सम्पादकीय

जाना कहां था, पहुंचे कहां हैं

Rani Sahu
14 Aug 2021 6:28 PM GMT
जाना कहां था, पहुंचे कहां हैं
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खुशी के इस मौके पर मैं रंजो-गम की बातें नहीं करना चाहता, पर कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाएं घट जाती हैं

शशि शेखर। खुशी के इस मौके पर मैं रंजो-गम की बातें नहीं करना चाहता, पर कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाएं घट जाती हैं, जिनको नजरअंदाज करना संभव नहीं। देश जब आजादी की 74वीं वर्षगांठ से चार दिन दूर था, तब संसद में जो हुआ, उससे लोगों की उम्मीदें बिखर गईं और संसदीय लोकतंत्र के प्रति उनकी आस्था को गहरी चोट पहुंची। माननीय सदस्य गण भूल कैसे गए कि आजादी और तरक्की का यह दौर पीढ़ी-दर-पीढ़ी बड़ी मुश्किल से जोड़ा गया है। इसे यूं जाया नहीं किया जा सकता। अपनी बात स्पष्ट करने के लिए मैं आपको 50 साल पीछे ले चलने की इजाजत चाहूंगा, क्योंकि इस शानदार सफर का हमसफर मैं भी हूं।

सितंबर, 1971 से बात शुरू करता हूं। उस वक्त शहर इलाहाबाद में हर ओर जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की तस्वीरें होतीं। इलाहाबादी इस बात पर गर्व किया करते कि वे नेहरू खानदान के मूल शहर के निवासी हैं। श्रीमती गांधी जोशीले भाषणों के लिए विख्यात थीं। उनके भाषण हम आकाशवाणी पर सुनते, जिनमें वह अक्सर भारत के स्वर्णिम भविष्य का खाका खींचती दिखाई देतीं, पर जमीनी हालात भिन्न थे।
1965-1967 के अकाल की काली छाया अभी तक देश पर मंडरा रही थी। गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान में उन दिनों भी सूखा पड़ा हुआ था। ऊपर से देश में महज 10.78 करोड़ टन खाद्यान्न उपजा था। अगला कृषि वर्ष तो और खराब साबित हुआ था, नतीजतन हमें अमेरिका और विदेश से करीब 20 लाख टन अनाज आयात करना पड़ा। समाज राशन की दुकानों के बेरहम तिलिस्म में कैद था। गांवों में लोगों को महीनों तक चीनी के दर्शन नहीं होते। पाकिस्तान से जंग की चर्चाएं उफान पर थीं। जैसी कि आशंका थी, दिसंबर के पहले हफ्ते में जंग छिड़ गई। भारत ने पाकिस्तान पर निर्णायक जीत हासिल करते हुए उसे दो टुकड़ों में बांट दिया। समूचा देश राष्ट्रीयता के दर्प से दपदपा उठा। इस उन्माद में हम शून्य से नीचे खिसक चुकी विकास-दर, राशन की दुकान के आगे लगी लंबी कतारें और रोजमर्रा की जरूरतों का दंश भूल चुके थे। आठ महीने बाद आजादी की 25वीं सालगिरह तक यह जज्बा कायम था।
ऐसा होना अस्वाभाविक न था, क्योंकि मुल्क की साक्षरता दर महज 35 फीसदी पर झूल रही थी। उन दिनों जनमने वाले हजार शिशुओं में 138 अकाल काल-कवलित हो जाते थे। नागरिकों की जीवन प्रत्याशा दर 48.72 साल थी। राज चला गया था, पर राजाओं के प्रति जनभक्ति यथावत थी। राजनीतिक खानदान इसका लाभ उठा रहे थे। उनमें बढ़ोतरी होती जा रही थी, जो आज तक जारी है।
अब 1997 पर आते हैं। हमारे देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत का यह छठा वर्ष था। कंप्यूटरों ने जिंदगी में दखल दे दी थी और मोबाइल फोन की घंटियां भी यदा-कदा सुनाई पड़ने लगी थीं। तब हमें मालूम न था कि इसके जरिए हम मानवता के सबसे बडे़ बदलाव से रूबरू हो रहे हैं। शिक्षा का निजीकरण हो रहा था और व्यवसायियों ने इंजीनियरिंग, मेडिकल अथवा डिग्री कॉलेज खोलने शुरू कर दिए थे। कोई आश्चर्य नहीं कि 2001 की जनगणना में इसका असर दिखाई पड़ा। हमारी साक्षरता दर ने जबरदस्त छलांग लगाई और अब देश में 64.83 फीसदी लोग पढे़-लिखे हो गए थे। शिशु मृत्यु दर में भी खासी कमी आई थी। अब हजार में से 73 शिशुओं की ही जान जाती थी और जीवन प्रत्याशा दर भी बढ़कर औसतन 61 साल हो गई थी। हरित-क्रांति की वजह से हम इतनी बड़ी आबादी का पोषण करने लायक हो चुके थे।
इस बीच श्रीलंका में हमारे द्वारा भेजा गया शांति रक्षक दल नाकाम साबित हुआ था। इससे वहां के तमिल विद्रोही इतने नाराज थे कि उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी थी। इससे पहले सिख अंगरक्षकों ने 31 अक्तूबर, 1984 को उनकी मां इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री आवास में मार दिया था। देश तब सन्न रह गया था और राजीव की हत्या ने भी खलबली मचा दी थी, पर हिन्दुस्तान का सफर जारी रहा। भारत हर हाल में चलना जानता है।
अब तक प्रदेशों में ही आयाराम-गयाराम मार्का सरकारें होती थीं। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उभार ने दिल्ली पर भी इसका असर डाल दिया था। उस समय इंद्र कुमार गुजराल एक अस्थाई गठबंधन द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री थे। ऐसा लगता था, जैसे दिल्ली में गुलाम वंश के दौरान हुकूमत करने वाले 40 अमीरों के गुट की पुनस्र्थापना हो गई हो। सीमाओं का हाल बेहाल था।
उन दिनों तक भारत में दहशतगर्दी भी जड़ पकड़ चुकी थी। कभी पूर्वोत्तर सुलगा करता था, अब कश्मीर से भी बुरी खबरें आने लगी थीं। ऐसे अपशकुनी समय में पाकिस्तान का महत्वाकांक्षी होना स्वाभाविक था। दो वर्ष बाद कारगिल की घटनाएं इन्हीं हालात की पैदाइश थीं। कोई अचरज नहीं कि 50वीं सालगिरह पर 25वीं वर्षगांठ जैसा जोश और जुनून गायब था।
अब वर्तमान वक्त पर आते हैं। भारत ने गए 74 सालों में गजब की आर्थिक तरक्की की है। कोरोना के हमले के बावजूद दुनिया मानती है कि हम आज नहीं तो कल, शीर्ष तीन आर्थिक महाशक्तियों के क्लब में शामिल हो जाएंगे। इस साल जीडीपी का अनुमान 9.5 फीसदी लगाया जा रहा है और साक्षरता दर भी 78 प्रतिशत तक पहुंच गई है। शिशु मृत्यु दर भी प्रति हजार 28 पर आ पहुंची है और आम आदमी की जीवन प्रत्याशा दर अब लगभग 70 वर्ष है। हम चाहें, तो इन पर इतरा सकते हैं, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि पड़ोसी श्रीलंंका में शिशुओं की प्रति हजार मृत्यु दर छह पर आ गई है। भारत अपनी इतराहटों और शरमाहटों को साथ जीने का अभ्यस्त है।
सीमाओं पर आज भी तनाव है। चीन का दुस्साहस अभी खत्म नहीं हुआ है। हालांकि, कडे़ भारतीय रुख से उसे कई स्थानों पर पीछे हटना पड़ा, मगर यह मान लेना कि खतरा टल गया है, भूल होगी। भारतीय सत्ता-सदन इस तथ्य को जानता है, इसीलिए तीनों सेनाओं को एक कमान में लाया गया है। मौजूदा रक्षा प्रमुख (चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ) विपिन रावत दो मोर्चों पर एक साथ लड़ने का दम भरते हैं।
कोई मुझसे पूछे कि गए 50 सालों का गवाह होने के नाते आप अपने देश की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं, तो मेरा जवाब महज एक लफ्ज का होगा- लोकतंत्र! हम भारतीय जम्हूरियत के जरिये अपने समय और समाज की चुनौतियों से निपटते आए हैं, पर हमारे सांसद शायद इस गौरवपूर्ण तथ्य को भूल गए हैं। संसार की हर सभ्यता में जन्मदिन के अवसर पर अपनी भूलों से सबक लेने का चलन है। क्या सियासतदां इस सालाना मौके का लाभ उठाएंगे? आशा है, संसद के अगले सत्र से पूर्व वे आपसी सद्भाव कायम करने की मिसाल पेश करेंगे, ताकि हमारी संसद समूची गरिमा के साथ अपने दायित्व का निर्वाह कर सके।
इसी नेक उम्मीद के साथ आपको स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं!


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