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- कहां गए वे लोग
साहित्य में जो लोग घर फूंक कर तमाशा देखा करते थे, पता नहीं आज वे लोग कहां गए! दरअसल वे असली साहित्यकार लोग थे। नाक-नक्शे में तो ये लोग हमारी ही तरह थे, परंतु इनकी मुद्रा गंभीर तथा स्वभाव के ये चिड़चिड़े हुआ करते थे। ये लोग थे तो लेखक ही, परंतु लिखते कम और बोलते ज्यादा थे। लिखने के बाद ये लोग अपनी रचनाओं को बांधकर सोने के पलंग के नीचे रख देते थे। प्रकाशन के लिए उन दिनों लघु पत्रिकाएं निकला करती थीं। ये असली साहित्यकार ही इन्हें निकाला करते थे। घर के जेवर या वेतन से वे इन पत्रिकाओं का अनियतकालिक प्रकाशन जारी रखते थे। इनमें उनके ही जैसे खुरदरे और चिड़चिड़े लोगों की रचनाओं का प्रकाशन हुआ करता था। ये लोग अपने को साहित्य का नियंता व नियामक माना करते थे, साहित्य की नींव इन्हीं पर टिकी हुई थी। वे बड़ी व्यावहारिक पत्रिकाओं में लिखने वाले लेखकों को व्यावसायिक माना करते थे तथा उन्हें हेय दृष्टि से देखा करते थे। जो लोग साहित्यिक लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन किया करते थे, वे संपादक व साहित्यकार दोनों हुआ करते थे। वे सेठों से चंदा भी अपने पत्रों को चलाने के लिए लिया करते थे।