सम्पादकीय

बदलते कमिश्नरों के बीच दिल्ली पुलिस को कब मिलेगा एक स्थाई बॉस?

Tara Tandi
3 July 2021 1:11 PM GMT
बदलते कमिश्नरों के बीच दिल्ली पुलिस को कब मिलेगा एक स्थाई बॉस?
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अब से करीब 43 साल पहले 1 जुलाई सन् 1978 में दिल्ली पुलिस (Delhi Police) में रिवाज बदलने की परिपाटी शुरू हुई थी.

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | संजीव चौहान| अब से करीब 43 साल पहले 1 जुलाई सन् 1978 में दिल्ली पुलिस (Delhi Police) में रिवाज बदलने की परिपाटी शुरू हुई थी. तब आईजी पुलिस सिस्टम खत्म करके यहां पुलिस कमिश्नर सिस्टम (Police Commissioner System) लागू किया गया था. उसके बाद दिल्ली में पुलिस फोर्स बढ़ती गई, आबादी के अनुपात मे थाने चौकी, दिल्ली में पुलिस के जिले रेंज भी और कई आंतरिक विभाग़ बढ़ते गये. मगर पुरानी परिपाटी इन 43 साल में कभी नहीं टूटी. ना ही कोई नया रिवाज महकमे पर थोपा गया. 1980-90 के दशक में या उससे कुछ पहले अगर कहीं किसी नये रिवाज की शुरूआत हुई तो वो थी दिल्ली पुलिस का मुखिया दिल्ली से बाहर यानि महाराष्ट्र कैडर के अफसर को लाकर बना दिया जाना. उसके बाद अगर विभाग या हुकूमत ने कहीं कोई नया दस्तूर अथवा रिवाज दिल्ली पुलिस को दिया तो वो था किसी बाहरी यानि भारतीय सूचना विभाग के अफसर को दिल्ली पुलिस में लाकर प्रवक्ता बनाना. अब दिल्ली पुलिस में एक नई परिपाटी कहिये या फिर रिवाज की शुरूआत पड़ती दिखाई देने लगी है.

इसके कारण और निवारणों पर माथापच्ची हाल फिलहाल छोड़ भी दी जाये तो इन बदलावों को नजरंदाज करना भी अनुचित ही कहलायेगा, यह परिपाटी है देश की राजधानी को "कामचलाऊ" कमिश्नर के हवाले कर देना. और तो और दिल्ली पुलिस में यह रिकॉर्ड भी पहली बार टूटा या कहिये कि इस रवायत की शुरूआत भी पहली मर्तबा की गयी कि जब हुकूमत किसी नियमित कमिश्नर का इंतजाम किन्हीं कारणों से नहीं कर सकी तो पूर्व में तैनात कमिश्नर को ही कुछ महीने का एक्सटेंशन देकर काम चला लिया गया. यह अलग बात है कि उस पहले प्रयोग के दौरान ही मतलब नियमित कमिश्नर को रिटायरमेंट अवधि के बाद भी एक्सटेंशन देकर जब कमिश्नर बना डाला गया तो उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगे फैल गये और 50 से ज्यादा लोग उन दंगों में बेमौत मारे गये, लिहाजा हूकूमत को रातों-रात फिर एक अस्थाई पुलिस कमिश्नर बनाकर लाना पड़ा, एसएन श्रीवास्तव को.
एस एन श्रीवास्तव से उनकी पूरी कमिश्नरी के कार्यकाल में हुकूमत ने उन्हें अस्थाई कमिश्नर पद से ही सजाये रखा. जब उनके रिटायरमेंट का वक्त आया तो उससे एक महीने पहले उन्हें नियमित कमिश्नर की चिट्ठी थमा दी गई. मतलब एसएन श्रीवास्तव के जरिये दिल्ली पुलिस में महज एक डेढ़ महीने की अस्थाई कमिश्नरी का अजीब ओ गरीब रिवाज भी शुरू हो गया. वरना वे भी कम से कम डेढ़ साल नियमित कमिश्नर रह सकते थे. मगर रह नहीं पाये. एस एन श्रीवास्तव रिटायर हुए तो कसीदे कसे जाने लगे कि शायद अब इस बार कोई नियमित कमिश्नर देश की राजधानी पुलिस को नसीब हो जायेगा. परिणाम मगर वही ढाक के तीन पात ही निकला.
श्रीवास्तव के रिटायर होते ही दिल्ली में कानून एवं शांति व्यवस्था की जिम्मेदारी फिर कामचलाऊ कमिश्नर के कंधों पर लाद दी गयी. तब तक के लिए जब तक अगले किसी स्थाई कमिश्नर की तैनाती न हो जाये. ऐसे में किसी के भी जेहन में सवाल कौंधना लाजिमी हो जाता है, कि आखिर देश की राजधानी की पुलिस को भारतीय पुलिस सेवा की लंबी चौड़ी अफसरों की फेहरिस्त में कोई एक अदद काबिल आईपीएस नियमित बॉस के रूप में मिल क्यों नहीं पाता है?


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