्थ है कि महामारी के हवाले, महामारी पर ठिकरा फोड़ कर आर्थिकी दशा-दिशा की बजट में लाचारगी जतलाई जाएगी। बजट खानापूर्ति वाला होगा। न सरकार के पास रेवेन्यू याकि पैसा है जो वह खर्चा बढ़ा कर लोगों में पैसा पहुंचाएं और डिमांड जनरेट करें। न सरकार की अपनी कोई बचत, सरप्लस है जिसे वह आर्थिकी में उड़ेल सकें, रोजगार अवसर बना सकें। न जनता के पास कमाई या पैसा है जो सरकार टैक्स बढ़ा कर अपने खातों का घाटा या नई कमाई बंदोबस्त कर पाएं। पेट्रोल-ड़ीजल, सिगरेट, शराब आदि से पहले ही इतनी कमाई कर रही है कि कमाई करने के इन पुराने तरीको में जनता की और कमर तोड़ना लगभग असंभव है।

कोई माने या न माने, मैं लगातार लिखता रहा हूं कि सन् 2016 में नोटबंदी करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पैसे की चंचलता को, लोगों के विश्वास को, उद्यमियों के जोश-उमंग को जैसे तालाबंद किया तो सालों लगेंगे पुराने दिन लौटने में और वही हो रहा है। महामारी के कारण यदि विकास दर में आजाद भारत के इतिहास में विकास दर सर्वाधिक पैंदे पर गई तो कारण पुराने है। 138 करोड लोगों का बाजार सिकुड़ा है, मांग घटी हुई है, बेरोजगारी भयावह है, पूंजी का संकट है, उद्यमशीलता सूख गई है, निवेश पैंदे पर है और आर्थिक असमानता का अंतर साल-दर-साल बढ़ता हुआ है, बैंक दिवालिया हुए है, सरकारे कंगली है तो दुर्दशा का टर्निंग पाइंट नोटबंदी का श्राप है। उसमें महामारी का मामला कंगाली में आटा गिला होने वाला है। स्थिति इसलिए बदल नहीं सकती क्योंकि नोटबंदी को सही ठहराने के लिए हुए एक के बाद एक हुए झूठे फैसलों, झूठी झांकियों को खत्म नहीं किया जा सकता। इसलिए कि ऐसा होना तब गलती हुई मानना होगा तो बजट महामारी पहले का हो या महामारी के बाद का, वह आर्थिकी का सही रास्ता बनवा ही नहीं सकता। तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कुछ भी कर लें बजट का प्रभाव, उसकी प्रतिष्ठा, गरिमा वह बन ही नहीं सकती जैसी पहले हुआ करती थी।


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