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कब होगी कश्मीरी पंडितों की वापसी
बलबीर पुंज : जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और धारा 35-ए की विदाई के दो वर्ष पूरे होने के अवसर पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का एक साक्षात्कार सुर्खियों में रहा। उसमें उमर अब्दुल्ला ने भारत सरकार के इस ऐतिहासिक कदम पर कटाक्ष करते हुए कहा कि दो वर्ष बीत जाने के बाद कितने कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी हो पाई है? नि:संदेह उनका घाटी में कश्मीरी पंडितों की वापसी से कोई सरोकार नहीं है। वह तो अप्रत्यक्ष रूप से उस विभाजनकारी राजनीति को न्यायोचित ठहराने का प्रयास कर रहे हैं, जिसकी शुरुआत उनके दादा शेख अब्दुल्ला ने 90 वर्ष पहले की थी। कालांतर में उसी राजनीतिक दृष्टिकोण को उनके पुत्र फारूक अब्दुल्ला और अन्य मानसबंधुओं ने आगे बढ़ाया। मुफ्ती परिवार को भी इसी में गिना जा सकता है।
कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार
तीन दशक पहले कश्मीरी पंडितों पर हुआ अत्याचार और परिणामस्वरूप उनका सामूहिक निर्वासन कोई स्वतंत्र घटना या अपवाद नहीं है। इसका बीजारोपण 14वीं शताब्दी में तब हुआ, जब कश्यप मुनि की तपोभूमि और शैव-बौद्ध मत के प्रमुख केंद्रों में से एक इस क्षेत्र का इस्लामीकरण प्रारंभ हुआ। कालांतर में इसे 'काफिर-कुफ्र' की अवधारणा से सींचा गया। बौद्ध राजकुमार रिंचन इस्लामी मतांतरण के पहले शिकार बने। फिर कश्मीर से हिंदुओं को पलायन के लिए बाध्य किया गया। मस्जिदों से भारत और हिंदुओं की मौत की दुआ मांगी गई। मजहबी नारों से माहौल गूंज उठा। स्थानीय लोगों ने आतंकियों की ढाल बनकर सुरक्षाबलों पर पत्थर बरसाए। सिनेमाघरों पर ताले लग गए। स्कूलों को जलाया गया। निजाम-ए-मुस्तफा यानी शरीयत कानून की जोरदार पैरवी हुई। इस क्षेत्र में यह सब औरंगजेब जैसे क्रूर इस्लामी शासक के दौर में भी असंभव था। उसे शेख अब्दुल्ला ने 1931 में सेक्युलरवाद की आड़ में संभव कर दिखाया। शेख अब्दुल्ला को इसमें तत्कालीन भारतीय नेतृत्व के वरदहस्त और पाकिस्तान को जन्म देने वाली विभाजनकारी सोच से पूरा सहयोग मिला। इसी परिपाटी को शेख के अनुचरों ने आगे जारी रखा। अब 370 और 35ए की बहाली की मांग इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
शेख अब्दुल्ला को भड़काऊ भाषणों ने कश्मीर का नेता बना दिया
क्या 90 वर्ष पहले कश्मीर की स्थिति इतनी विषाक्त थी? महाराजा हरी सिंह के पुत्र और वरिष्ठ कांग्रेस नेता डा. कर्ण सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, '9 मार्च 1931 को जब उनका जन्म हुआ, तब श्रीनगर में उत्सव का माहौल था।' यह स्पष्ट सूचक था कि तब रियासत में सद्भाव था। महाराजा हरी सिंह स्वयं किसी सामान्य हिंदू की भांति मजहबी स्वतंत्रता, बहुलतावाद और भेदभाव रहित लोकतांत्रिक व्यवस्था के पक्षधर थे। यह समरस स्थिति तब बिगड़ी, जब उसी वर्ष मुहम्मद शेख अब्दुल्ला अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी कर वापस घाटी लौटे। उन्होंने 21 जून 1931 को खानकाह-ए-मौला मस्जिद से अपने सार्वजनिक जीवन का आगाज किया। शेख के भड़काऊ भाषणों ने उन्हें कश्मीर का बड़ा नेता बना दिया। महाराजा हरी सिंह के विरुद्ध मजहबी आंदोलन के लिए उन्होंने मुस्लिम शोषण और कथित सामंतवाद को आधार बनाया। यह विचित्र भी था, क्योंकि शेख ने अपनी आत्मकथा 'आतिश-ए-चिनार' में स्वयं स्वीकार किया था कि 'महाराजा (हरी सिंह) सदैव ही मजहबी विद्वेष से ऊपर थे और अपने कई मुस्लिम दरबारियों के निकट थे।'
शेख ने महाराजा हरी सिंह को धोखा देकर नेहरू की मेहरबानी से संभाली जम्मू-कश्मीर की कमान
शेख को 'शेरे कश्मीर' भी कहा जाता है। वह कितने बहादुर थे, इसका पता 26 सितंबर, 1947 को महाराजा हरी सिंह को लिखे उनके पत्र से लग जाता है। उस समय शेख जेल में थे। तब उन्होंने महाराजा और राज्य के प्रति अपनी पार्टी की निष्ठा प्रकट करते हुए लिखा था कि कश्मीर के प्रशासन को अनुकरणीय बनाने के लिए वह अपना सहयोग देने के लिए हमेशा महाराजा के साथ हैं। शेख ने महाराजा, सिंहासन और डोगरा राजवंश के प्रति स्वामिभक्ति की लिखित में कसमें भी खाईं। इसके बाद महाराजा ने सभी राजनीतिक कैदियों को क्षमादान दे दिया। इसमें शेख भी छूट गए, परंतु जैसे ही जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ तो बाजी एकदम पलट गई। तब शेख ने पं. नेहरू से मिलकर महाराजा हरी सिंह को उनकी ही रियासत से बेदखल करा दिया। महाराजा को मुंबई जाकर शरण लेनी पड़ी। शेख ने नेहरू की मेहरबानी से जम्मू-कश्मीर की कमान संभाल ली। इसके साथ ही उन्होंने जम्मू-कश्मीर को भारत से विलग करने का कुचक्र रचना शुरू कर दिया। यह घटनाक्रम शेख के वास्तविक चरित्र को ही रेखांकित करता है।
माउंटबेटन की कुटिलता, शेख अब्दुल्ला के मजहबी मंसूबों और पं. नेहरू की अदूरदर्शिता
यह सत्य नहीं है कि जिस संधि के तहत जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ था, उसमें अनु. 370 और धारा 35-ए एक महत्वपूर्ण शर्त थी। वास्तव में महाराजा ने संधि पत्र पर हस्ताक्षर के समय कोई विशेषाधिकार नहीं मांगा। यह तो वायसराय लार्ड माउंटबेटन की कुटिलता, शेख अब्दुल्ला के मजहबी मंसूबों और पं. नेहरू की अदूरदर्शिता का परिणाम था। इसकी परिणति 17 अक्टूबर 1949 को संविधान में अनु. 370 और 14 मई 1954 को धारा 35-ए के जुड़ाव के रूप में हुई। हालांकि यह व्यवस्था अस्थायी ही की गई थी।
कश्मीर को हिंदू विहीन करने वाली जिहादी मानसिकता
यदि कश्मीर को हिंदू विहीन करने वाली जिहादी मानसिकता को समझना है तो हमें अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान द्वारा किए कबाइली आक्रमण में लेफ्टिनेंट कर्नल नारायण सिंह से जुड़े हृदयविदारक घटनाक्रम को समझना होगा। नारायण सिंह महाराजा हर्री ंसह की रियासती सेना में 4जेएके के कमांडिंग अधिकारी थे। उनकी कंपनी में हिंदू-मुस्लिम सैनिकों की संख्या लगभग बराबर थी। एक दिन रात के अंधेरे में लेफ्टिनेंट कर्नल नारायण सिंह और अन्य हिंदू अधिकारियों की हत्या करके सभी मुस्लिम सैनिक शत्रुओं से जा मिले। वे हथियार भी लूट ले गए।
अलगाववाद, कट्टरता की समाप्ति जल्द संभव नहीं
स्पष्ट है कि जिस अलगाववाद, कट्टरता और घृणा को यहां दशकों से खाद-पानी मिला है, उसकी समाप्ति एक या दो वर्ष में संभव नहीं। इस भूखंड के मूल निवासी और स्थानीय संस्कृति के ध्वजवाहक कश्मीरी पंडितों की वापसी यहां तभी संभव है, जब घाटी को विषाक्त मजहबी माहौल मे मुक्ति मिले। अनु. 370 और धारा 35 ए की विदाई इसी दिशा में एक ठोस पहल है। ऐसे में इस कदम से तात्कालिक परिणाम चाहने वालों को अनावश्यक सवाल उठाने के बजाय आवश्यक और अनुकूल परिवेश बनाने के लिए प्रयास करने चाहिए। क्या अब्दुल्ला-मुफ्ती परिवार से इसमें किसी सहयोग की अपेक्षा की जा सकती है?
( लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )
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