सम्पादकीय

जब जिंदगी का सुर बिगड़ जाए, रुको, देखो और आगे बढ़ो

Gulabi Jagat
22 April 2022 8:55 AM GMT
जब जिंदगी का सुर बिगड़ जाए, रुको, देखो और आगे बढ़ो
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ओपिनियन
एन. रघुरामन का कॉलम:
अपने तरह के ऐसे पहले प्रयोग में मुंबई के नगरीय निकाय ने सारी मिनी व मिडी बसों में टैप इन/टैप आउट बस टिकटिंग सुविधा शुरू की है। बस में आगे, जहां ड्राइवर देख रहा होता है, वहां से चढ़ते हुए यात्री डिजिटल कार्ड, कार्ड रीडर पर पर टैप (स्पर्श) करेंगे और वैसा ही उतरते हुए करेंगे। 'चलो' नाम के एप पर खरीदी कार्ड की टिकट्स को मशीन पढ़ लेगी। अगर यात्री कार्ड को टैप कराना भूल जाते हैं, तो स्मार्ट कार्ड खुद ही अधिकतम राशि काट लेगा।
तयह मुंबईकरों को बस में चढ़ते-उतरते हुए पूरा डिजिटल अनुभव देगा। यह सिस्टम इस बुधवार को 10 सेवाओं में शुरू हुआ और जल्द ही 438 रूट पर लागू हो जाएगा। आगे चलकर यह सिस्टम कंडक्टर का पद खत्म कर देगा। कई राज्य सरकारें लंबे समय से दावा कर रही हैं कि बिना कंडक्टर्स के राज्य परिवहन निगम चलाने और इसे इंसानी दखल से मुक्त बनाने में कोई बुराई नहीं है, कम से कम नॉन स्टाप और पॉइंट टू पॉइंट सर्विस में। इसके अनुसार यात्री आपात स्थिति में आगे और पीछे पायदान के पास लगी घंटी दबाकर वाहन रुकवा सकते हैं।
पर एक अजीब वजह से मेरे मन में नकारात्मक खयाल आ रहा है, आधुनिक टेक्नोलॉजी में ऐसा बमुश्किल ही होता है, वो ये कि क्या हो अगर मौसम की चरम अवस्था में कार्ड रीडर ही काम न करे। ऐसे ढेरों सवाल उठेंगे कि क्या बस सर्विस बंद हो जाएगी, क्या कंडक्टर्स फिर से आएंगे या फिर ड्राइवर ही बस रोककर वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में खुद पैसे इकट्टा करेगा। यह नकारात्मक विचार एक परेशानी से पैदा हुआ, जो कि मैंने कल सुबह दूध का पैकेट लेते हुए झेली।
कोविड से पहले दूधवाले घर के बाहर लटके थैले में दूध का पैकेट डालकर चले जाते थे। जब देर से डिलीवरी के बारे में उनसे कभी पूछा जाता, तो वे कहते कि दूध की गाड़ी लेट थी साहब, हम क्या कर सकते हैं। ऐसा महीने में एक या दो बार हो जाता था। पर महामारी के बाद से सोसायटीज़ ने उनका प्रवेश रोक दिया और बड़े खिलाड़ी जैसे बिग बाजार आदि ने यह कहते हुए कब्जा कर लिया कि वे दूध को मानव संपर्क के बिना डिलीवर करेंगे, जैसा हमने ऊपर बस के मामले में कहा।
हालांकि कोविड से पहले सामान्य दूधवाला भी वही चीज कर रहा था, सिवाय एकाध बार के, जब वो पैसे लेने आता था। ये बड़े खिलाड़ी एप से बुकिंग के बहाने ये सुविधा देते हैं कि आप दूध की मात्रा घटा-बढ़ा सकते हैं और इस तरह दूधवाले की रोजीरोटी छीन ली है। दुर्भाग्य से उनकी डिलीवरी भी टेक्नोलॉजी में पीछे रह गए उस दूधवाले से भी बुरी हो गई है। इन दिनों ये बड़े खिलाड़ी फोन पर एक मैसेज भेज देते हैं कि 'परिचालन कारणों से आज दूध देर से डिलीवर होगा, असुविधा के लिए खेद है।'
किसी को नहीं पता होता कि कितना? फोन करने के लिए कोई नंबर नहीं होता। और आप इस बारे में कुछ नहीं कर सकते क्योंकि पैसा तो पहले ही दे चुके होते हैं। यह देखकर मैं सोच में पड़ गया हूं कि क्या हम जैसी को-ऑपरेटिव सोसायटियों ने दूधवालों, अखबार वालों या गरीब किराने वालों को बाहर करने का निर्णय जल्दबाजी में तो नहीं लिया? अगर ऐसा है तो समय आ गया है कि डिजिटल सुविधाएं से लुभाने वाली इन बड़ी शार्क्स से खरीदारी करने के बजाय हम पड़ोस में अपना खुद का काम कर रहे आदमी से खरीदें।
जिंदगी की सबसे अच्छी फिलॉसफी यही है कि जीवन की लय जब भी बिगड़े, तब उस बिगड़ी लय के साथ जारी रखने के बजाय, एक ब्रेक या अवकाश लें, इसके समाज पर दीर्घकालिक प्रभावों की तलाश करें, उस लय में आई कमी के कारण की पड़ताल करें, जरूरी सुधार करें और उसके बाद ही आगे बढ़ें।
फंडा यह है कि जब आपके पेशेवर निर्णय लगातार गलत साबित हो रहे हों या पारिवारिक जीवन में अशांति हो, तो शायद यह वक्त रुककर देखने का है। आगे बढ़ने से पहले विश्लेषण करें।
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