सम्पादकीय

जब शास्त्री जी को लेख छपने पर सुखद आश्चर्य हुआ

Gulabi
2 Oct 2021 6:39 AM GMT
जब शास्त्री जी को लेख छपने पर सुखद आश्चर्य हुआ
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दरअसल मैंने लेखन के क्षेत्र में अनुवाद के माध्यम से प्रवेश किया

दरअसल मैंने लेखन के क्षेत्र में अनुवाद के माध्यम से प्रवेश किया। मेरी अंग्रेजी की शिक्षिका व रचनाकार, दिवंगत दमयंती रैना, अक्सर मुझे अपने लेख हिंदी में अनुवाद करने के लिए दिया करती थीं। बदले में, उन अनुवादित अंशों के लिए मुझे भुगतान किया जाता था। कॉलेज के दिनों में ये पैसे मेरी पॉकेट मनी (जो मुझे मेरे पिता जी द्वारा नियमित रूप से हर महीने की पहली तारीख़ को मिला करती थी ) के अतिरिक्त मेरे लिए अन्नप्राशन समान हुआ करते थे।

रैना गुरूजी ने मुझे मार्गदर्शन हेतु सघन व समर्थ लेखन के लिए प्रसिद्ध, वरिष्ठ पत्रकार और स्वाधीनता सेनानी स्वर्गीय पुरुषोत्तम दास टंडन से भी परिचित कराया। उन्होंने भी मुझे लिखने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया और यह भी हिदायत दी कि अच्छे दैनिक अख़बारों के लिए भी लिखा करूँ। कुछ समय बाद, मैंने संपादकीय पृष्ठ हेतु एक लेख लिखा और पर्याप्त साहस जुटाते हुए श्री टंडन को उसका मसौदा दिखाने उनके बंगले पहुंच गया।
उन्होंने बड़ी तत्परता से लेख में कुछ सुधार किए और बोले कि इसे निकट ही स्थित अमुक अखबार के कार्यालय में दे आओ। कुछ ही दिनों के भीतर मेरा लेख प्रकाशित हुआ, पर महत्वपूर्ण बात यह रही कि मुझे उस लेख के लिए 'मनी ऑर्डर' के माध्यम से समाचार पत्र द्वारा मानदेय भी भेजा गया।
डाकिये द्वारा पैसे मिलने पर मैं बहुत खुश था। उतावले पन में श्री टंडन को यह खुशखबरी सुनाने के लिए मैं तुरंत पास के डाकघर स्थित दूरभाष केंद्र पैर बढ़ाते हुए भागा और उनसे मिलने के लिए उचित समय का अनुरोध भी किया। सस्नेह उन्होंने मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया
अगले दिन निश्चित समय पर, मैं अपनी साइकिल पर सवार होकर उनके घर पहुंचा और अद्यतन उनके साथ मानदेय वाली खुशखबरी पुनः साझा की और बताया कि यह वही लेख है जिसको उन्होंने अपनी क़लम से हाल ही में संशोधित किया था। वह बहुत खुश हुए और इसी सन्दर्भ में उन्होंने मुझे, लाल बहादुर शास्त्री जी के लेखन- अवदान के भुगतान से सम्बंधित एक बहुत ही दिलचस्प किस्सा सुनाया, जो आज भी मेरे ज़हन में बिल्कुल ताजा है।

दरअसल, श्री टंडन का शास्त्री जी से घनिष्ठ परिचय था और वे एक दूसरे को कई दशकों से जानते थे। उन्होंने मुझे बताया कि शास्त्री जी ' सादा जीवन उच्च विचार' की प्रतिमूर्ति थे, वर्षों वह आर्थिक संत्रास से भी दो चार रहे। विशेष रूप से, नैनी सेंट्रल जेल (जहां उन्हें भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हिरासत में रखा गया था) से रिहा होने के बाद वह आर्थिक संघर्ष के चलते प्रायः उदिग्न नज़र आते। पर स्वाभिमानी इतने थे कि किसी से अपनी आर्थिक सहायता करने के लिए कभी कुछ नहीं कहा।

लाल बहादुर शास्त्री
एक दिन शास्त्री जी ने उनसे कहा, "टंडन! मैंने सुना है कि तुम अपने लेख अखबारों में भेजने के अलावा अन्य लोगों के लेख भी प्रकाशित करवाते हो !" टंडन जी ने शास्त्री जी की बात की ताईद करते हुए कहा कि बिल्कुल वह ऐसा करते हैं और अगर शास्त्री जी स्वयं उनके लिए लिखें तो उन्हें और अधिक प्रसन्नता होगी। शास्त्री जी ने पूछा कि क्या उन्हें भी उनके लेखों के लिए भुगतान किया जाएगा।

इस पर श्री टंडन ने उन्हें आश्वासन दिया कि उनके लेख एक साथ कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हो सकते हैं और उनमें से कुछ का भुगतान भी होगा। आखिरकार, शास्त्री जी के लेख प्रकाशित हुए और श्री टंडन को शास्त्री जी के लेखों के लिए सभी जगहों से कुल मिलाकर लगभग दो सौ रुपये मिले, जो उन दिनों काफी बड़ी राशि मानी जाती थी।

जब टंडन साहब ने यह रक़म शास्त्री जी के हांथों में रखी, तो वह बहुत हैरान हुए और पूछा, "यह पैसा क्यों भाई ? तुमको यह कहाँ से मिला है ? तुम मुझे क्यों दे रहे हो ?" इस पर, श्री टंडन ने उन्हें बताया कि यह उनके लेखों का मानदेय है। लेकिन शास्त्री जी वास्तव में इस पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे क्योंकि उन्होंने लेखों के माध्यम से इतने पैसों की उम्मीद नहीं की थी। फिर उन्होंने कहा, "टंडन, तुम मेरे साथ मजाक तो नहीं कर रहे हो। अखबारों से जितना मिला है, उससे कहीं ज्यादा तुम मुझे दे रहे होगे। मैं तुम्हारे दोस्ताना व्यवहार की सराहना करता हूं, लेकिन मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता।"

तब श्री टंडन ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वास्तव में यह सारा पैसा उन्हीं का है। अंत में, उनकी बात मानते हुए शास्त्री जी ने कहा, "ठीक है टंडन, पर इसमें से तुम अपना कमीशन तो ले लो, जो मैं समझता हूं कि पचास प्रतिशत होना चाहिए।"

"मैं आपका दोस्त हूं, कमीशन-एजेंट नहीं," श्री टंडन ने उत्तर दिया और शास्त्री जी मुस्कुराते हुए तुरंत अन्य विषय-विमर्श में दत्तचित्त नज़र आये।


अमर उजाला
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