सम्पादकीय

'ये धुआं-सा कहां से उठता है'

Rani Sahu
2 Sep 2021 6:25 PM GMT
ये धुआं-सा कहां से उठता है
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दिल्ली के प्रसिद्ध कवि मीर ने एक बार पूछा था, देख तो दिल कि जां से उठता है

सोपान जोशी। दिल्ली के प्रसिद्ध कवि मीर ने एक बार पूछा था, देख तो दिल कि जां से उठता है, ये धुआं-सा कहां से उठता है। गजल का यह मतला कोई ढाई-सौ साल पुराना है। दिल्ली में हम आज भी कुछ ऐसे ही सवाल पूछ रहे हैं, चाहे मीर का अंदाज-ए-बयां न भी हो। एक नया आकलन बताता है कि दिल्ली की जहरीली हवा में सांस लेने वालों की उम्र उम्मीद से करीब दस साल कम रह जाती है। उत्तर भारत के लिए यह आंकड़ा साढ़े-आठ साल है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड वाले अपनी अपेक्षित आयु से सात-आठ साल पहले ही वायु प्रदूषण की बलि चढ़ जाते हैं। इस तरह के तथ्य ढाई दशक से लगातार सामने आ रहे हैं। किंतु सेहत को नुकसान भी बढ़ रहा है और जान को जोखिम भी। झोली भर-भरकर ओलंपिक पदक बटोरने की आकांक्षा करने वाली दिल्ली के हर तीसरे बच्चे का फेफड़ा इस समय कमजोर पाया जा रहा है। वायु प्रदूषण की हमारी समझ जितनी गहरी होती जा रही है, इससे निपटने का हमारा बूता उतना ही घटता दिख रहा है।

कभी-कभी साहित्य में ऐसी बात सहज ही दिख जाती है, जिसे समझाना विज्ञान के लिए कठिन होता है। उत्तर भारत के पुराने किस्से-कहानियों में गांवों पर खड़े हुए धुएं का वर्णन मिलता है। उस समय न तो कोयला जलाने वाले कारखाने थे, न ही डीजल-पेट्रोल की गाड़ियां ही। वह धुआं घरों में जलते चूल्हों का था। रसोई गैस का चलन आने के बाद लकड़ी और कंडे का इस्तेमाल कम हुआ है, किंतु दुनिया भर के सबसे प्रदूषित शहरों की सबसे बड़ी संख्या उत्तर भारत में ही है। ऐसा नहीं है कि बाकी भारत में धुआं उगलने वाले उद्योग या ट्रैफिक नहीं है, किंतु उत्तर भारत के मैदानी इलाकों का भूगोल बाकी देश से अलग है। इसे ध्यान में रखें, तो वायु प्रदूषण की मार समझ में आती ही है, गंगा-यमुना जैसी नदियों के प्रदूषण के कारण भी साफ होते हैं। हम जिस भूखंड पर रहते हैं, वह लाखों साल पहले एशिया से टकराया था। हिमालय इसी टक्कर से पैदा हुआ, इसी से हमारा उत्तरी भूभाग एशिया के नीचे दब रहा है, जबकि तिब्बत समुद्र से साढे़-तीन किलोमीटर ऊपर पहुंच गया है। इस निचले इलाके के उत्तर में हिमालय है, दक्षिण में छोटानागपुर और मालवा के पठार भी हैं और विंध्याचल पर्वत माला भी।
यह खाई हमें दिखती नहीं है। इसे हिमालय से आने वाली प्रचंड नदियों ने उसकी मिट्टी से, उसके गाद से भर दिया है। तभी पंजाब से बंगाल तक ऐसा सपाट मैदानी इलाका है, जो पानी ही बना सकता है। इस निचले इलाके के उत्तर-दक्षिण, दोनों तरफ पर्वत शृंखलाएं हैं। इसके पश्चिम की ओर थार का मरुस्थल है, जहां से रेत के कण उड़ के आते हैं। यानी यह एक भीमकाय घाटी है। यमुनोत्री और गंगोत्री से निकलने वाली धाराएं बंगाल जाकर समुद्र से मिलती हैं। इनके करीब से ही उभरने वाली सतलुज जैसी नदियां सिंधु में मिलकर अरब सागर में विसर्जित होती हैं।
पंजाब से बंगाल तक के इस निचले इलाके में बाकी देश की तुलना में हवा कम चलती है। हिमालय के ऊंचे शिखरों से निकली बर्फीली हवाओं से इस इलाके के वायुमंडल के ऊपरी हिस्से पर एक ठंडी चादर जैसी बिछी रहती है। यानी यहां का धुआं उतनी आसानी से उठकर छितराता नहीं है, जितना दक्षिणी या पश्चिमी भारत में होता है। यानी दिल्ली, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना जैसे नगर ऐसे क्षेत्र में बसे हैं, जिसकी हवा किसी 'प्रेशर कुकर' की तरह बंद है।
इस पूरे क्षेत्र में धुआं पैदा करने वाले सभी उद्यमों की सीमा तय होनी चाहिए, लेकिन यह काम बहुत कठिन है। हमारी लगभग आधी आबादी इस इलाके में बसती है। इसका कारण भी भूगोल में मिलता है। कृषि पैदावार नदियों के किनारे अधिक होती है। हिमालय की मिट्टी उर्वर है। नदी किनारे कई और सुविधाएं मिलती हैं। सड़क और रेल के विस्तार से पहले यातायात का बड़ा साधन नदियां ही थीं। आधुनिक विज्ञान मनुष्य की उत्पत्ति नदियों के किनारे नहीं मानता है, पर सभ्यताएं तो नदी किनारे ही पनपी हैं। बड़े राज्य नदियों के किनारों से ही खड़े हुए हैं, साम्राज्य भी। इससे समझा जा सकता है कि गंगा इतनी प्रदूषित क्यों है, यह भी कि उसे साफ करना इतना कठिन क्यों है, जबकि इसके लिए कार्यक्रम 1986 से चल रहे हैं। उत्तर में हिमालय और दक्षिण में विंध्य पर्वत का पानी भी गंगा में आकर मिलता है। इतने बड़े इलाके का मैला पानी ही नहीं, सभी जहरीले पदार्थ इस्तेमाल होने के बाद गंगा में पहुंचते हैं। हम जो दवाएं खाते हैं, उनका ज्यादातर हिस्सा हमारे मल-मूत्र से निकल जाता है। यह दूसरी नदियों से होता हुआ गंगा में पहुंचता है। जब करोड़ों लोगों का अपशिष्ट नदियों में मिले, तब कोई अचरज नहीं कि गंगा के इलाके में कैंसर रोग अत्यधिक है।
हमारी राजनीति का भूगोल से कोई लेना-देना नहीं है। हम धर्म या जाति या क्षेत्र के आधार पर अपना-पराया तय करते हैं। किसी पहचान को रूढ़ मानकर अपने को दूसरों से अलग करना सुविधाजनक होता है। राजनीति को इससे लाभ होता है। जब कभी राजनीति इससे उबरने की कोशिश करती है, तब उसे 'विकास' दिखता है। विकास का मतलब है कोयला और पेट्रोलियम जलाकर वायु प्रदूषण करना, नदियों का पानी निचोड़कर उनमें मैला डालना। इसके अलावा जो भी विकास की बात होती है, वह निराधार है। इसी विकास के अंतर्गत दिल्ली में 20 करोड़ रुपये की कीमत पर एक धुआं कम करने का 'स्मॉग टावर' लगा है। विकास की राजनीति से निकले उपचार तो उसके रोग से भी ज्यादा वीभत्स हैं! मीर से माफी मांगते हुए कह सकते हैं, उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया, देखा इस बीमारी-ए-'विकास' ने आखिर काम तमाम किया! अगर हम अपने समाज को स्वस्थ देखना चाहते हैं, तो हमें विकास की सीमा तय करनी होगी। आज की राजनीति पर्यावरण की बलि चढ़ाना चाहती है। उसका दावा है कि एक बार खुशहाल हो गए, तो उसके बाद पर्यावरण भी सुधार लेंगे! लेकिन यह कोरा झूठ है। हमारी रोजी-रोटी राजनीति और विकास से नहीं, कुदरत की नेमत से है। पर्यावरण का नाश करके हम विकास का ब्याज नहीं कमा सकते हैं। राजनीति का आयकर चुकाना तो बहुत दूर की बात है!


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