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- इस निशा की भोर कब
हाल ही में एक मशहूर पूर्व क्रिकेटर पर उनकी पत्नी ने घरेलू हिंसा की शिकायत पुलिस के पास दर्ज कराई। आरोप था कि नशे में उन्होंने अपनी पत्नी को बर्तन से मारा। रोजाना आने वाली खबरों में से यह महज एक है, जो इसमें किसी मशहूर व्यक्तित्व के शामिल होने की वजह से सुर्खियों में भी आई। लेकिन यह कोई नई घटना नहीं है।
गरीब और मध्यम तबके की दूर, तथाकथित रूप से सभ्रांत और उच्च तबके से संबंध रखने वाले परिवारों में भी पुरुषों पर ऐसे आरोप अक्सर लगते आए हैं। मगर मशहूर सितारों को लोग अपना आदर्श मानते हैं। उनके द्वारा की गई घरेलू हिंसा समाज में गलत संदेश देती है। एक अनुकरण आधारित समाज में उच्च तबकों के बीच ऐसे कृत्यों को अप्रत्यक्ष रूप से स्त्रियों के खिलाफ घरेलू हिंसा की स्वीकार्यता के तौर पर देखा जाता है।
घरेलू हिंसा चारदिवारी के भीतर अपनों के हाथों ही किया जाने वाला ऐसा उत्पीड़न है, जिसे अपराध कानून में माना जाता है, लेकिन यह एक अघोषित व्यवस्था के तौर पर चलता रहता है। यह कतई जरूरी नहीं कि यह क्रूरता पति ही करे। यह घरेलू शोषण की परंपरा है, जिसे माता-पिता, ससुराल पक्ष या परिवार का कोई सदस्य भी करता है।
इस दायरे में शारीरिक, मानसिक, यौन, भावनात्मक या आर्थिक शोषण भी आता है, जिसे अंजाम देने वाले अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन उसकी पीड़ित और भुक्तभोगी स्त्री ही होगी। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के 2021 के आंकड़ों पर नजर डाला जाए तो घरेलू हिंसा के मामलों में पिछले वर्ष से लगभग इकतीस फीसद तक की बढ़ोतरी हुई है। ये आंकड़ें तब के हैं, जब आज भी स्त्रियों पर हो रहे अत्याचारों की रिपोर्ट न करने का दबाव परिवार या समाज द्वारा बनाया जाता है।
सवाल है कि हम किस तरह का समाज अब तक बना सके हैं, जिसमें किसी स्त्री का जीवन सहज और सुरक्षित नहीं है। आज भी क्यों बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा और इन परिस्थितियों में उत्पन्न मानसिक अवसाद लोगों को हिंसात्मक रवैए की तरफ धकेल देती है? मगर हकीकत यह भी है कि कई बार इन कारणों को अपनी ढाल बनाकर भी घरेलू हिंसा की जाती है।
मानसिक चिंता से घिरा व्यक्ति अपने हिंसक बर्ताव को तनाव का नतीजा करार देता है। पर यह बात समझ नहीं आती कि अपनी किसी पीड़ा को हम दूसरों के उत्पीड़न का आधार कैसे घोषित कर देते हैं? समझ के परे यह भी है कि मानसिक तनाव में घिरा व्यक्ति अपने से कमजोर पर ही कैसे हावी होता है! उचित आय का माध्यम न होने पर वह अपने भाई या परिवार के अन्य सदस्यों पर धाक क्यों नहीं जमा पाता?
ऐसा इसलिए है कि सच्चाई इन कारणों में निहित है ही नहीं। अगर ऐसा ही होता तो फिर जिन घरों में पुरुषों के मानसिक अवसाद का कोई जायज कारण नहीं होता, उन घरों में घरेलू हिंसा जैसी वारदात नहीं होती। मगर यहां तो सामाजिक और आर्थिक पैमाने पर उत्कृष्ट पायदानों पर बैठा व्यक्ति भी घरेलू हिंसा को अंजाम देने में संलिप्त पाया जाता है।
पुरुषवादी सोच, जिसके मूल में अहं की सत्ता काबिज है, दरअसल यही इसका मूल कारण है। स्त्रियों का अपने जीवन के प्रत्येक आयामों में पुरुष पर निर्भरता इसे बढ़ावा देती है। स्त्री किसी भी विपरीत स्थिति में पुरुष की ओर ही संबल के लिए देखती है, जबकि वह खुद हर आयाम पर बेहतर और सक्षम साबित हो सकती है। आर्थिक स्वतंत्रता से स्त्रियों को कोसों दूर रखना भी एक प्रमुख कारण है और यह घरेलू हिंसा को सहने के लिए कई बार मजबूर भी करता है।
समाज का हर तबका एक तरह से घरेलू हिंसा का अभ्यस्त दिखता है। कई रिपोर्ट इस बात का खुलासा कर चुके हैं कि घर में किया हुआ अमानवीय व्यवहार स्त्रियों के लिए भी उतना ही सहज और स्वीकृत है। स्त्रियों को खुद इसमें कई बार कुछ गलत या प्रतिक्रियात्मक नहीं लगता, क्योंकि वे बचपन से ही अपने आसपास इस चीज की स्वीकृति देखती हैं और इसी में उनका समाजीकरण हुआ होता है।
दरअसल, हमने समाज में महिलाओं के प्रति हो रहे घरेलू हिंसा को कदम दर कदम स्वीकृति दी है। पति अगर बेवजह अपशब्दों और गालियों की बौछार करे तो परिवार से लेकर समाज की ओर से सांत्वना दिया जाता है कि चलो कम से कम हाथ नहीं उठाता है, इसे नजरंदाज करो। अगर पति या ससुराल पक्ष हाथ उठा दे तो सांत्वना दिया जाता है कि कम से कम भरण-पोषण तो कर रहा।
मारपीट कर घर से निकाल दे तो बच्चों के भविष्य का हवाला देकर मौन कर दिया जाता है। आशय यह कि किसी भी परिस्थिति को सहने के लिए घर-परिवार एक विचार रख देता है, जिसके हिसाब से स्त्रियों की बुरी से बुरी परिस्थिति भी सही घोषित कर दी जाती है। जिस देश में स्त्रियों को देवी मान उसकी पूजा करने की बात कही जाती है, आवश्यकता पड़ने पर स्त्रियों ने संघर्ष का हर मोर्चा संभाला है, वैसे देश में स्त्रियों की आधुनिक स्थिति घोर निराशा की ओर धकेलती है।
क्रेडिट : jansatta.com