सम्पादकीय

जब पंचायत चुनाव ने ले ली थी मुख्यमंत्री की कुर्सी

Gulabi
24 May 2021 5:14 PM GMT
जब पंचायत चुनाव ने ले ली थी मुख्यमंत्री की कुर्सी
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छह दिसंबर, 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा की कई राज्य सरकारों को केंद्र ने बर्खास्त कर दिया था

छह दिसंबर, 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा की कई राज्य सरकारों को केंद्र ने बर्खास्त कर दिया था। इनमें उत्तर प्रदेश में भाजपा के नेतृत्व वाली कल्याण सिंह सरकार भी शामिल थी। उसके बाद उत्तर प्रदेश में चुनाव की तैयारी होने लगी थी, पर समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह की राह आसान नहीं थी। जनता दल का विभाजन हो चुका था और अधिकांश सांसद-विधायक वीपी सिंह के खेमे में जा चुके थे। 1991 के मध्यावधि चुनाव में भी मुलायम सिंह को मुंह की खानी पड़ी थी, जब चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली समाजवादी जनता पार्टी के मात्र पांच सांसद और 27 विधायक बमुश्किल जीत पाए।

वी पी सिंह के नेतृत्व में एक मोर्चा गाजियाबाद में संचालित हो रहा था, जिसमें लालू प्रसाद का जनता दल, अजित सिंह जी का लोकदल, ओम प्रकाश चौटाला का हरियाणा लोकदल आदि मुलायम सिंह को जनता दल छोड़ने का सबक सिखाना चाहते थे। मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद मुलायम सिंह जिस तरह चंद्रशेखर के साथ गए, वह सामाजिक न्याय वाली ताकतों को बुरा लगा और वे उनको हराने के प्रयास में जुट गईं। पर कांशीराम की बसपा ने राज्य में पहली बार सपा से तालमेल कर प्रदेश की राजनीति को एक नई दिशा दी।
उन्हीं दिनों लखनऊ में एक विशाल जनसभा का संयुक्त आयोजन किया गया और वहीं नारा दिया गया, मिले मुलायम कांशीराम-हवा में उड़ गए जय श्रीराम। वैचारिक टकराव, असहिषुणता और बदले की भावना में चुनाव हो रहा था। तब वीपी सिंह और उनके विरोधियों को एहसास तक नहीं था कि समता और साझेदारी का संघर्ष धार्मिक भावनाओं से आगे निकल जाएगा। पांच दिसंबर, 1993 को मुलायम सिंह फिर मुख्यमंत्री बने। हालांकि विधानसभा में उनका बहुमत नहीं था, फिर कांशीराम और मायावती की कार्यपद्धति अन्य दलित संगठनों से उग्र थी। वे हर परिवर्तन का अगुआ बनना चाहते थे। कई अवसरों पर ऐसी तस्वीर छपती थी, जिसमें लुंगी लपेटे कांशीराम कुर्सी पर बैठे होते और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह सामने खड़े दिखाई पड़ते थे।
मुलायम सिंह सपा को बड़ी ताकत बनाने में लगे हुए थे। सबसे पहले उन्होंने जनता पार्टी में सेंध लगाकर वीपी सिंह के सबसे करीबी कुंवर रेवती रमन सिंह समेत दर्जनों नेताओं को अपने पाले में किया, जिससे जनता दल से उनके रिश्ते खराब हो गए। अजित सिंह पहले से ही उनके विरोधियों में शुमार थे, लिहाजा वह कांग्रेस के साथ मिलकर चक्रव्यूह रचने में लगे रहते थे। और भाजपा की नजर गठजोड़ के अंतर्विरोध और मुलायम सिंह पर टिकी रहती थी। बसपा कांशीराम के नियंत्रण से निकल कर मायावती के नेतृत्व में सिमट रही थी। यह मुलायम सिंह के लिए खतरा था, क्योंकि मायावती की नजर मुख्यमंत्री पद पर थी।
मई, 1995 में राज्य के करीब 75 जिला पंचायत और 400 ब्लॉक प्रमुख के चुनाव प्रारंभ हो चुके थे। मुलायम सिंह अपने कार्यकर्ताओं को निर्देश दे रहे थे कि सभी जिला पंचायतों पर सपा के अध्यक्ष चुने जाएं। किसी एक दल के चुनाव चिह्न के तले कोई दल बहुमत में नहीं था, ऐसे में सभी दलों की निगाहें चुने गए कमजोर वर्गों के निर्वाचित प्रतिनिधियों पर थी। कहा तो यह जा रहा था कि सभी जनरल सीटों पर सपा के और रिजर्व सीटों पर बसपा के उम्मीदवार चुने जाएंगे और दोनों एक दूसरे की मदद करेंगी। पर चुनाव मैदान में ऐसा नहीं दिख रहा था।
कई जगह सपा और बसपा कार्यकर्ताओं में तकरार हुई। सबसे रोचक घटना हरदोई जिले की थी, जहां की एक दलित निर्वाचित महिला प्रतिनिधि को सपा के लोगों ने अगवा कर लिया, जिस पर काफी बवाल मचा। मायावती का आक्रामक होना स्वाभाविक था। भाजपा पहले से ही उस महिला उमीदवार को अपने पक्ष में करने का दावा कर चुकी थी। सपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक एक जून, 1995 को आहूत थी। मुलायम सिंह उस बैठक के बाद सतपाल मलिक और मुझे मुख्यमंत्री आवास पर ले गए। इस बीच, यह संदेश प्रचारित-प्रसारित होने लगा कि सभी पार्टियों के नेता मुलायम सिंह के अल्पमत में होने का दावा कर राज्यपाल से मिल रहे हैं।
मुलायम सिंह सचमुच बहुमत खो चुके थे। कांशीराम को मुख्यमंत्री बनाने की बात उठी, पर कांशीराम जी अस्पताल में भर्ती हो गए और प्रचारित कर दिया गया कि वह संवाद करने की स्थिति में नहीं हैं। लिहाजा मायावती मुख्यमंत्री पद की दावेदार हो गईं। सपा कार्यकर्ता इस घटनाक्रम से क्षुब्ध और बदले की भावना से भरे हुए थे, क्योंकि 1993 का चुनाव भाजपा द्वारा अयोध्या में की गई कार्रवाई के विरुद्ध जनमत था। सपा का मानना था कि ऐसे में बसपा का भाजपा से हाथ मिलाना अवसरवादी फैसला है।
गेस्ट हाउस कांड और उससे उत्पन्न हिंसा उसी का परिणाम थी। गवर्नर मोतीलाल वोरा ने मुलायम सिंह को बर्खास्त कर दिया, जिसके विरोध में सपा प्रदर्शन करने लगे। सामाजिक परिवर्तन चाहने वालों के लिए वह एक आघात था। पिछड़ों और दलितों की जिस एकता की वकालत आंबेडकर और लोहिया करते रहे, वह सपना टूट गया। यद्यपि समय-समय पर पैबंद लगाने का काम होता रहा, पर यह खाई काफी बढ़ चुकी है।
(लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं) क्रेडिट बाय अमर उजाला

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