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By: divyahimachal
बदले सुर, संताप और विचार, क्योंकि चुनावी आखेट में सब जायज होने लगा। बेशर्मी की हद के उस पार दुराग्रह, विध्वंस और चरित्र को दफन करने की लड़ाई के बीच हिमाचल का अपना वजूद अगर शर्मिंदा नहीं है, तो आने वाले भविष्य की परिकल्पना क्या होगी। क्या हम हिमाचल की उम्मीदों को चुनाव के इसी सूत में बांध पाएंगे या छूटते-टूटते सिक्कों के बीच, नागरिकों का सिक्का रंग जमा देगा। एक अजीब नुमाइश जहां राजनीतिक पीढिय़ां बिखर रही हैं और इन्हीं में से हिमाचल की जनता को बटोरना है एक सफल चुनाव। खुद को विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी करार दे चुकी भाजपा के हथियार झुक गए, क्योंकि उम्मीदवारों की सूची ने ही दांत खट्टे करने का कारण दे दिया। कांग्रेस के भीतर ऐसे नजारे उनकी संस्कृति से शिकायत नहीं कर सकते, लेकिन भाजपा की किश्तियां अगर अपने ही साहिल से टकराना चाहती हैं, तो चुनावी दरिया के भंवर कम घातक नहीं हो सकते। चुनाव सूची का प्रथम दिन ऐसी इबारत लिख गया कि भाजपा के परिदृश्य में सिरदर्द के सिवा और कुछ हासिल नहीं था। अगर अपनी टिकट कटने पर भाजपा के विधायक अब आजाद उम्मीदवार घोषित होने की हिम्मत कर रहे हैं, तो ऐसी सियासी परिपाटी से जनता को हासिल क्या होगा।
भले ही दो मंत्रियों के विधानसभा क्षेत्र बदल दिए, लेकिन इसके अर्थों में नालायकी किसकी। क्या वर्तमान सरकार के दो मंत्री ही इतने निकम्मे हो गए थे कि उनकी आबरू बचाने के लिए चरित्र का ही स्थानांतरण करना पड़ा। क्या उत्तराखंड या गुजरात जैसे फैसलों से हिमाचल की नाक बचा कर रखने की चेष्टा, अब असफल होती नजर आ रही है। हैरत तो यह कि पार्टी जातीय समीकरणों में इस कद्र खो गई कि सारी राजनीति का धु्रवीकरण समाज की चूलें हिला रहा है। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र की सत्रह सीटों में से एक भी ब्राह्मण न मिलना या सामान्य सीटों पर जनजातीय उम्मीदवारों का परखा जाना, समाज की खिड़कियों पर पत्थरबाजी तो कर ही गया। इस चुनाव ने सरकारी कार्यसंस्कृति के परचे भी बांट दिए हैं। खास तौर पर भरमौर से एक विशेषज्ञ डाक्टर को सेवा काल के भीतर टिकट देकर भाजपा ने साबित कर दिया कि हर आरक्षण की वजह सियासी है और कर्म की परिभाषा गैरराजनीतिक हो ही नहीं सकती। चंबा से शिमला तक जिस सत्ता ने पांच साल निर्विरोध और निर्विघ्न अपने कार्यकाल का उपभोग किया, आज इसी की मोहमाया में बस्तियां उजड़ क्यों रही हैं। जाहिर है सत्ता अब चरित्र नहीं चंद लोगों का जमघट है और पारियों में विभक्त जोर आजमाइश का एक बड़ा अखाड़ा है, जहां जनप्रतिनिधियों को मिलने वाले वेतन-भत्ते, पेंशन और लाभकारी प्रभाव का एक ऊंचा स्तर हासिल हो रहा है।
चंबा से पवन नैयर, फतेहपुर से अर्जुन सिंह, नालागढ़ से केएल ठाकुर, आनी से किशोरी लाल, करसोग से हीरा लाल व धर्मशाला से विशाल नेहरिया के समर्थक क्यों आग बबूला हो रहे हैं। आश्चर्य यह कि परिवारवाद पर पूरी कांग्रेस को घसीटने वाली भाजपा को कांग्रेस के परिवार यानी अनिल शर्मा को टिकट देते हुए शर्मिंदा नहीं होना पड़ता। इसी मंडी में जलालत के आंसू लिए व 18 वर्षों से अपनी कर्मठता का सबूत देने वाले प्रवीण शर्मा क्यों हार जाते हैं। आखिर ऐसे लोगों को आज की भाजपा में हार कर क्यों निर्दलीय होना पड़ रहा है। प्रवीण शर्मा का भाजपा में रिपोर्ट कार्ड पढ़ा जाए, तो मालूम होगा कि उसने 2007 के चुनाव में हाथ आए पार्टी टिकट को बलिदान किया था। लगातार अगले सभी चुनावों में दरकिनार किए गए इस युवा के 18 वर्ष अगर पार्टी ने जला दिए, तो आक्रोश का धुआं शांत कैसे बैठेगा। ऐसे में भाजपा के लिए सत्ता पाने की निरंतर ख्वाहिश उस भीड़ को दूर कर सकती है, जो कभी पार्टी के आदर्शों और संघर्षों में साथ चलती थी। देश या प्रदेश के निर्माण से ऊपर अगर सत्ता हासिल करने की गिरोहबाजी शुरू हो गई, तो हर सुबह छीनी जा सकती है।
Rani Sahu
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