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By: divyahimachal
सियासत की चिलचिलाती धूप के बीच हिमाचल विधानसभा ने बच्चों के कोमल हृदय की धडक़न को सुना। लोकतंत्र की शक्ति में बच्चों के मन में भले ही कोंपलें कुछ क्षणों के लिए फूटीं, लेकिन बहस के विषय और समय के संबोधन तो विशुद्ध रूप से राष्ट्रीय रहे। अमूमन इसी सदन में पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच सियासी मुकाबले का जब अखाड़ा खड़ा हो जाता है, तो विमर्श का छींका कहीं दीवारों पर लटका रह जाता है। सामूहिक चेतना में समाज भी अपनी प्राथमिकताओं के संदर्भ बदल कर निजी स्वार्थों की तालिका बना लेता है, तो तब सफलता-असफलता के बीच राज्य का नुक्सान दिखाई नहीं देता। इसलिए जब मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू कहते हैं कि बच्चे सदन को सिखा गए, तो इसका एक ऐसा पक्ष है जिसके साथ क्या सत्ता और क्या विपक्ष, दोनों को बराबर से खड़ा होना होगा। संविधान की दृष्टि से जीवन को आजमाना और राष्ट्र को आगे बढ़ाना, एक ऐसा फलक है जहां सियासी संकीर्णता का कोई आवेदन स्वीकार नहीं होता, लेकिन बच्चों के कथ्य से कहीं अलग तथ्यों पर सदन की भृकुटि इसलिए तनी रहती है, क्योंकि राजनीति केवल चुनाव में ही खेलती रहती है। बच्चों के माध्यम से सत्ता और विपक्ष के ताने-बाने में हुआ हिमाचली विमर्श भले ही स्कूलों से आया परामर्श लगा होगा, लेकिन विषयों की फेहरिस्त में कल की पीढ़ी को आवश्यक समाधान तो मिले। ये गैर राजनीतिक नजरिया है जो सियासत में भी सियासत से ऊपर उठकर देखने की जरूरत बन जाता है। सदन में ऐसे विषय उठे जिन पर अमूमन गौर नहीं होता। मसलन किसी ने स्कूलों में दस मिनट के लिए योगाभ्यास शुरू करने पर जोर दिया, तो सरकार के लिए यह एक प्रस्ताव हो गया।
बच्चों ने सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से मंदिरों के सवाल, पहाड़ी भाषा का प्रसार और खेलों का उद्गार ही नहीं किया, बल्कि नाटी के शृंगार तक सदन चला। बाल सदन की कई उपलब्धियां स्कूली गतिविधियों, शिक्षा के अभिप्राय, ज्ञान के कौशल, अध्ययन व तर्क की परिभाषा को सुदृढ़ कर गईं, तो सामाजिक चेतना के आकाश को घर के चिराग दीया दिखा गए। इन बच्चों को स्कूली माहौल में नागरिक बनाने की एक सीढ़ी यह भी है कि संविधान सियासी खूंटे से उतर कर खुद चलना सीखे। शिमला विधानसभा में संविधान के सारथी बने बच्चों ने राज्य और राज्य के समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए यह भी साबित कर दिया कि होश व विवेक से चलेंगे, तो मीलों के फासले चंद कदमों में बदल जाएंगे। लंबे व उबाऊ सदन की कार्यवाहियों के निष्कर्ष अगर लंबित रहेंगे, तो इस फांस से मुक्ति के लिए बाल मन की ज्योतियां चाहिएं। जहां सदन से बहिर्गमन के बहाने ढूंढे जाते रहे हों, वहां सोमवार को विधानसभा बहानों और बहिष्कार से मुक्त कम से कम यह रेखांकित कर गई कि आदर्श सत्ता और विपक्ष के बीच केवल टकराव नहीं, प्रदेश के व्यापक हित में सामंजस्य भी चाहिए। पूछने की वजह और जवाब देने की अदा के बीच राज्य का भविष्य तय होगा। कम से कम बच्चों के मार्फत सदन ने खुद को चुन लिया। यह आसान भी है क्योंकि विधायक बने ये बच्चे सामाजिक व स्कूली आदर्श से चुने गए थे। क्या आम चुनावों में हम प्रतिष्ठित, विचारक और ईमानदार व्यक्तियों को चुन पाते हैं। समाज भी बेरहम है, इसलिए राजनीति में सफल होना ईमानदार होना नहीं है। जो समाज के आदर्शों में पीछे हैं, वही संविधान के अर्थों में कामयाब जनप्रतिनिधि हैं।
हम बच्चों को आदर्श विचारों से ओतप्रोत नाटकीय बहस तो करा सकते हैं, लेकिन बनावटी बहस के कलाकार तो राजनीति में बैठे हैं। राष्ट्र के मंच पर कई नौटंकियां जारी हैं। राष्ट्र गलियों में गुत्थम-गुत्था है, लेकिन देश के तराने कुछ और ही सुनाते हैं। सोमवार को विधानसभा भी खुद की पवित्रता से धन्य हो गई और यह बच्चे भी काफी हद तक कहने में सफल हो गए। स्कूल के पाठ्यक्रम ने सदन की गरिमा बढ़ा दी, लेकिन जो कुछ संसदीय भाषा या सरोकारों के नाम पर देश भर में हो रहा है, उससे राजनीति का पाठ्यक्रम अति विद्रूप न•ार आने लगा है। बच्चों ने ऐसी कुछ मांग नहीं की जिससे राष्ट्र अपने स्वाभिमान को भूल जाए, लेकिन दूसरी तरफ वास्तविक लोकतंत्र के बीच अब सरकार बनाने का कौशल हमारी अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रहा है। बच्चों ने रेवडिय़ां न तो बांटी और न ही लोकतंत्र के लिए लाभ की गारंटियां मांगी, बल्कि एक बिंदु यह भी रहा कि आत्मनिर्भर समाज के लिए आत्मनिर्भर राज्य और देश होना चाहिए। उम्मीद है बच्चे जो कुछ सदन में सुना गए, उसकी अनुगूंज में आगे वास्तविक विधानसभा सत्र चलते रहेंगे।
Rani Sahu
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