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
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हैरान तो सिर्फ कांग्रेस को जानने वाले ही नहीं बल्कि कांग्रेसजन भी हैं
Faisal Anurag
हैरान तो सिर्फ कांग्रेस को जानने वाले ही नहीं बल्कि कांग्रेसजन भी हैं. उदयपुर के चिंतन शिविर से जिस बदलाव की उम्मीद पैदा करने की कोशिश की गयी थी, वह दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों को सार्थक साबित कर रही है: कहां तो तय था, चरागां हर एक घर के लिए, कहां चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए. पचास प्रतिशत युवा,महिला, वंचित समुदायों की जातियों को प्रतिनिधित्व देने के तमाम एलान राज्यसभा के लिए जिन लोगों का चयन किया गया, उससे धराशायी हो गए हैं. हो सकता है कि जिन नेताओं को टिकट थमाया गया, वे कांग्रेस के लिए बेहद अहम हों, लेकिन पिछले आठ सालों और उसके पहले के चार सालों में कांग्रेस जिस तरह बिखरी उसके लिए जिम्मेदार तो वे भी हैं. आखिर उनमें यह कैसा जादू है कि जो अपने राज्यों में विधानसभा तक का चुनाव नहीं जीत सकता, उसे बार-बार राज्यसभा के लिए प्रत्याशी बना दिया जाता है. फिर गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा या फिर कपिल सिब्बल का ही क्या अपराध है कि उनके मान सम्मान की रक्षा नहीं की जा रही है. सिब्बल ने तो पाला ही बदल लिया.
सवाल तो यह भी है कि आखिर उदयुपर में क्या कोई कठोर आत्मालोचना,गलतियों की पहचान, आम लोगों से टूटता कनेक्शन, बार-बार हारने के कारण जैसे सवालों पर चर्चा हुई भी या नहीं. 2019 के चुनाव परिणाम में जब कांग्रेस बुरी तरह हारी, तो तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस्तीफा देते हुए एक महत्वपूर्ण बात कही थी कि वे जब नरेंद्र मोदी और आरएसएस से लड़ रहे हैं तब कोई भी बड़ा नेता उनके साथ खड़ा नजर नहीं आया. यह कौन नहीं जानता कि जिन नेताओं को टिकट दिया गया है, ये गणेश परिक्रमा के सहारे ही अपनी सांसदी को बरकरार रखते आए हैं. हो सकता है कि वे अच्छा बालते हों, लेकिन पिछले आठ सालों में तब कभी इस देश के लोगों को उनकी जरूरत हुई, कभी भी उनकी जुबान नहीं खुली. नोटबंदी से किसान आंदोलन तक के संदर्भ में इन नेताओं की भूमिका तो यही बताती है.
फिर ऐसा क्या है कि कांग्रेस बात तो नए लोगों की करती है, लेकिन वह पुराने नेताओं को आसान रास्ता देने से बाज नहीं आती है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय जब प्रियंका गांधी ने कहा था कि मैं लड़की हूं लड़ सकती हूं, तो ताजगी का अहसास कराया गया था. चुनावों का परिणाम कांग्रेस के लिए एक त्रासद दु:स्वप्न की तरह पीछा छोड़ ही नहीं रहा है. लेकिन प्रियंका ने जो साहस दिखाया था, उसमें भविष्य के लिए बड़ी उम्मीदें दिखने लगी थीं. लेकिन कांग्रेस ने इस तरह के साहस को खारिज ही किया है. टिकट ऐसे नेताओं को दिया गया, जो विधानसभा चुनाव तक हार गए. प्रमोद तिवारी हों या रणदीप सुरजेवाला दोनों ही अपने राज्यों में अपनी ही जातियों को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं. सुरजेवाला तो राजस्थान भाग रहे हैं, जबकि हरियाणा को भी एक बाहरी उम्मीदवार ही दिया गया है.
जिस भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ कांग्रेस को उठकर खड़ा होना है, उसने अपने ज्यादातर साधारण कार्यकर्ताओं पर भरोसा जताया है और ब्राह्मणों के 98 प्रतिशत वोट की दावोदरी के बावजूद उसने ज्यादा भरोसा दलित और ओबीसी जैसे जाति समूहों पर भरोसा किया है. ओबीसी में भी ऐसी जातियों को प्रतिनिधित्व दिया है, जो मजबूत नहीं माने जाते हैं. यह वह अंतर है, जो कांग्रेस को भविष्य के लिए एक बड़ी बाधा देता है. कांग्रेस ने आधे से ज्यादा टिकट ब्राह्मण जाति के उम्मीदवारों को दिया है और ओबीसी,दलित और आदिवासी हाशिए पर हैं.
2024 के लिए कांग्रेस आखिर क्या संदेश दे रही है. तो क्या मान लिया जाए कि उदयुपर का चिंतन शिविर एक खानापूर्ति ही था. कांग्रेस बदलने नहीं जा रही है और लंबे समय तक उसे जनाधारविहीन नेताओं के रहमोकरम पर रहने को बाध्य होना है. राज्यों पर जिस तरह बाहर के नेता थोपे गए हैं, इससे पैदा होने वाली निराशा भी सामने आने लगी है. जिस डाल पर बैठे हों, उसे ही काट देने का यह उदाहरण भर है. रेवड़ी बांट कर कांग्रेस किस तरह अपनी वर्तमान हालत बदलेगी इस रहस्य को समझना नामुमकिन ही है.
सोर्स- Lagatar News
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Rani Sahu
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