सम्पादकीय

कब सुधरेगी आयुर्वेद की दयनीय स्थिति

Rani Sahu
20 July 2022 7:06 PM GMT
कब सुधरेगी आयुर्वेद की दयनीय स्थिति
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जिस वक्त पूरे संसार की मानव सभ्यताएं अभी शैशव अवस्था में ही थी

जिस वक्त पूरे संसार की मानव सभ्यताएं अभी शैशव अवस्था में ही थी, लोग लगभग खानाबदोषों जैसी जिंदगी जी रहे थे, उस वक्त हमारे पूर्वज प्लास्टिक सर्जरी, मोतियाबिंद के आपरेशन, कटे-फटे अंगों एवं हड्डियों को जोडऩे की दिशा में महारत हासिल कर चुके थे। आज के विभिन्न चिकित्सा विभागों की तरह आयुर्वेद चिकित्सा को आठ अलग-अलग विभागों में विभक्त होकर पूरे विश्व का मार्गदर्शन कर रही थी। हिमाचल का कांगड़ा जनपद भी प्लास्टिक सर्जरी का एक स्थापित केंद्र रहा है। कान घड़ों (जो लोग कटे कान को जोडऩे की महारत रखते थे उनको स्थानीय लोग कन घड़े कहते थे) का जनपद ही त्रिगर्त एवं नगरकोट के बाद वर्तमान कांगड़ा नाम से प्रसिद्ध हुआ। इतनी समृद्ध विरासत का धनी ये प्रदेश आज अपनी ही स्वदेशी विधा को नकारने पर तुला प्रतीत होता है। प्रदेश में आयुर्वेद की वर्तमान स्थिति ऐसे विचलित करने वाले भाव पैदा कर रही है कि समझ नहीं आ रहा है कि शुरुआत कहां से हो। थोड़ी सी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से इसकी शुरुआत कर रहा हूं। साल 1972 में हिमाचल के कांगड़ा जनपद की वैद्य हकीम परिषद ने आयुर्वेद चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में एक प्राइवेट कॉलेज बैजनाथ पपरोला में शुरू किया। इस तरह आईजीएमसी शिमला (स्थापना वर्ष 1966) के बाद ये प्रदेश का दूसरा चिकित्सा शिक्षा संस्थान बना। साल 1978 में तत्कालीन सरकार ने इसका अधिग्रहण कर लिया। साल 1999 में इसको स्नातकोत्तर संस्थान का दर्जा मिला। वर्तमान में इस संस्थान में प्रत्येक वर्ष 75 स्नातक एवं 14 अलग-अलग विषयों में पूरे भारत से 56 स्नातकोत्तर शोधार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं। साल 2002 में तत्कालीन सरकार ने इस संस्थान को डीम्ड यूनिवर्सिटी बनाने की घोषणा की थी। लेकिन आज तक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई। आज ये संस्थान राजाश्रयभाव में दुर्दशा को प्राप्त हो चुका है। शल्य चिकित्सा (सर्जरी), प्रसूति तंत्र एवं स्त्री रोग (गाइनेकोलॉजी), शालाक्य तंत्र (आई एवं ईएनटी) जैसे विषयों में पठन-पाठन करवाने के बावजूद ये संस्थान एक ब्लड बैंक जैसी सुविधा से वंचित है। न तो यहां सीटी स्कैन, एमआरआई जैसे निदान के उपकरण हैं और न ही पढ़ाने वाले अनुभवी विशेषज्ञ। इस वक्त 25 से ज्यादा विशेषज्ञों के पद खाली चल रहे हैं। कुछ विभाग जिनमें पीजी कक्षाएं चलती हैं, उनमें एक भी विशेषज्ञ (प्रोफेसर या उसके समकक्ष) चिकित्सक नहीं बचा है।

फील्ड के मेडिकल ऑफिसरों को प्रतिनियुक्ति पर भेज कर चिकित्सा शिक्षा की खानापूर्ति की जा रही है। विशेषज्ञों का वेतनमान इतना कम है कि जब भी किसी अनुभवी चिकित्सक को बाहर के प्रदेशों में अच्छे वेतन पर जाने का मौका मिलता है वो चले जाते हैं। पूरे भारतवर्ष में सबसे कम वेतन पपरोला आयुर्वेद चिकित्सा संस्थान के प्रोफेसरों का है। जिस संस्थान में पूरे भारतवर्ष के चिकित्सक ट्रेनिंग लेते हों, उसकी ऐसी दुर्गति चिंताजनक है। ये मात्र संस्थान की व्यक्तिगत हानि नहीं है, बल्कि ये राष्ट्र का ही अहित है। रही बात फील्ड के आयुर्वेद संस्थानों की तो उनकी हालत और भी दयनीय है। बेशक कुछ जगह अच्छी इमारतें बन गई हैं, पर बिना साधनों और अनुभवी चिकित्सकों एवं ट्रेंड स्टाफ की नियुक्ति के वो इमारतें किसी भी तरह से जनमानस के लिए लाभकारी सिद्ध नहीं हो पा रही हैं। हिमाचल प्रदेश के लिए एक राष्ट्रीय स्तर का चिकित्सा संस्थान बिलासपुर में खोला गया जिसमें तीस बिस्तरों की व्यवस्था वाला आयुष विंग भी बना। इसकी बिल्डिंग लगभग एक साल से बनकर तैयार है। उस आयुष विंग को एलोपैथी के लिए दे दिया गया। बेशक ये एक क्षणिक व्यवस्था है। जब तक एलोपैथी का विंग तैयार नहीं हो जाता तब तक उनका अस्पताल इस इमारत से ही संचालित होगा। तब तक आयुष विंग नहीं चलेगा और न ही नियुक्ति होगी। क्या स्वदेशी चिकित्सा या स्वदेशी चिकित्सक दोयम दर्जे के हैं? क्यों आयुष विंग की जगह एलोपैथी का विंग चलाया गया?
इससे तो यही सिद्ध होता है कि आयुर्वेद या स्वदेशी चिकित्सा सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। देसी और स्वदेशी का हिमायती होने मात्र का नाटक है और कुछ भी नहीं। सरकारी नीतियां भी कोई आयुर्वेद हितैषी नहीं हैं। एलोपैथी की दवाई को बेचने के लिए निश्चित योग्यता (कम से कम डी. फार्मा इन एलोपैथी) होना आवश्यक है, परंतु आयुर्वेद औषधियों को बेचने के लिए ऐसा कोई कानून नहीं। जब सरकार आयुर्वेद फार्मेसी में डिप्लोमा और डिग्री कोर्स करवा रही है तो केवल उन्हीं आयुर्वेद फार्मासिस्ट को औषधियां रखने और बेचने का अधिकार क्यों नहीं जो सरकारी मापदंडों को पूरा करने के बाद रजिस्टर हुए हैं। क्यों आयुर्वेद की दवाइयां करयाना स्टोर से लेकर पतंजलि के आउटलेट्स पर खुले में बिक रही हैं? यदि खुले में बिना लाइसेंस के ही आयुर्वेद औषधियां बेचने का प्रावधान रखना है तो क्यों युवा पीढ़ी का कीमती वक्त और पैसा बर्बाद किया जा रहा है? आयुर्वेद में शल्य चिकित्सा में पीजी और पीएचडी कोर्सेज चल रहे हैं, परंतु ब्लड बैंक से इनकी संस्तुति पर ब्लड इश्यू नहीं किया जाता है क्योंकि ये सरकारी नियमावली है। हेल्थ एक स्टेट सब्जेक्ट है, इसलिए कुछ प्रदेशों जैसे महाराष्ट्र, हरियाणा ने विशेष प्रावधानों द्वारा वहां के शल्य चिकित्सकों को ब्लड बैंक से ब्लड इश्यू करवाने के लिए अधिकृत किया हुआ है, परंतु समय-समय पर प्रदेश सरकार के संज्ञान में लाने पर भी सरकार आज तक कोई निर्णय नहीं ले पाई है।
आयुर्वेद की दुर्दशा से आहत जिन लोगों ने अपने निजी अस्पताल खोले, उनके साथ भी अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है। 15 जुलाई को पूरे भारत के एलोपैथी संस्थानों ने आचार्य सुश्रुत के शल्य चिकित्सा और विशेषकर प्लास्टिक सर्जरी में किए गए योगदान के लिए अंतरराष्ट्रीय प्लास्टिक सर्जरी दिवस मनाया। परंतु सरकार एलोपैथी के मोह में इतनी उलझ गई है कि उन्हें आयुर्वेद के लोगों की सुध लेने की कोई फिक्र नहीं हैं। कई दौर की मीटिंग और ज्ञापनों के बाद भी सरकार की कुंभकर्णी नींद नहीं टूटी। मुख्यमंत्री हेल्पलाइन भी इस विषय पर मुख्यमंत्री हेल्पलेस लाइन बन कर रह जाती है। राजाश्रयभाव में कोई भी विधा विलुप्त हो सकती है तो आयुर्वेद जैसी स्वदेशी चिकित्सा विधा की बिसात ही क्या है। प्रदेश में सात मेडिकल कॉलेज चलाने के लिए सरकार के पास धन की कमी नहीं है, लेकिन क्या कारण है कि प्रदेश के दूसरे सबसे पुराने चिकित्सा शिक्षा संस्थान को चलाने में असमर्थ सी प्रतीत होती है। कहते हैं कि जब जागो तभी सवेरा। बेशक प्रदेश में इस वर्ष इलेक्शन होने हैं, लेकिन अभी भी सरकार के पास इस दिशा में सुधारात्मक निर्णय लेने का समय है। भारतीय जीवन मूल्यों और परंपराओं की हिमायती होने का दंभ भरने वाली प्रदेश सरकार के राज में आयुर्वेद की ऐसी दुर्गति बेहद चिंताजनक है। क्या माननीय इस विषय की गंभीरता को समझेंगे? क्या कोई उम्मीद की जा सकती है?
कुलदीप कुमार
आयुर्वेद संघ महासचिव

By: divyahimachal


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