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मियाँ फुम्मन अपने कूचे में पूरी मस्ती से मोमिन चचा की मशहूर गज़ल ‘जब रंज दिया बुतों ने’ अपने अंदाज़ में गुनगुनाते हुए बढ़े जा रहे थे
मियाँ फुम्मन अपने कूचे में पूरी मस्ती से मोमिन चचा की मशहूर गज़ल 'जब रंज दिया बुतों ने' अपने अंदाज़ में गुनगुनाते हुए बढ़े जा रहे थे। अचानक जुम्मन को आता देख उन्होंने गज़ल के बोल बदले और ज़ोर-ज़ोर से गुनगुनाने लगे, 'चल दिए हार के चुनाव इला़के से जुम्मन, जब रंज दिया वोटर्स ने तो तेल याद आया।' यह सुनते ही जुम्मन अपना आपा खो बैठे। बोले, ''कम से कम जले पर नमक न तो छिड़को। हार-जीत तो ज़िंदगी का हिस्सा है। चुनाव हार गए तो क्या हुआ? जनता-जनार्दन का खयाल रखते हुए सरकार ने तेल की कीमतें घटाई हैं। बेचारी जनता महंगाई के बोझ से दोहरी हुई जा रही थी। हम तो पैदा ही देश के लिए हुए हैं। हम लोग ज़िस्म में बचे खून के आ़िखरी कतरे तक इसी तरह जनता और देश की सेवा करते रहेंगे।'' मियाँ ़फुम्मन अब तक संभल चुके थे। छूटते ही बोले, ''जी हाँ, बिलकुल सही ़फरमाया आपने।
लोगों के ज़िस्म में बचे आ़िखरी कतरे को भी आप पीकर ही दम लेते हैं। जब तक भेड़ें चुपचाप कट रही थीं, आप काटने में मस्त थे। जब भेड़ों ने कटने की बजाय काटना शुरू किया तो ध्यान आया कि आप ऊन के साथ चमड़ी भी उतारने लगे थे। अगर चुनाव न हारते तो आप इसी तरह देश सेवा में मस्त रहते। वैसे लोग भी अजीब हैं। जब तक उनके सिर के बोझ ने पाँवों से होते हुए ज़मीन में अपनी छाप नहीं छोड़ी थी, सब चुपचाप सहे जा रहे थे। नगरी तो अब भी अँधेर है और राजा भी चौपट। लेकिन न भाजी का रेट टका सेर है और न खाजा का। रोज़मर्रा की चीज़ें नेताओं के चोंचलों की तरह आसमान छू रही हैं। राजा ज़मीन पर नहीं चलता। हमेशा हवा में उड़ता नज़र आता है। इसीलिए न तो उसे सड़कों के गहराते गड्ढे नज़र आते हैं और न ही प्रजा की ज़िंदगी में गहरी होती खाइयाँ।'' जुम्मन स़फाई देते हुए बोले, ''अरे! ऐसी बात नहीं है। समय पर और पूरा टैक्स देना, देश सेवा का ही एक पर्याय है। सरकार तेल के मा़र्फत लोगों से जो बढ़ा हुआ टैक्स वसूल रही थी, वह विकास योजनाओं पर ही तो ़खर्च हो रहा था।'' फुम्मन हँसते हुए बोले, ''हाँ भय्या! लोग भले टैक्स के ढेर में दब जाएं, आप जन सेवक तो सेवा के बदले मिलने वाली सुविधाओं के नाम पर डकार लिए बिना देश ही डकार जाओ।
अगर आप लोग सचमुच देश सेवा करते तो क्यों लोग आजिज़ आकर कपड़ों की तरह सरकारें बदलते? कितनी हैरत की बात है कि हर बार सरकार बदलती है। लेकिन बेचारी जनता हर बार भूल जाती है कि नाग नाथ से पहले साँप नाथ थे और साँप नाथ के बाद फिर नाग नाथ कुरसी पर कुँडली मार कर बैठ जाएंगे। कितना दिलचस्प है कि सभी राजनीतिक दलों को पता है कि उनकी कारगुज़ारियों के चलते हर बार राज बदलना ही है। आपस में मिल-बाँट कर खाओ, खिलाने वाले तैयार बैठे हैं। फिर झगड़ा क्या? सत्ता किसी के भी हाथ रहे, कुरसी पर तो सर्प ही लिपटेंगे। ़िकस्म चाहे कोई भी हो। कोई भी पार्टी यह नहीं सोचती कि अगर सही ढंग से काम करें तो हमेशा राज करेंगे। अब तो साँसों पर भी राजनीति होती है। सारे राजनीतिक दल एक-दूसरे की लाशों को नाव बना कर चुनावों की वैतरणी पार करने की आस में पाँच साल तक सत्ता दल की साँसें गिनते रहते हैं। लेकिन राजसी गँध सूँघते ही गहरी निद्रा में चले जाते हैं। भूल जाते हैं कि एक चुनाव की वैतरणी पार करने के बाद दूसरे कार्यकाल के लिए भी ऐसी ही वैतरणी पार करनी होगी। लिहाज़ा दूसरे दल आने वाले चुनावों में उनकी लाशों की नाव बना लेते हैं।'' इतना सुनने के बाद भी न तो ज़मीन फटी और न ही जुम्मन उसमें समाए।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं

Rani Sahu
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