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- कब सुधरेगी आयुर्वेद की...
जिस वक्त पूरे संसार की मानव सभ्यताएं अभी शैशव अवस्था में ही थी, लोग लगभग खानाबदोषों जैसी जिंदगी जी रहे थे, उस वक्त हमारे पूर्वज प्लास्टिक सर्जरी, मोतियाबिंद के आपरेशन, कटे-फटे अंगों एवं हड्डियों को जोडऩे की दिशा में महारत हासिल कर चुके थे। आज के विभिन्न चिकित्सा विभागों की तरह आयुर्वेद चिकित्सा को आठ अलग-अलग विभागों में विभक्त होकर पूरे विश्व का मार्गदर्शन कर रही थी। हिमाचल का कांगड़ा जनपद भी प्लास्टिक सर्जरी का एक स्थापित केंद्र रहा है। कान घड़ों (जो लोग कटे कान को जोडऩे की महारत रखते थे उनको स्थानीय लोग कन घड़े कहते थे) का जनपद ही त्रिगर्त एवं नगरकोट के बाद वर्तमान कांगड़ा नाम से प्रसिद्ध हुआ। इतनी समृद्ध विरासत का धनी ये प्रदेश आज अपनी ही स्वदेशी विधा को नकारने पर तुला प्रतीत होता है। प्रदेश में आयुर्वेद की वर्तमान स्थिति ऐसे विचलित करने वाले भाव पैदा कर रही है कि समझ नहीं आ रहा है कि शुरुआत कहां से हो। थोड़ी सी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से इसकी शुरुआत कर रहा हूं। साल 1972 में हिमाचल के कांगड़ा जनपद की वैद्य हकीम परिषद ने आयुर्वेद चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में एक प्राइवेट कॉलेज बैजनाथ पपरोला में शुरू किया। इस तरह आईजीएमसी शिमला (स्थापना वर्ष 1966) के बाद ये प्रदेश का दूसरा चिकित्सा शिक्षा संस्थान बना। साल 1978 में तत्कालीन सरकार ने इसका अधिग्रहण कर लिया। साल 1999 में इसको स्नातकोत्तर संस्थान का दर्जा मिला। वर्तमान में इस संस्थान में प्रत्येक वर्ष 75 स्नातक एवं 14 अलग-अलग विषयों में पूरे भारत से 56 स्नातकोत्तर शोधार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं। साल 2002 में तत्कालीन सरकार ने इस संस्थान को डीम्ड यूनिवर्सिटी बनाने की घोषणा की थी। लेकिन आज तक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई। आज ये संस्थान राजाश्रयभाव में दुर्दशा को प्राप्त हो चुका है। शल्य चिकित्सा (सर्जरी), प्रसूति तंत्र एवं स्त्री रोग (गाइनेकोलॉजी), शालाक्य तंत्र (आई एवं ईएनटी) जैसे विषयों में पठन-पाठन करवाने के बावजूद ये संस्थान एक ब्लड बैंक जैसी सुविधा से वंचित है। न तो यहां सीटी स्कैन, एमआरआई जैसे निदान के उपकरण हैं और न ही पढ़ाने वाले अनुभवी विशेषज्ञ। इस वक्त 25 से ज्यादा विशेषज्ञों के पद खाली चल रहे हैं। कुछ विभाग जिनमें पीजी कक्षाएं चलती हैं, उनमें एक भी विशेषज्ञ (प्रोफेसर या उसके समकक्ष) चिकित्सक नहीं बचा है।
By: divyahimachal