सम्पादकीय

जब भूखे बच्चे अकुलाते हों

Subhi
15 May 2022 5:07 AM GMT
जब भूखे बच्चे अकुलाते हों
x
आज सुबह मैं उस इमारत को देखने गई, जो तैयार होने के बाद बन जाएगी भारतीय लोकतंत्र का नया मंदिर। इस इमारत के पास जाने नहीं देते हैं

तवलीन सिंह; आज सुबह मैं उस इमारत को देखने गई, जो तैयार होने के बाद बन जाएगी भारतीय लोकतंत्र का नया मंदिर। इस इमारत के पास जाने नहीं देते हैं लोकसभा के पहरेदार, लेकिन काफी करीब जाकर जब मैंने नए संसद भवन को देखा, तो दिखा कि जो पुरानी इमारत है संसद की, वह इतनी छोटी, इतनी बौनी दिखती है कि उसको देख कर याद करना मुश्किल होगा 'न्यू इंडिया' के बाशिंदों को कि यह बौनी, गोल इमारत वही है, जो गवाह है भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की।

इस महीने की 26 तारीख को पूरे होंगे नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के पूरे आठ वर्ष। इन आठ सालों में मोदी ने साबित किया है कि उनको बड़ी-बड़ी इमारतों का बहुत शौक है। उनके प्रवक्ता जब उनकी प्रशंसा करते हैं, तो कहना कभी नहीं भूलते कि 'विश्व का यह सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान है' या 'विश्व की यह सबसे ऊंची प्रतिमा' है।

इतिहास जब इस दौर का लिखा जाएगा, तो जरूर याद किया जाएगा कि मोदी ने अपने शासनकाल में बहुत सारी विशाल इमारतें बनाई थीं और बहुत सारी विशाल योजनाओं की नींव रखी थी। लेकिन इन विशाल चीजों के बीच अपने प्रधानमंत्री जैसे भूल गए हों उन छोटी चीजों को, जो बड़ी इमारतों और योजनाओं से कहीं ज्यादा जरूरी हैं। आज चलिए बात करते हैं उन 'छोटी' चीजों की।

शुरू करते हैं देश के बच्चों से। पिछले हफ्ते राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की रिपोर्ट आई, जिसके मुताबिक नवासी फीसद भारतीय बच्चे कुपोषित हैं। एनएफएचएस का पिछला सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ था 2015-16 में, जिससे पता लगा था कि भारत के 90.4 फीसद बच्चे कुपोषित थे। सो, मोदी के दौर में इतना थोड़ा परिवर्तन आया है इस गंभीर आंकड़े में कि न होने के बराबर।

कड़वे सच और भी हैं 'न्यू इंडिया' के। स्वच्छ भारत अभियान की चर्चा विश्व में जरूर हुई है और मोदी की प्रशंसा भी बहुत हुई है दुनिया में इस अभियान को लेकर, लेकिन दिल्ली के एक विशाल कूड़े के पहाड़ में कई दिनों तक आग लगी रही, जिसको कोई बुझा नहीं पा रहा था, क्योंकि यह पहाड़ सत्रह मंजिला इमारत से ऊंचा है। कूड़े के इस पहाड़ पर गंदगी जलने से ऐसी जहरीली हवा आ रही थी, जो दिल्ली की अति-प्रदूषित वायु को और प्रदूषित कर रही थी। सवाल है कि हम अगर चांद तक जाने का सपना देख सकते हैं, तो क्यों नहीं दुनिया के अन्य देशों से सीख सकते हैं कूड़े को नष्ट करने के आधुनिक तरीके?

प्रधानमंत्री की नजरों में शायद यह छोटी बात होगी, लेकिन हर भारतीय गांव में मिलेंगे आपको सड़ते कूड़े के ढेर। इतनी गंदगी, इतनी मैल है भारत माता के चेहरे पर कि जितनी शायद ही किसी दूसरे देश में देखने को मिलती हो। हमसे गरीब देश भी सीख गए हैं सफाई के आधुनिक तरीके, तो हम क्यों नहीं सीख पाए हैं, बावजूद इसके कि विशेषज्ञ साबित कर चुके हैं कि भारत की तकरीबन नब्बे फीसद बीमारियां गंदगी से पैदा होती हैं।

अब चलिए बात करते हैं 'ईज आफ डूइंग बिजनेस' की। मोदी सीना तान के कहते हैं कि बिजनेस करना उनके राज में इतना आसान हो गया है कि विदेशी निवेशकों को यहां आकर 'मेक इन इंडिया' करना चाहिए। पिछले हफ्ते मेरी मुलाकात हुई थी एक ऐसे व्यक्ति से, जिसका छोटा-सा कारोबार है एक्सपोर्ट का।

उसने मुझे बताया कि जीएसटी आने के बाद कस्टम्स अधिकारियों को पैसा बनाने का नया जरिया मिल गया है। उसके शब्दों में, 'हम जब अपने कागजात लेकर जाते हैं जीएसटी दफ्तर में, तो ये लोग कुछ न कुछ ढूंढ़ निकालते हैं और हमारी खेप रुक जाती है। लेकिन इस आलीशान सरकारी दफ्तर के बाहर मिलते हैं दलाल, जो हमको लेकर जाते हैं पास में एक छोटे से दफ्तर में, जहां रिश्वत तो देनी पड़ती है, लेकिन कागजात स्वीकृत हो जाते हैं।'

कुछ बड़े उद्योगपति हैं जो मोदी के राज में कामयाबी की सीढ़ियां तेजी से चढ़ पाए हैं, लेकिन ऐसा किया है उन्होंने अपनी पहुंच की वजह से, इसलिए नहीं कि बिजनेस करना आसान हो गया है भारत देश में। भ्रष्टाचार वैसे का वैसा है जैसे सोनिया-मनमोहन के राज में था। उदाहरण पिछले सप्ताह आया झारखंड से, जहां पूजा सिंघल नाम की एक आइएएस अधिकारी को गिरफ्तार किया गया है।

उसके चार्टर्ड अकाउंटेंट के घर से सत्रह करोड़ से ज्यादा रुपए नगद में मिले हैं। मुंबई में रहती हूं, सो अक्सर मिलती रहती हूं उद्योग जगत के लोगों से और आज तक ऐसा बंदा नहीं मिला, जिसने कहा कि भ्रष्टाचार कम हुआ है मोदी के राज में या बिजनेस करना आसान हुआ है।

इन चीजों के बारे में अगर हम मीडिया वाले चर्चा कम करते हैं तो इसलिए कि 'न्यू इंडिया' में हर दूसरे दिन हमको हिंदू-मुसलिम झगड़ों को लेकर उलझना पड़ता है। मंदिरों-मस्जिदों के बीच हम फंसे रहते हैं। कभी राम भगवान के नाम पर झगड़े हो जाते हैं और कभी हनुमान चालीसा को लेकर। देवताओं और धर्म-मजहब के झगड़ों से निकल पाते हैं, तो फंस जाते हैं इन दिनों बुलडोजरों तले।

किसको फुरसत है देश के बेहाल, कुपोषित बच्चों की तरफ ध्यान आकर्षित करने की? किसको फुरसत है ध्यान दिलाने की कि रुपया रोज कमजोर हो रहा है, रोज महंगाई कमर तोड़ रही है आम आदमी की और रोज देश का आर्थिक हाल बदतर हो रहा है?

समस्या यह है कि देश की प्रगति इन चीजों पर निर्भर है, मंदिर चाहे जितने बन जाएं मस्जिदों की जगह, चाहे साबित हो जाए कि कुतुब मीनार और ताजमहल हिंदू इमारतें हैं, मुसलिम नहीं, तो क्या हासिल होगा अगर हमारे बच्चे कुपोषण से मरते रहे हैं? होगा यह छोटा-सा सवाल, लेकिन बहुत जरूरी है।


Next Story