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हिमाचल की शिक्षा अपनी औकात देखने के लिए संस्थागत व व्यक्तिगत उपलब्धियों का आकलन कर सकती है
दिव्याहिमाचल.
हिमाचल की शिक्षा अपनी औकात देखने के लिए संस्थागत व व्यक्तिगत उपलब्धियों का आकलन कर सकती है। प्रदेश के चारों तरफ फैले शिक्षण संस्थानों का मूल्यांकन भले ही न हो, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर यह चर्चा तो होगी कि कहां पढ़ा जाए। रोजगार और शिक्षा का रिश्ता अब संस्थान की बुनियाद पर तय होता है और इसके लिए राष्ट्रीय परिपाटी में खासी प्रतिस्पर्धा है। आश्चर्य यह है कि प्रदेश का प्रथम तथा अतीत के प्रतिष्ठित कदमों से निकला हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय आज शिक्षा के पैमानों से इतना दरकिनार हो चुका है कि देश के श्रेष्ठ दो सौ संस्थानों की सूची में भी इसकी योग्यता-उपयोगिता दर्ज नहीं होती।
नेशनल इंस्टीच्यूट रैंकिंग फ्रेमवर्क के सामने प्रदेश शिक्षा के आदर्श ढह रहे हैं, तो आईआईटी मंडी से एनआईटी हमीरपुर का कद घट रहा है। निजी क्षेत्र में सोलन की शूलिनी यूनिवर्सिटी ने खुद को सौ की सूची में बरकरार रखा है, तो इस तरह सारे प्रदेश की वास्तविकता सामने आ जाती है। कहां तो हम चले थे हिमाचल को शिक्षा का हब बनाने और कहां आज हमारे इरादे ही कन्नी काट रहे हैं। शुरुआती दौर की शिक्षा में दम था, लेकिन मात्रात्मक फैलाव ने सारी गुणवत्ता छीन ली। शिमला विश्वविद्यालय के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अगर यही स्थिति है, तो तकनीकी विश्वविद्यालय का औचित्य समझ में आ सकता है। हिमाचल विश्वविद्यालय के माध्यम से कभी हिमाचली विवेक, विवेचन, अध्ययन, शोध और बौद्धिक तर्क की क्षमता का परिमार्जित स्वरूप, प्रशासनिक, वैज्ञानिक और समाज-राजनीति शास्त्र के माध्यम से प्रदर्शित होता था। आरंभिक दौर में सूचना तकनीक व बिजनेस स्टडी के परचम दिखाई दिए, लेकिन यह औचित्य भी छीना जा चुका है।
जिस तकनीकी विश्वविद्यालय के लिए राजनीतिक ताज सजा, उसने तमाम इंजीनियरिंग कालेजों के साथ-साथ बिजनेस स्टडीज का बेड़ा गर्क कर दिया है। अब छोले-भटूरे की तरह अगर बिजनेस की पढ़ाई हर कालेज में शुरू होगी या इसी तरह हर कालेज को स्नातकोत्तर होने का दर्जा चाहिए, तो किस पैमाने पर शिक्षा का फालूदा निकलेगा, यह राष्ट्रीय रैंकिंग का संदेश है। इसी दौर में सबसे निम्र दर्जे की शाखा में बैठे केंद्रीय विश्वविद्यालय का न कोई अतीत है और न ही भविष्य दिखाई देता है। सियासी खिचड़ी में शिक्षा के चावल तो उबल सकते हैं, लेकिन प्रदेश का शैक्षणिक नेतृत्व भूखा ही रहेगा। प्रदेश की सबसे घटिया मानसिकता का शिकार हुआ केंद्रीय विश्वविद्यालय केवल केंद्र व प्रदेश सरकारों की नीयत व नीति का पश्चाताप करता रहेगा। विडंबना यह है कि शिक्षण संस्थान अब नेताओं की मूंछ पर ही उग रहे हैं और इसीलिए प्रदेश में दो-अढ़ाई सौ प्राइमरी स्कूलों में एक छात्र नहीं, आधे सरकारी कालेजों में पांच सौ से कम विद्यार्थी या कुछ ऐसे भी हैं जहां बमुश्किल सौ का आंकड़ा पूरा होता है।
शिक्षा को दिशा देने के लिए नई शिक्षा नीति पर समारोह आयोजित हो सकते हैं या तर्कों की जुबान में प्रशंसा के खेत उगाए जा सकते हैं, लेकिन काबीलियत में न फैकल्टी परिष्कृत है और न अध्ययन से अध्यापन तक कोई लक्ष्य दिखाई दे रहा है। सरकार के लिए अगर आंकड़े ही पैमाना रहेंगे, तो शिमला विश्वविद्यालय को न जाने कितना नीचे गिरना पड़ेगा। वरना इस रैंकिंग के परिणाम सीधे परिवर्तन का दिशा-निर्देश दे रहे हैं। प्रदेश सरकार शिमला विश्वविद्यालय के कम से कम चार अध्ययन केंद्र बना कर शिक्षा के उच्च मानदंडों पर आधारित अलग-अलग स्कूल स्थापित कर सकती है। इसके अलावा प्रदेश के एक दर्जन कालेजों को राज्य स्तरीय दर्जा देते हुए इन्हें अलग-अलग विषयों की विशिष्टता में अंकित करना होगा, अन्यथा राष्ट्रीय रैंकिंग के आगे मुंह छिपाने की जगह भी नहीं मिलेगी। देश के टॉप सौ संस्थानों में हिमाचल की पढ़ाई न तो ह्यूमैनिटी और न ही कामर्स, कानून, बिजनेस, मेडिकल, डेंटल, विज्ञान तथा अनुसंधान में दिखाई दे रही है, तो यह स्थिति प्रदेश के अधिकांश छात्रों को हिमाचल से बाहर जाने के लिए उत्प्रेरित ही करेगी।
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