- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- टैगोर ने जब लिखा-...
x
समय की दीवार पर उभरे होते हैं विरासत के रंग. ग़ौर से इन्हें निहारो तो भविष्य की हसरतें यहां मुस्कुराती दिखाई देती हैं
समय की दीवार पर उभरे होते हैं विरासत के रंग. ग़ौर से इन्हें निहारो तो भविष्य की हसरतें यहां मुस्कुराती दिखाई देती हैं. भारतीय चित्रकला के परिसर में गुरूदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की उपस्थिति इसी गौरव की गंध से भरी है. उनका बहुआयामी सृजन साहित्य, संगीत और रंगमंच से लेकर रंग और रेखाओं तक फैलता हुआ जीवन और प्रकृति के प्रति धन्यता की अभिव्यक्ति है. उनके इसी महान अवदान की विरासत को प्रणाम करते हुए इधर भारत की पंद्रह महिला चित्रकारों ने अपने केनवॉस पर अभिव्यक्ति का रंग-बिरंगा संसार रचा है.
सुखद संयोग कि बंगाल, बिहार, आसाम, उत्तरप्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात से लेकर मध्यप्रदेश की सरज़मीं में निवास करने वाली इन चित्रा-शक्तियों को रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय ने इस निमित्त आमंत्रित किया. इस अनूठे और सुंदर समागम के सूत्रधार बने विश्वख्यात चित्रकार और कला चिंतक अशोक भौमिक. प्रसंगवश यहां उन तथ्यों और विवरणों को रेखांकित करने की दरकार है, जो टैगोर के चित्रकर्म को व्यापक संदर्भों में देखने की रोशनी देते हैं. यह भी कि भारतीय चित्रकला की परंपरा जिन राहों से गुज़रकर अपने विकास का उत्कर्ष तलाशती रही है, वहां टैगोर का सृजन क्या संदेश देता है!
पिछले दिनों अशोक भौमिक ने इन मुद्दों की गहरी पड़ताल की. साहित्य और कलाओं के अंतर्राष्ट्रीय महोत्सव 'विश्वरंग' के अवसर पर भौमिक ने टैगोर के चित्रांकन पर एकाग्र संग्रहणीय केटलॉग भी तैयार किया है. उनका मानना है कि टैगोर की रचनात्मकता के विहंगम में उनका चित्रकार व्यक्तित्व अक्सर नज़रअंदाज़ होता रहा, जबकि उनका यह पक्ष भारतीय चित्रकला के सृजन और विचार को नई ऊष्मा देता है.
भौमिक यह पड़ताल करते हैं कि भारतीय साहित्य में रबीन्द्रनाथ ठाकुर की ख्याति विश्व-कवि के रूप में होने के साथ-साथ एक समर्थ कथाकार, नाटककार और सामाजिक चिंतक के रूप में भी है. उनकी समस्त रचनाओं में अपने समय की गहरी समझ दिखाई देती है. रबीन्द्रनाथ ठाकुर की बहुसंख्य रचनाएं, जो भारतीय महाकाव्यों और मिथकों पर आधारित हैं, वहां भी हम रचना के पीछे उनकी आधुनिक और समकालीन सोच को साफ़ महसूस कर पाते हैं. उनकी रचनाओं में अन्तर्निहित विचार, उनके शिल्प के वैभव में ग़ुम नहीं होते, बल्कि इसी कारण वे शास्त्रीय होकर भी लोकप्रिय हैं और लोकप्रिय होकर भी शास्त्रीय!
रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने जीवन के अंतिम दस-बारह वर्षों में पूरी तन्मयता से चित्र-रचना की थी. उन्होंने चित्रकला को 'शेष बोयेशेर प्रिया' या 'जीवन संध्या की प्रेयसी' माना था. रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने चित्रकला को खेल के बहाने वक्त गुजारने की संगिनी माना था (खेलार छले बेला काटा नोर शोंगिनी एई चित्रोकला') पर जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचकर जब कोई किसी नए काम को इतनी तन्मयता के साथ करता है तो यह कतई जरूरी नहीं कि यह उनके रचना कर्म का एक विस्तार मात्र ही हो.
रबीन्द्रनाथ अपने जीवन में लम्बे समय तक कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, गीत, नृत्य आदि विधाओं में पूरी ऊर्जा और तन्मयता के साथ सक्रिय रहे किन्तु जीवन के अंतिम दस वर्षों की अवधि में चित्रकला को जिस गम्भीरता से उन्होंने लिया, उसे उनके रचना कर्म का महज एक 'विस्तार' नहीं माना जा सकता, बल्कि ऐसा अनुभव होता है कि चित्रकला को उन्होंने अपने अन्य रचना-कर्म का 'विकल्प' माना. शब्दों की दुनिया के कोलाहल से चलकर एक ख़ामोश कला में खो जाने के इस सफ़र को हम शायद उन्हीं की बातों से बेहतर समझ सकते हैं.
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने अपने पत्रों में चित्रकला पर जितना लिखा, उतना पहले कभी नहीं लिखा. अपने पत्रों, लेखों और व्याख्यानों में जब भी उन्होंने चित्रकला पर लिखा या कहा, उनमें वे एक स्वतन्त्र और निर्भीक कलाचिन्तक की भूमिका में कला की कई स्थापित मान्यताओं के खिलाफ एक नई जमीन तैयार करने का प्रयास करते दिखे. यहां यह भी सच है कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर इस बात को बख़बूी समझते थे कि उनके अपने देशवासी उनकी बातों से आसानी से सहमत नहीं होंगे.
अपने शोध में भौमिक इस बात का शिद्दत से जि़क्र करते हैं कि पत्रों, व्याख्यानों और लेखों के अलावा अपने दैनन्दिन रचनाकर्म के साथ-साथ जब-जब कोई विचार उनके मन में आता था, रबीन्द्रनाथ ठाकुर उसे अपनी डायरी में लिखकर रख लेते थे. उनकी ये टिप्पणियां जीवन, रचना, किसी घटना या किसी स्थान पर कभी-कभी स्वीकारोक्तियों के रूप में भी नजर आती हैं. इन समस्त संक्षिप्त टिप्पणियों को संकलित कर सन् 1912 में 'छिन्न पत्र' के नाम से प्रकाशित किया गया था, जिसमें पहली टिप्पणी या लघु-लेख अक्टूबर, 1885 का है.
इसी पुस्तक में प्रकाशित दिनांक 17 जुलाई 1893 की टिप्पणी रबीन्द्रनाथ की कला-यात्रा को समझने में हमारी मदद करती है. वे लिखते हैं, 'अगर मुझे सच कहना हो तो मैं कहूंगा कि यह जो चित्र-विद्या है, उसकी ओर भी मैं हरदम एक हताश प्रेम की लालच भरी निगाहों से देखता रहा हूं- पर उसके मिलने की मुझे कोई उम्मीद नहीं है. साधना करने की अब उम्र नहीं रही. दूसरी विद्याओं जैसे ही उसे आसानी से नहीं हासिल किया जा सकता है… बस केवल कविता को साथ लिए चलूं, यही सबसे आसान है मेरे लिए. लगता है, इसी (कविता) ने ही मुझे अपना सब-कुछ सौंपा है!'
रबीन्द्रनाथ ठाकुर के इस बयान से यह तो स्पष्ट है कि उनका चित्रकला के प्रति भले ही आकर्षण क्यों न रहा हो, चित्र-रचना की बात तो वह कतई नहीं सोच रहे थे. पर इसके सात वर्षों बाद (17 सितम्बर, 1900 ई.) में जगदीश चंद्र बोस (प्रतिष्ठत विज्ञानी और कला मर्मज्ञ) को लिखे एक पत्र से हमें पता चलता है कि रबीन्द्रनाथ ठाकुर शायद चित्र-रचना की ओर धीरे-धीरे आकृष्ट हो रहे थे. यहीं पर यह भी समझ में आता है कि ऐसा वे किसी पूर्णकालीन या पेशेवर चित्रकार बनने के उद्देश्य से नहीं कर रहे थे.
उन्होंने लिखा- 'यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि मैं एक स्कैच बुक लेकर चित्र बना रहा हूं. कहना न होगा कि मैं ये चित्र पेरिस की किसी प्रदर्शनी के लिए नहीं बना रहा हूं… पर जिस तरह से अपने बदसूरत बच्चे के लिए माँ के मन में एक ख़ास प्रेम होता है, उसी प्रकार जो विद्या नहीं आती उसके प्रति लोग दिल से एक ख़ास आकर्षण महसूस करते हैं. इसीलिए जब मैंने तय कर लिया कि अब थोड़ा आलस का मजा लूं, तब खोजते-खोजते मेरे हाथ चित्रकला आ लगी.
इस दिशा में कुछ हासिल करने में सबसे बड़ी दिक्कत यह आ रही कि जितना मैं पेन्सिल का उपयोग कर रहा हूं, उससे भी ज्यादा मुझे रबर के इस्तेमाल करने का अभ्यास होता जा रहा है- इसलिए मृत राफ़ेल (विश्व प्रसिद्ध इतालवी चित्रकारः 1483-1520 ई.) अपनी कब्र में निश्चित होकर सोये रह सकते हैं कि मेरे हाथों उनके यश में कोई कमी नहीं होने वाली!'
रबीन्द्रनाथ ठाकुर, जो सन् 1900 ई. में चित्र-रचना के बारे में लिखते हुए स्पष्ट कहते हैं कि पेरिस (विश्व में चित्रकला का सबसे महत्वपूर्ण माना जाने वाला केन्द्र) में प्रदर्शनी करने के लिए चित्र नहीं बना रहे हैं. वही रबीन्द्रनाथ ठाकुर तीस साल बाद अपनी लगन और आत्मविश्वास के चलते एक ऐसे स्तर तक पहुंच जाते हैं, जहां उसी शहर यानी कि पेरिस की गैलेरी पिगाले में (मई 2, 1930 से मई 19, 1930 ई.) उनकी पहली प्रदर्शनी का आयोजन होता है. यही नहीं, मात्र एक वर्ष (मई 1930 से मई 1931 ई.) के दरम्यान फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, डेनमार्क, स्विट्जरलैण्ड, रूस और अमेरिका में उनकी एकल प्रदर्शनियों का सफल आयोजन होता है.
रबीन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रों को लेकर तत्कालीन भारतीय कला-जगत क्या सोच रहा था, यह शायद इतिहासकार बता पाएंगे, पर रबीन्द्रनाथ ठाकुर स्वयं अपने रचनात्मक जीवन में आए इस नए परिवर्तन के प्रति बेहद सजग थे और यह ख़ूब समझते थे कि भविष्य उन्हें जब भी याद करेगा, उनके कलाकार की भूमिका को काटकर याद नहीं कर सकेगा. रबीन्द्रनाथ ठाकुर दिनांक 24 अक्टूबर, 1930 ई. को एक पत्र में लिखते हैं, 'मैंने (पहले) कभी चित्र नहीं बनाये थे, सपने में भी यह यकीन नहीं किया था कि कभी चित्र बनाऊँगा. पिछले दो-तीन वर्षों में मैंने बड़ी तादाद में चित्र बनाये और यहां (विदेश में) लोगों ने उनकी तारीफ़ भी की है… जीवनग्रन्थ के सभी अध्याय जब समाप्त होने को आये हैं, तब एक अभूतपूर्व ढंग से मेरे जीवन देवता ने उसका परिशिष्ट लिखने के लिए मुझे साधन जुटा दिया है.'
रबीन्द्रनाथ ठाकुर अपने जीवन के अंतिम दौर में चित्रकला से कितनी गहराई से जुड़ गए थे, इस बारे में हम सभी जानते हैं पर उनका एक ख़ास बयान हमें कई बातों पर सोचने के लिए मजबूर करता है. अपने एक पत्र में (07 नवम्बर, 1928 ई.) वे एक स्थान पर लिखते हैं कि 'अब मैं चित्रकला से इस कदर जुड़ गया हूं कि प्रायः यह भूल जाता हूं कि मैं कभी कविता भी लिखा करता था.' निस्सन्देह यह एक बेहद महत्वपूर्ण स्वीकारोक्ति है क्योंकि यह उस व्यक्ति का बयान है जिन्होंने न केवल असंख्य कविताएँ रचीं, जिन्हें कविता के लिए ही नोबेल पुरस्कार मिला था, बल्कि जिन्हें विश्व-कवि के रूप में ही लोग जानते हैं. ऐसा लगता है कि उन्हें चित्रकला में 'मुक्ति' का एक ऐसा आनन्द मिला था जिसे वे शायद उम्र भर साहित्य और अन्य कला विधाओं में तलाशते रहे थे
.रबीन्द्रनाथ ठाकुर किस गहराई से चित्रकला से जुड़ते चले गए, इसका प्रमाण हमें इन टिप्पणियों से मिलता जरूर है, पर हम प्रतिभा के उस विस्फ़ोट का शायद ही अनुमान लगा सकते हैं. विश्व के अनेक रचनाकार हैं जिन्होंने सत्तर की उम्र के बाद भी अपनी रचनात्मक सक्रियता को कम नहीं होने दिया, किन्तु एक नितान्त नई विधा में, बिना किसी व्यवस्थित कला-शिक्षा के रबीन्द्रनाथ ठाकुर का अपनी बढ़ती उम्र में चित्रकला के क्षेत्र में आगमन और अपने जीवन के अन्त तक उत्तरोत्तर बढ़ती उनकी सक्रियता हमें अचम्भित करती है. शायद पैशन, आवेश, अनुराग या जूनून शब्द इसकी ठीक-ठीक व्याख्या नहीं कर सकते.
विख्यात फिल्म निर्देशक और कथाकार सत्यजीत राय ने रबीन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रों पर कहा है- रबीन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रों और रेखाचित्रों की संख्या दो हजार से कहीं अधिक है. वे किसी देशी या विदेशी चित्रकार से प्रभावित नहीं थे. उनके चित्र किसी परम्परा से विकसित नहीं हुए. वे निस्संदेह मौलिक हैं. वे मानवीय संवेदनाओं के प्रतिबिंब है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विनय उपाध्यायकला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
Next Story