- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- द्वितीय विश्व युद्ध के...
सम्पादकीय
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एडोल्फ हिटलर के कहर से खुद को बचाने के लिए जब महिलाओं ने लिया था 'लाल लिपिस्टिक' का सहारा
Gulabi Jagat
30 April 2022 7:05 AM GMT
x
दुनिया के इतिहास में 30 अप्रैल की तारीख बेहद अहम है
अनिमेष मुखर्जी |
दुनिया के इतिहास में 30 अप्रैल की तारीख बेहद अहम है. इस दिन जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर (Adolf Hitler) ने आत्महत्या की थी. हिटलर के होलोकास्ट पर तमाम बातें लिखी जा चुकीं हैं. तमाम फ़िल्में बन चुकी हैं. आज उनकी बात नहीं करते हैं. द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) और लाल लिप्स्टिक पर बात करते हैं. एक ऐसी घटना पर बात करते हैं, जहां एक लिप्स्टिक ने हज़ारों औरतों की ज़िंदगी बदल दी. लिप्स्टिक, क्रीम, पाउडर लगाने को लोग कई बार कटाक्ष की तरह इस्तेमाल करते हैं. इतिहास में लंबे समय तक लाल लिप्स्टिक लगाने वाली महिलाओं को खराब चरित्र के साथ जोड़कर देखा जाता रहा, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि दुनिया में एक घटना ऐसी भी है, जहां युद्ध की त्रासदी से उबरने में लिप्स्टिक काम आई थी और कई औरतों की जान बची थी.
बात अप्रैल 1945 की है जब दूसरा विश्वयुद्ध खत्म होने को था और हिटलर की हार तय हो चुकी थी. कर्नल मार्विन विलेट गॉनिन को बतौर अफ़सर बार्गेन बिलसेन कैंप भेजा गया. यह नात्ज़ियों का कैंप था जहां हॉलोकास्ट के लिए हज़ारों यहूदी बंद थे. हालत यह थी कि औसतन 500 रोज़ लोग मर रहे थे और इनके मरने की वजह कोई सज़ा या अत्याचार नहीं था. इनमें से ज़्यादातर लोग जीवन की जिजविषा खो देने के चलते मर रहे थे. सड़क पर लाशें पड़ी रहती थीं. लोगों की हालत यह थी कि वे कीड़े पड़े भोजन को भी यूं ही उठाकर खा लेते थे, क्योंकि उन्हें अपने जीने-मरने से फ़र्क नहीं पड़ता था. कर्नल को रेडक्रॉस के ज़रिए रसद की पहली खेप मिली और उसमें ढेर सारी सुर्ख लाल लिप्स्टिक थीं. कर्नल गॉनिन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि सबसे पहले तो किसी को समझ नहीं आया कि ये मज़ाक था या कुछ और. वहां हज़ारों दूसरी चीज़ों की ज़रूरत थी.
लिप्स्टिक ने महिलाओं में चेतना जगाई
लोगों को रसद और दवाएं नहीं मिल रहीं थीं और किसी ने सुर्ख लाल लिप्स्टिक भेजी थी, क्यों भेजी थी पता नहीं, लेकिन इतना तो तय था कि किसी पुरुष फ़ौजी ने लिप्स्टिक की मांग नहीं की थी. अब कैंप की हालत यह थी कि वहां लोगों को महीनों से ढंग का खाना नहीं मिला था. हर समय मौत के खौफ़ में रहते हुए उनकी जीने की इच्छा खत्म हो चुकी थी. तमाम औरतों को बिना कपड़ों के बिस्तर पर पड़े हुए, सिर्फ़ कंबल लपेटकर इधर-उधर घूमते हुए देखा जा सकता था. लोग चलते-चलते गिरकर मर जाते, राजनीतिक हल्कों में युद्ध खत्म हो चुका हो, लेकिन इन कैदियों के दिमाग से उसका खौफ़ नहीं जा रहा था. अब एक लिप्स्टिक आ गई थी, तो कर्नल गॉविन ने उसे महिलाओं में बंटवा दिया. शुरू में कुछ दिन कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. फिर एक दिन एक महिला ने लिप्स्टिक लगाई. उसे देखकर अन्य ने भी ऐसा किया और देखते ही देखते उनके अंदर जीवन के अंकुर पनपने लगे.
कर्नल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि काश, मुझे पता चल पाता कि यह लिप्स्टिक वाला आइडिया किसका था. हमने इन महिलाओं की मदद के लिए बहुत कुछ किया, लेकिन जो काम रेड लिप्स्टिक से हुआ, वह कोई और चीज़ नहीं कर पाई… इन लिप्स्टिक ने महिलाओं को एक संख्या वाले शरीर से वापस एक महिला में बदल दिया. लिप्स्टिक धीरे-धीरे उनके अंदर की इंसानियत को वापस ले आई. उनके अंदर यह विचार वापस पनपा कि वे दिखती कैसी हैं.
वैसे लिप्स्टिक इस डेथ कैंप में ही इस्तेमाल नहीं हुई. प्रथम विश्व युद्ध में ही मेकअप को प्रचारित किया गया. पुरुष सेना में भर्ती होकर मोर्चे पर जा रहे थे, तो महिलाएं पोस्टल सर्विस, कंडेक्टर और तमाम दूसरे काम कर रही थीं. पुरुषों वाले कथित काम करते हुए वे अपनी कोमलता खो न दें, इसलिए मेकअप करने के प्रचार बनाए गए. उदाहरण के लिए एक स्लोगन था कि ड्यूटी कर रही ब्यूटी की ड्यूटी है कि उसकी ब्यूटी बनी रहे. यह स्लोगन अखबारों और पर्चों में खूब छपा और यह भी कहा गया कि युद्ध का असर चेहर पर नहीं दिखना चाहिए. हालांकि, इस समय पर रेड लिप्स्टिक सीन में नहीं थी. सारा फ़ोकस फ़ेस क्रीम पर था.
हिटलर को महिलाओं के मेकअप करने से नफ़रत थी
द्वितीय विश्व युद्ध में औरतों के मेकअप करने का इस्तेमाल बहुत तरह से हुआ. जैसे मित्र राष्ट्रों की महिलाओं के अंदर यह भाव प्रचारित किया गया कि मेकअप करना उनका राष्ट्र के प्रति कर्तव्य है. उन्हें चमकीले पन्नों वाली मैग्ज़ीन में छपी मॉडल जैसा बनने के लिए कहा गया, ताकि सेनाओं का मनोबल बढ़ता रहे. साथ ही, यह भी प्रचारित था कि हिटलर को महिलाओं के मेकअप करने से नफ़रत थी, तो लाल लिप्स्टिक को हिटलर के विरोध का तरीका बताया गया. कम कपड़ों वाली पिन अप गर्ल्स को देशभक्ति का प्रतीक बताया गया. एक सैनिक ने 1941 में वोग को लिखा कि ऐसे मुश्किल समय में बदसूरत दिखना गद्दारी माना जाना चाहिए.
बात सिर्फ़ लिप्स्टिक लगाने के प्रोपोगैंडा तक नहीं रुकी. उस समय की बड़ी मेकअप कंपनी टैंगी ने वॉर, विमेन ऐंड लिप्स्टिक करके एक पूरा कैंपेन शुरू किया. रेजिमेंटल रेड नाम का लिप्स्टिक शेड निकला जो बेहद लोकप्रिय हुआ. सेना में काम करने वाली महिलाओं के लिए खास तौर पर एक किट निकाली गई जिसके शेड उनकी वर्दी से मेल खाते थे. अब इन मेकअप वाले विज्ञापनों में ढेर सारा प्रोपोगैंडा था, लेकिन यह भी सच है कि युद्ध के कड़वे यथार्थ और इन महिलाओं के बीच में यह मेकअप एक परत का काम भी करता रहा. शायद इसीलिए, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन में तमाम चीज़ों पर राशनिंग थी, लेकिन मेकअप और फ़ैशन पर नहीं रही.
वैसे एक बात सोचने लायक है कि जब भी लोग किसी अवसाद वाली स्थिति से निकलना चाहते हैं, सबसे पहले अपना बाहरी रूप बदलते हैं. नए तरीके के कपड़े पहनना, बाल कटवाकर बिलकुल नया स्टाइल अपना लेना, कुछ अलग हटकर ट्राई करना बहुत सामान्य चीज़ है. वैसे भी, देवानंद कहा करते थे कि जिस दिन इंसान शीशा देखना छोड़ देता है, उसी दिन बुड्ढा हो जाता है. वैसे आपने भी मेकअप के बारे में बहुत नज़रिए सोचे होंगे, लेकिन क्या आपने सोचा था कि गोली से मिलते जुलते आकार वाली लाल लिप्स्टिक आधी आबादी को युद्ध की विभीषिका से निकालकर लाने वाली भी हो सकती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Gulabi Jagat
Next Story