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- इतनी फ़कीरी कहां से...
दुष्यंत का शे'र, ''मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, वो ़गज़ल आपको सुनाता हूँ'', गुनगुनाते हुए मियाँ फुम्मन ने मियाँ जुम्मन के सामने सवाल उछाला, ''क्या फ़कीरी को दुष्यंत की गज़ल की तरह ओढ़ा-बिछाया जा सकता है?'' जुम्मन हँसते हुए बोले, ''अमाँ! कितने लोग ऐसे हैं, जो वही ओढ़ते-बिछाते होंगे, जो वे सोचते हैं। ओढ़ने-बिछाने को लेकर मुझे दुष्यंत पर भी संदेह है कि उन्होंने यह शे'र पूरे होशो-हवास में लिखा होगा। जो ऊपर से आता है, आदमी कह तो जाता है लेकिन उसके जीवन में कहाँ उतर पाते हैं, वे तमाम जज़्बात, एहसासात और ़फलस़फे, जिनकी बयानी वह अपनी रचनाओं में करता फिरता है। मुझे तो साहित्यकार और ठूँठ एक जैसे नज़र आते हैं। बस फ़र्क इतना है कि ठूँठ होने के बावजूद साहित्यकार फलों से लदा दिखाई देता है। मियाँ, फ़कीरी ऐसा बाना है, जिसे ओढ़ने-बिछाने की ज़रूरत नहीं होती। मन से ़फ़कीर होना और फ़कीरी दिखाने में उतना ही फासला है, जितना मधुबाला और राखी सावंत की खूबसूरती में। एक चेहरे पर मेकअप मेन को मेकअप करने की जगह नहीं दिखती थी और दूसरे चेहरे पर कोई छूटती नहीं। पर सच तो सच है उजाले की तरह।